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एक दशक पहले जब वॉल्वो ने भारत में कदम रखा था तब तक सिटी और इंटर सिटी बसों या साधारण और 'डीलक्स' बसों में सिर्फ यही अंतर था कि लक्जरी बसों की सीटें थोड़ा पीछे झुक जाती थीं और उनकी बाहरी बॉडी ज्यादा रंग-बिरंगी होती थी. भारत ने असली लक्जरी बस का स्वाद चखा 2001 में जब वॉल्वो ने भारत में 20 बसें बेचीं. दिसंबर, 2011 तक भारत की सड़कों पर 5,000 वॉल्वो बसें दौड़ने लगी थीं.
वॉल्वो की भारत में शुरुआत अच्छी नहीं थी. स्वीडन की कंपनी वॉल्वो बस कॉर्पोरव्शन ने 1998 में दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) के एक टेंडर के लिए बोली लगाई थी, इसके साथ भारत के कई शहरों में अपने बी10 एलई लो एंट्री सिटी बसों का प्रदर्शन भी किया था. तब लोगों ने इस बसों में काफी दिलचस्पी ली थी. वॉल्वो के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट (इंटरनेशनल रीजन) आकाश पासी बताते हैं, ''1998 के दिल्ली ऑटो एक्सपो में इसे बहुत से लोग देखने आए.''
इस बीच डीटीसी ने टेंडर टाल दिया. लेकिन कंपनी को भारत में अपनी बसों के लिए बाजार साफ दिख रहा था. हालांकि, तब पीछे की ओर इंजन वाली इन महंगी वॉल्वो बसों को लेकर कई सवाल और संशय थे. दरअसल वॉल्वो सिटी बसें राज्य परिवहन निगमों की बसों के मुकाबले दस गुना महंगी होती हैं.
पासी कहते हैं, ''ऐसी कोई वजह नजर नहीं आ रही थी कि भारत में वातानुकूलित बसें न चल सकें.'' इसलिए कंपनी ने वर्ष 2000 में हांगकांग और सिंगापुर से दो वॉल्वो बी7आर इंटर-सिटी बसें आयात कीं और उन्हें छह माह तक प्रदर्शन के लिए भारत की सड़कों पर उतारा.
फिर कंपनी ने निजी ऑपरेटर से संपर्क किया जो इंटर-सिटी 'डीलक्स' बसें चलाते थे और टिकटों की कीमतें बढ़ा सकते थे. पासी बताते हैं, ''वॉल्वो के पास कई तरह के प्रोडक्ट थे. हमें भारत के लिए सबसे उपयुक्त प्रोडक्ट का चुनाव करना था. लेकिन मैंने सबसे शानदार बस नहीं चुनी क्योंकि तब यहां के ऑपरेटरों को आगे की ओर इंजन वाली, बहुत कम सस्पेंशन और साधारण ब्रेक वाली बसें चलाने की आदत थी.''
ऑपरेटरों को यह समझने के लिए कि वॉल्वो बसों से उन्हें मुनाफ ा होगा, कंपनी की सेल्स टीम ने वॉल्वो बस की पूरी लाइफ के दौरान उस पर होने वाले खर्च और अन्य बसों का एक तुलनात्मक खाका पेश किया. वॉल्वो बसों में दूसरी बसों के मुकाबले कुछ ज्यादा सीटें भी थीं लेकिन 2000 के दशक के शुरुआती दिनों में इसका फायदा कम, नुकसान ज्यादा था. दरअसल उन दिनों राज्य सरकारें ऑपरेटरों से प्रति सीट के हिसाब से टैक्स वसूला करती थीं.
ऑपरेटरों के लिए इन बसों का सबसे बड़ा फायदा यह था कि वॉल्वो बसों को 22 घंटे तक लगातार बिना किसी मेंटेनेंस के चलाया जा सकता था. शुरुआत में ऑपरेटरों को संदेह था कि वॉल्वो हर 25 किमी पर मेंटेनेंस सेंटर बना पाएगी भी या नहीं. लेकिन उन्हें बताया गया कि वॉल्वो को इसकी जरूरत ही नहीं पड़ती. पासी बताते हें, ''हमने उन्हें बताया कि इसकी जरूरत ही नहीं पड़ेगी. हां, हम आपको हर 400 किमी पर एक मेंटेनेंस सेंटर देंगे.'' वॉल्वो ने एक और नया चलन शुरू किया. उसने पूरी बस के लिए सर्विस सपोर्ट दिया, न कि बस के अलग-अलग हिस्से के लिए, जैसा कि अब तक होता आया था.
उदाहरण के लिए वर्ष 2004 में 20 वॉल्वो खरीदने वाले मुंबई के नीता टूर ऐंड ट्रैवल्स ने यह अंदाजा लगाया कि वह सात ठिकानों के लिए सेवा शुरू कर सकती है. एक बस रात के 10 बजे अहमदाबाद से रवाना होकर सुबह 6 बजे मुंबर्ई पहुंच सकती है, फि र पुणे जा सकती है, वहां से वापस आकर रात 10 बजे अहमदाबाद पहुंच सकती है. इसके बाद ऑपरेटरों ने सेवा में सुधार पर ध्यान दिया. इसका यह भी मतलब था कि अब वे कुछ रूटों पर टिकट की कीमतों में 100 रु. तक इजाफा कर सकते थे.
