
आंकड़ों के बारे में एक पुरानी पर ग्लैमरस कहावत हैः वे बिकिनी की तरह होते हैं जो दिलचस्प चीजों को उघाड़ देते हैं लेकिन बुनियादी चीजों को छुपा ले जाते हैं. यह बात भारत में जंगलों के बढ़ते क्षेत्रफल के आंकड़ों की व्याख्या पर भी लागू होती दिखती है.
फरवरी में जारी की गई इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट, 2017 के आंकड़े बता रहे हैं कि देश में आजादी के बाद से ही जंगलों के क्षेत्रफल में कोई कमी नहीं आई है. इसके मुताबिक, 2015 के बाद से देश में वन क्षेत्र में करीब 6,778 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी हुई है, जो कि करीबन 0.21 फीसदी है. कहने का मतलब यह हुआ कि इस वक्त देश के क्षेत्रफल में वन क्षेत्र का हिस्सा 21.54 फीसदी है (बॉक्स देखें).
रिपोर्ट जारी करते केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्री डॉ. हर्षवर्धन यह बताते हुए खासे खुश दिख रहे थे कि "पिछले एक दशक में दुनिया भर में जहां वन क्षेत्र घट रहे हैं वहीं भारत में इनमें लगातर बढ़ोतरी हो रही है.''
उन्होंने दावा किया कि वन क्षेत्र के मामले में भारत दुनिया के शीर्ष 10 देशों में है और ऐसा तब है जबकि बाकी 9 देशों में आबादी का घनत्व 150 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है और भारत में यह आंकड़ा 382 का है.
दस साल के बाद पहली दफा ऐसा हुआ कि देश में सघन वनों (जिसमें अति सघन वन भी शामिल हैं) के इलाके में 5,198 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी दर्ज की गई है. इसमें मध्यम सघन और अति सघन दोनों दर्जे के वन शामिल हैं (गौरतलब है कि अति सघन वनों में गाछों की छाया 70 फीसदी से अधिक होती है जबकि मध्यम सघन वनों में यह 40 से 70 फीसदी होती है).
सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायर्नमेंट की महानिदेशक सुनीता नारायण इस आंकड़े को कुछ यूं समझाती हैं, "इस रिपोर्ट के मुताबिक, वनों की परिभाषा में वैसा हर इलाका आ जाता है, जो एक हेक्टेयर से ज्यादा का हो और जहां गाछों की छाया 10 फीसदी से ज्यादा हो.
इसमें भू-उपयोग, मालिकाना हक या कानूनी स्थिति का जिक्र नहीं होता. दूसरे शब्दों में, देश के 21.54 फीसदी वन क्षेत्र में सरकारी जंगली जमीन पर उग रहे पेड़ों के साथ निजी जमीन के पेड़ भी शामिल हैं. लेकिन रिकॉर्डेड वन क्षेत्र में जंगलों के क्षेत्रफल को आंकना मुमकिन नहीं क्योंकि सभी राज्य सरकारों ने इन जमीनों के सीमांकन का काम पूरी तरह डिजिटाइज नहीं किया है.''
वन क्षेत्रों की सर्वे रिपोर्ट 1987 से जारी होने का सिलसिला शुरू हुआ. तब से जंगलों के क्षेत्रफल में महज 67,454 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी पाई गई थी. लेकिन 2015 की फॉरेस्ट रिपोर्ट के बरक्स 2017 में महज दो साल में यह बढ़ोतरी 6,778 वर्ग किलोमीटर की है. ऐसे में इन आंकड़ों का वास्तव में मतलब समझने के लिए संक्चयाओं और ग्राफिक्स से इनका तर्जुमा करना होगा.
डॉ. हर्षवर्धन तस्वीर को कुछ यूं रखते हैं, "हमारे पास दुनिया के कुल भूभाग का 2.4 प्रतिशत हिस्सा है, जिस पर दुनिया की 17 फीसदी आबादी और 18 फीसदी मवेशियों की जरूरत पूरी करने का दबाव है.'' वे इस बात पर जोर देते हैं कि वनों पर बढ़ते भारी दवाब के बावजूद भारत अपनी वन संपदा बचाने और उसे बढ़ाने में सफल रहा है.
पर नारायण की मानें तो "ये आंकड़े साफ बताते हैं कि राज्यों में बड़े पैमाने पर वन क्षेत्र का नुक्सान हुआ है. करीब 70,000 वर्ग किमी जमीन, जो पहले वन क्षेत्र में दर्ज थी, अब वह दस्तावेजों के डिजिटल होने के बाद "अस्तित्व में ही नहीं है''.
यह कुल रिकॉर्डेड वन क्षेत्र का करीब 12 फीसदी है. देश भर में वनों की सीमाओं के डिजिटलीकरण का काम अहम है. साथ ही, रिजर्व और संरक्षित वनों की जमीन की वास्तविक स्थिति के बारे में सही तस्वीर पेश करना भी उतना ही महत्वपूर्ण है.''
सुखद आश्चर्य वाला तथ्य यह है कि देश में अति सघन वनों का इलाका 9,526 वर्ग किमी बढ़ा है और इसी तरह खुले वनों का इलाका भी (1,674 वर्ग किमी). लेकिन मध्यम दर्जे के सघन वनों के इलाके में 4,421 वर्ग किमी की कमी आई है.
इस आंकड़े को थोड़ा समझेः 2015 में 4,148 वर्ग किमी बेहद सघन वन मध्यम सघन, खुले या झाड़ीदार वनों में या गैर वनीय क्षेत्रों में तब्दील हो गए. इसी तरह पिछले दो साल में करीब 350 वर्ग किमी अति सघन वन और 11,210 वर्ग किमी मध्यम सघन वन खुले वनों में बदल गए.
