
इधर ‘बुनियाद’ का प्रसारण जब फिर से दूरदर्शन पर शुरू हुआ तो मेरे मन में उत्सुकता जगी. मैंने कुछ एपिसोड टीवी पर देखे, लेकिन विज्ञापन की वजह से मैंने उसे यूट्यूब पर देखना पसंद किया और उसके सारे 105 एपिसोड देख लिए. 1986 में जब दूरदर्शन पर इसका पहली बार प्रसारण शुरू हुआ था, तब हमलोग बहुत छोटे थे और यह हमारे समझ से बाहर की चीज थी.
अगर किसी को 20वीं सदी के शुरुआत से लेकर देश की आज़ादी और बंटवारे की कहानी समझनी हो तो ‘बुनियाद’ उसके लिए ज़रूरी धारावाहिक है.
लाहौर की पृष्ठभूमि से शुरू होकर यह धारावाहिक आर्य समाज बनाम सनातनी, इंकलाबी बनाम गांधीवादी, जर्मन बनाम ब्रिटिश, प्रथम विश्वयुद्ध, द्वितीय विश्वयुद्ध, गांधी के नेतृत्व में चलने वाले अहिंसक आन्दोलन, भारतीय पूंजीपतियों के एक वर्ग का अंग्रेजों को समर्थन और अंग्रेजों द्वारा उन्हें तरह-तरह से पुरस्कृत किया जाना जैसी मिसालों से भरा है. इन ऐतिहासिक घटनाओं का सजीव चित्रण देखना हो तो यह धारावाहिक बहुत उपयोगी है.
इस धारावाहिक में यह भी संकेत मिलता है कि आर्य समाज का उस जमाने के हिंदुओं में सुधार लाने में कितनी बड़ी भूमिका थी, खासकर शिक्षा और महिला अभिव्यक्तिकरण के क्षेत्र में. महिला शिक्षा और विधवा विवाह के क्षेत्र में कैसे आर्य समाज के लोग काम कर रहे थे और अखबार और स्कूल खोल रहे थे, इसकी भी झलक इस धारावाहिक में है.
‘बुनियाद’ लाहौर के व्यापारी लाला गेंदामल के परिवार की कहानी है जिसका एक बेटा मास्टर हवेलीराम इंकलाबी (क्रांतिकारी) है और बाद में गांधीवादी हो जाता है. दूसरा बेटा लाला रलियाराम पिता की तरह ही विशुद्ध कारोबारी है और हर धतकरम से अपने धंधे को बढ़ाता रहता है.
एक व्यापारी का क्रांतिकारी बेटा और दूसरा अंग्रेज समर्थक कारोबारी बेटे के बीच के द्वंद, सरकारी दबाव और कारोबार की पेचिदगियों को अद्भुत ढंग से इस धारावाहिक में समेटा गया है. नई-नई राजधानी बनी दिल्ली, लाहौर वालों की पुरानी ठसक और पंजाबी मिश्रित हिंदी की मिठास अगर आप पाना चाहते हैं, तो इस धारावाहिक को ज़रूर देखिए.
हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार मनोहर श्याम जोशी लिखित इस धारावाहिक में लाहौर की पंजाबी सुगंध और दिल्ली की ब्रजभाषा से किंचित प्रभावित उस दौर की हिंदी शानदार लगती है. मशहूर निर्देशक रमेश सिप्पी के निर्देशन में बनी बुनियाद को शायद सिप्पी ही बना सकते थे जिनका परिवार कराची से विस्थापित होकर आज़ादी के बाद बंबई (अब मुंबई) आ गया था.
इस धारावाहिक में विभाजन की पेचिदगियां, हिंदू-मुस्लिम सम्बंध, दंगे की मानसिकता, लोगों के बीच घृणा और प्रेम को बहुत कायदे से दर्शाया गया है. विभाजन के बाद देश के भिन्न-भिन्न हिस्से में बसे शरणार्थी, उनके पुनर्वास के लिए किए जा रहे उपाय, पाकिस्तान में छूटी संपत्ति की जगह भारत में ‘क्लेम’ (दावे) की व्यवस्था इत्यादि का जबर्दस्त चित्रण इस धारावाहिक में देखने को मिलता है.