बस टिकटों की ऑनलाइन बिक्री करने वाले पोर्टल रेडबस के संस्थापक और सीईओ फानिंद्र सामा कहते हैं, ''वॉल्वो ऐसे समय में आई जब प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही थी, लग्जरी के बारे में जागरूकता बढ़ गई थी और दूसरे एवं तीसरे दर्जे के कस्बों से शहरों की तरफ आना-जाना बढ़ रहा था.'' वॉल्वो तेज गति से लंबे रूट पर चल सकती थी इसलिए बंगलुरू-मुंबर्ई जैसे 1,000 किमी लंबे रूट पर यह लोकप्रिय हो गई.
वॉल्वो ने साबित किया है कि आमतौर पर किफायत पसंद भारतीयों के बीच ऐसे लोग भी हैं जो क्वालिटी के लिए कीमत चुकाने को तैयार हैं. आज देश के लग्जरी बस बाजार के 76 फ ीसदी हिस्से पर वॉल्वो का कब्जा है. वॉल्वो ने दक्षिण और पश्चिमी भारत से शुरुआत की. हालांकि 2004 तक भी इसकी देशव्यापी पहुंच नहीं बन पाई थी. पासी कहते हैं, ''हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण था सर्विस के साथ बिक्री बढ़ाना और दूसरा कोई रास्ता नहीं था.''
वॉल्वो ने न केवल ऑपरेटरों तक पहुंच बनाई बल्कि उससे जुड़े अन्य पक्षों से भी संपर्क साधा. भरपूर प्रचार भी किया, फिल्म थिएटरों में विज्ञापन चलवाए. वर्ष 2001 में बी7आर की लॉन्चिंग से पहले कंपनी ने चालकों और यात्रियों से भी फीडबैक लिया. पासी कहते हैं, ''हमें समझ आ गया कि सिर्फ प्रोडक्ट बेचने से काम नहीं चलेगा, हमें लग्जरी बस यात्रा का कांसेप्ट भी बेचना होगा.'' संयोग से राज्य सरकारों की कंपनियों ने न केवल वॉल्वो खरीदना शुरू किया बल्कि उनके लिए अलग ब्रांडिंग भी शुरू की जैसे कि आंध्र प्रदेश में इन्हें गरुड़ नाम दिया गया, महाराष्ट्र में शिवनेरी और कनार्टक में ऐरावत.
मुंबई-पुणे जैसे एक्सप्रेस-वे का विकास और मददगार रहा. आज यात्री वॉल्वो टिकट देने को कहते हैं. हालांकि अब वॉल्वो के सामने मर्सिडीज-बेंज और टाटा मोटर्स जैसे प्रतिद्वंद्वी भी खड़े हो गए हैं. हालांकि प्रतिस्पर्धा कड़ी होने पर वॉल्वो बाजार को बदलने के रणनीति कदम हमेशा से उठाती आई है.
इंटरसिटी की तरह ही वॉल्वो की सिटी बसों को भी सफ लता मिलती गई. जनवरी, 2006 में बंगलूरू मेट्रोपॉलिटन ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन को वॉल्वो ने भारत में अपनी पहली सिटी बसें बेची. और अब जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन के तहत 13 शहरों में वॉल्वो बसें चल रही हैं. इसकी इंटरसिटी बसों की लंबाई 14.5 मीटर है जोकि भारत में अन्य बसों की तुलना में सबसे ज्यादा है. वॉल्वो में यात्रियों और सामान के लिए जगह भी ज्यादा होती है.
इसकी मल्टी-एक्सल सिटी बस को शहरी ट्रैफिक जाम का कारगर समाधान माना जा रहा है. वॉल्वो को उम्मीद है कि वह 300 से 400 किमी की दूरी के लिए खास तौर से बनाई गई अपनी 9100 मॉडल वाली बसों के जरिए मझैले आकार के शहरों के बीच और भी बेहतर संपर्क उपलब्ध करा पाएगी. वॉल्वो का मानना है कि इस श्रेणी में यातायात निश्चित रूप से बढ़ेगा.
वर्ष 2008 में वॉल्वो ने बंगलुरू के नजदीक बसों का उत्पादन शुरू किया था. फिलहाल एक साल में इसकी 1,100 बसें बनती हैं जबकि वर्ष 2013-14 तक सालाना उत्पादन को 2,500 तक करने का लक्ष्य है. रेड बस के सामा कहते हैं, ''वॉल्वो के लिए फायदे की बात यह है कि वह अपनी बसें खुद बनाती है, जबकि मर्सिडीज अब भी अपने बॉडी मेकर सतलज पर निर्भर है.''
भारत में कोई और कंपनी वॉल्वो जैसी सफलता पा कर सकती थी? शायद हां, अगर उसके पास वॉल्वो जैसे प्रोडक्ट होते और उसी की तरह बाजार को विकसित करने के लिए पर्याप्त धैर्य होता. वॉल्वो की सफलता की एक महत्वपूर्ण वजह यह है भी कि उसका यह निवेश भारत में बदलाव लाने वाला साबित हुआ है.