सैटेलाइट इमेजिंग से लेकर संरक्षण तक और रिकॉर्डेड वन क्षेत्र के बाहर वनरोपण के काम तक, इस बदलाव के कई कारण रहे हैं. तो क्या सैटेलाइट इमेजिंग में दर्ज सभी हरे इलाकों को जंगल कहा जा सकता है?
पर्यावरण से जुड़े एनजीओ द एनर्जी ऐंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (टेरी) में वन अध्ययन और जैव विविधता विभाग के फेलो योगेश देसाई हंसते हुए कहते हैं, "बढ़ी हुई हरियाली अगर यूकेलिप्टस और पॉपलर जैसे गैर-स्थानीय पेड़ों से है तो समझिए, वह स्थानीय जैव-विविधता को बिल्कुल मदद नहीं करती. आपने किसी यूकेलिप्टस के पेड़ पर कौए का घोंसला देखा है?''
देश में करीब 10 करोड़ लोग गुजारे के लिए सीधे जंगल पर निर्भर हैं. सो, जंगलों पर तीन मुख्य दबाव हैः जलावन, चारा और गैर-इमारती वनोपज. उत्तर प्रदेश में आबादी ज्यादा है, जंगल कम. जाहिर है, दबाव भी ज्यादा होगा. और सुरक्षा की भी एक सीमा है.
देसाई भी मानते हैं, "आप हर जगह पहरेदार लगा नहीं सकते. असल बात है, आप जंगलों पर लोगों की निर्भरता किस तरह कम करते हैं. मध्य प्रदेश में उज्ज्वला योजना का काफी सकारात्मक असर देखा गया है. इससे जलावन के लिए लकड़ी पर निर्भरता कम हो गई.''
भारतीय वन सर्वेक्षण हरित क्षेत्रों के वन के रूप में पहचान के लिए 24 वर्ग मीटर से बड़े किसी भी हरियाले क्षेत्र की तस्वीर ले सकता है. यह तस्वीर कुदरती जंगलों, कृषि वानिकी, बागानों, लैंटाना जैसे घने खर-पतवारों के विस्तार और लंबे समय से खड़ी कॉफी, नारियल और केले जैसी व्यावसायिक फसलों में अंतर नहीं कर सकती. खासकर बागान अगर जंगलों से सटा हो तो यह समस्या ज्यादा बढ़ती है.
ऐसे में शक होता है कि देश में लाखों ऐसे छोटे प्लॉट रहे हैं जहां अमराइयां या बाग हुआ करते थे और अब उन्हें जंगल माना जा रहा है. बिना क्षेत्रफल बढ़े अगर जंगल बढ़ रहे हैं, इसका कोई तो अलग मतलब होना चाहिए.
हालांकि, देहरादून स्थित भारतीय वन सर्वेक्षण के महानिदेशक सैबल दासगुप्त के मुताबिक, "एक हेक्टेयर से बड़े सभी भूखंड, जिन पर 10 फीसदी से ज्यादा वृक्षछाया हो, वन क्षेत्र माने जाते हैं. जरूरी नहीं कि ये रिकॉर्डेड वन क्षेत्र ही हों. इनमें अमराइयां, बगीचे, बांस और ताड़ भी शामिल होते हैं.''
पर देसाई इसमें जोड़ते हैं, "संरक्षण की वजह से घने जंगलों के बीच यानी कोर इलाके में हरियाली बढ़ गई है. यह बड़ी वजह है. क्षेत्रफल तो जंगलात का उतना ही है.''
सर्वे एक दिलचस्प तस्वीर पेश करता है. मसलन, 1987 में जारी पहली सर्वे रिपोर्ट में दिल्ली का 15 वर्ग किमी का वन क्षेत्र 2017 के सर्वे में 192 वर्ग किमी हो गया.
इसी तरह हरियाणा में यह आंकड़ा 644 वर्ग किमी से 1,588 वर्ग किमी और पंजाब में 766 से बढ़कर 1,837 वर्ग किमी हो गया. लेकिन असल मायनों में तो वनों का नुक्सान ही हु
आ है.
पिछले दो साल में अलग-अलग तरह की सघनता वाले कुल 10,455 वर्ग किमी जंगल गैर-वन क्षेत्र में तब्दील हो गए यानी साफ. यह आंकड़ा और अधिक होता लेकिन सर्वेक्षण के मुताबिक कुछ गैर-वनीय क्षेत्र भी जंगलों में बदले हैं, ऐसे में असली इलाका करीब साढ़े दस हजार वर्ग किमी बैठता है.
नारायण एक अहम तथ्य की ओर इशारा करती हैं, "रिपोर्ट यह भी बताती है कि रिकॉर्डेड फॉरेस्ट एरिया से बाहर लकड़ी उत्पादन की क्षमता 7.45 करोड़ क्यूबिक मीटर है.
जंगल महकमें के तहत उत्पादित 40 लाख घन मीटर से इसकी तुलना करें तो आप समझ जाएंगे कि असल में पेड़ कौन और कहां उगा रहा है.''
अब वक्त आ गया है कि भारतीय वन सर्वेक्षण अपनी रिपोर्ट में तथ्यों को ज्यादा बारीक ढंग से रखे और कृषि वानिकी के तहत हरियाली के आंकड़े अलग से पेश करे. वरना, यहां भी अश्वत्थामा हतोहतः की तरह हम अर्धसत्य को सच मानते रहेंगे.
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