इसे देखते समय आंखों के सामने दिल्ली, कुरुक्षेत्र, लुधियाना, अमृतसर और जालंधर में लगे शरणार्थियों के तंबुओं के दृश्य तैर जाते हैं और आइसीएस ऑफिसर तरलोक सिंह जैसे लोगों के नाम याद आ जाते हैं, जिनका जिक्र कई किताबों में हुआ है.
भगाई या अपहरण कर ली गई स्त्रियों के पुनर्वास और उनकी घर वापसी का जो काम हुआ था उसका भी चित्रण इस धारावाहिक में है. लोग अपने खोये परिजनों को कैसे खोज रहे थे, ‘क्लेम रजिस्टर’ में कैसे दर-दर भटककर कोई अपने पिता, चाचा, मामा या बेटे को खोज रहा था और कैसे उस दुख की घड़ी में लोग एक दूसरे का साथ दे रहे थे, ये अगर जानना हो तो ये धारावाहिक ज़रूर देखी जानी चाहिए.
शरणार्थी शिविरों में सरकार और देसी व्यापारियों के चलाए जा रहे राहत कार्य, बेसहारा लड़कियों की शादी, शरणार्थी हिंदू और सिखों का अपेक्षाकृत शिक्षित और सम्पन्न होना और भारत में नए हालात में भी संघर्ष कर पैर जमा लेने की कहानी को समझने के लिहाज से भी यह धारावाहिक बहुत महत्वपूर्ण है.
सौ साल से ज्य़ादा पहले की पृष्ठभूमि से शुरू हुए इस धारावाहिक में संयुक्त परिवार के ताने-बाने को अद्भुत ढंग से दिखाया गया है जहां माता-पिता की इच्छा दैवीय निर्देश हैं, जहां भाई और भाई के बीच लड़ाई-झगड़े के बावजूद जान हथेली पर रखकर सुरक्षा करने का भाव है और जहां कारोबारी परिवार का पुश्तैनी मुंशी पिता या चाचा के समान आदरणीय है!
लाला गेंदामल का मुंशी खजांचंद (जो अपने परिचय में मुंशी खजांचंद वल्द दीवानचंद बताना नहीं भूलता!) आजकल के एमबीए टाइप सीईओ या सीओओ नहीं है, बल्कि वह परिवार का हिस्सा है जो हर सुख-दुख में साथ है, निष्ठावान है और बच्चों के लिए अभिभावक के समान है.
यह धारावाहिक खासकर उनलोगों के लिए बहुत उपयोगी है जो पत्रकारिता, इतिहास या प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं और बीसवीं सदी की शुरुआत, आज़ादी, देश का विभाजन और उसके बाद की स्थितियों को जानना चाहते हैं.
आज़ादी के बाद आदर्श और यथार्थ का टकराव, मूल्यों का क्षरण, पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान औद्योगिक विस्तार और कारोबारी वर्ग की सत्ता से सांठ-गांठ और राजनीति में पूंजी का प्रवेश बेहतरीन ढंग से इस धारावाहिक में दर्शाया गया है.
ये साहस की बात कही जाएगी कि यह धारावाहिक 1986 में दूरदर्शन पर पहली बार प्रसारित हुआ जब केंद्र में कांग्रेस का शासन था और इसमें फिर भी नेहरू युग की पार्टी (जाहिर है, कांग्रेस ही!) में पूंजी, भ्रष्टाचार और गुटबंदी के बारे में इशारा किया गया!
इतिहासकार रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि भारत का आधुनिक इतिहास आमतौर पर सन् 1947 में स्वतंत्रता मिलने या हद से हद गांधी की हत्या तक ख़त्म हो जाता है. उसके बाद देश में क्या-क्या हुआ उसके बारे में हाल तक बहुत पुस्तकें नहीं लिखी गई. देश के सामाजिक-आर्थिक जीवन में झांकने का बड़ा स्रोत फिल्में ही बनी रही जिससे उस दौर की स्थितियों का थोड़ा-बहुत अंदाज लगता था.
उस मायने में ‘बुनियाद’ धारावाहिक को देखें तो यह देश के आधुनिक इतिहास की एक बड़ी तस्वीर पेश करता है. ख़ासकर 1910 के दशक से लेकर 1970 के दशक की शुरुआत तक. भले ही यह कहानी उस दौर के मुख्य नायकों के मार्फत नहीं कही गई है, लेकिन उस दौर का अंदाज तो इसमें लगता ही है.
देश में टेलीफोन सेट कैसे होते थे और कैसे कॉर्डलेस होता गया, टीवी देखने का क्या जुनून था और चित्रहार देखने के लिए बच्चे कैसे मचलते थे, यह भी इस धारावाहिक के आखिरी हिस्से में बखूबी दर्शाया गया है.
अगर किसी को ये देखना हो कि मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों में 1910 या 1920 के जमाने में लाला समरकांत और राय साहब कैसे होते थे और समाज और देश पर बलिदान करनेवाले युवा कैसे होते थे, फिटन, मोटरगाड़ी, हवेली और लोगों की वेषभूषा इत्यादि कैसी होती थी तो लाहौरी अंदाज में यह धारावाहिक आपको बखूबी बता देगा.
हां, इसमें गांवों का जिक्र नहीं है. यह विशुद्ध शहरी पृष्ठभूमि पर आधारित धारावाहिक है.
साथ ही, इसका झुकाव गांधीवाद की तरफ होता जाता है. क्रांतिकारी आन्दोलनों का जिक्र तो है लेकिन सायास या अनायास भगत सिंह या चंद्रशेखर आज़ाद से बचा गया है. आरएसएस की स्थापना यों तो सन् 1925 में हुई, लेकिन हिंदू महासभा या गांधी की हत्या के वक्त भी नाथुराम गोडसे के बहाने नाम लेने से बचा गया है. मुस्लिम लीग या कांग्रेस का भी नाम लेकर बहुत जिक्र नहीं है. दरअसल, यह कहानी उस दौर के मुख्य नायकों की कहानी नहीं है-बल्कि उऩ नायकों के असंख्य सिपाहियों की कहानी है जो इस देश की आम जनता थी.
अगर किसी ने ‘मैला आंचल’ या ‘राग दरबारी’ पढ़ा है तो उसे बुनियाद धारावाहिक बखूबी समझ में आएगा कि कैसे आजादी के बाद आदर्श और यथार्थ में टकराव शुरू हुआ था और एक मोहभंग की स्थिति बनने लगी थी.
शोले वाले रमेश सिप्पी को बुनियाद की वजह से भी याद किया जाना चाहिए. आलोकनाथ, गिरिजा शंकर (महाभारत वाले धृतराष्ट्र), सुधीर पांडे, किरण जुनेजा (महाभारत की गंगा), विजयेंद्र घाटगे, राजेश पुरी, सोनी राजदान, दिलीप ताहिल, मजहर खान, विनोद नागपाल, कंवलजीत सिंह, अभिवन चतुर्वेदी और नीना गुप्ता का अभिनय शानदार है. ख़ासकर जिन लोगों को आलोकनाथ बड़े पर्दे पर सिर्फ ‘संस्कारी पिताजी’ लगते हैं, उन्हें भी ये धारावाहिक देखना चाहिए. खासकर मजहर खान (सीरियल में रौशन लाल), राजेश पुरी (मुंशीजी) और विनोद नागपाल (श्यामलाल) का अभिनय देखने लायक है.
कुल मिलाकर कहें तो ‘बुनियाद’ आधुनिक भारत के इतिहास के एक अहम कालखंड का दस्तावेज जैसा है.
(सुशांत झा पेंगुइन-हिंद पॉकेट बुक्स के कमिशनिंग एडिटर हैं)
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