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पशुपति पारस, LJP साथ... फिर भी बीजेपी को क्यों है चिराग पासवान की जरूरत?

बिहार में बीजेपी की नजर लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के अध्यक्ष चिराग पासवान पर है. चिराग के पास न तो पिता की बनाई पार्टी रही और ना ही उसका बंगला निशान. अपनी पार्टी में वही एकमात्र सांसद भी हैं, फिर भी बीजेपी को बिहार में चिराग की जरूरत क्यों है?

चिराग पासवान (फाइल फोटो) चिराग पासवान (फाइल फोटो)
बिकेश तिवारी
  • नई दिल्ली,
  • 11 जुलाई 2023,
  • अपडेटेड 9:24 AM IST

देश में अगले साल लोकसभा चुनाव होने हैं. लोकसभा चुनाव से पहले राजनीतिक दल गठबंधन की गांठें दूर करने के साथ ही संगठन को चुस्त-दुरुस्त करने की कवायद में जुटे हैं. विपक्षी दलों को एकजुट करने की कवायद चल रही है तो वहीं सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) भी अपने नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का कुनबा बढ़ाने में जुटी है.

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महाराष्ट्र में अजित पवार को साथ लाने के बाद बीजेपी की नजर अब अपने पुराने सहयोगियों को फिर से साथ लाने पर है. 18 जुलाई को नई दिल्ली में एनडीए की बैठक होनी है और इससे पहले बिहार में सियासी हलचल बढ़ गई है. बिहार की राजधानी पटना में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के अध्यक्ष चिराग पासवान से मुलाकात की है.

केंद्रीय मंत्री और बीजेपी के वरिष्ठ नेता नित्यानंद राय पटना में उस समय मिलने पहुंचे, जब एलजेपीआर के नेताओं की बैठक होनी थी. चिराग ने अपनी पार्टी के नेताओं के साथ बैठक के बाद कहा कि बीजेपी के साथ गठबंधन को लेकर लंबे समय से बात चल रही है. अभी एक-दो दौर की बातचीत और होनी है. उन्होंने ये भी कहा कि पार्टी के नेताओं ने गठबंधन को लेकर कोई भी फैसला लेने के लिए उनको अधिकृत कर दिया है.

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चिराग पासवान से मिले नित्यानंद राय

बिहार में तेजी से बदल रहे समीकरण

चिराग के इस बयान के बाद यह माना जा रहा है कि बीजेपी और और एलजेपीआर के बीच गठबंधन को लेकर बातचीत काफी आगे तक जा चुकी है. चिराग गठबंधन की बात कह रहे हैं. वहीं, कुछ दिनों पहले तक नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली महागठबंधन में शामिल रही हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के प्रमुख जीतनराम मांझी भी 2024 का चुनाव एनडीए के साथ लड़ने की बात कह चुके हैं. नीतीश कुमार की जेडीयू से नाता तोड़कर राष्ट्रीय लोक जनता दल (आरएलजेडी) बनाने वाले उपेंद्र कुशवाहा भी फिर से एनडीए में वापसी के संकेत दे चुके हैं. चिराग, मांझी और उपेंद्र कुशवाहा, तीनों ही बीजेपी के साथ एनडीए में कभी शामिल रहे हैं.

चिराग बीजेपी के लिए क्यों जरूरी?

ऐसे समय में जब लोकसभा चुनाव में एक साल से भी कम समय बचा है. बीजेपी को बिहार में अचानक पुराने सहयोगी क्यों याद आने लगे? इसकी वजह है सूबे के बदले समीकरण. पिछले लोकसभा चुनाव यानी 2019 से अब तक काफी कुछ बदल चुका है. 2019 में एनडीए का हिस्सा रहे नीतीश कुमार अब विपक्षी खेमे में खड़े हैं. नीतीश देशभर की गैर एनडीए पार्टियों को बीजेपी के विरोध में एकजुट करने की मुहिम भी छेड़े हुए हैं.

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बिहार में नीतीश की जेडीयू और लालू यादव की आरजेडी का कांग्रेस के साथ गठबंधन है. ऐसे में बीजेपी को जातीय संतुलन साधने के लिए भी छोटे-छोटे दलों के साथ की जरूरत है. चिराग के एनडीए से अलग होने के बाद उनको उसी पार्टी से निकाल दिया गया, जिसे उनके पिता रामविलास पासवान ने बनाया था. चिराग को लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रखने वाले चाचा पशुपति पारस ने ही उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया और पार्टी के नाम-निशान पर कब्जा कर लिया.

चिराग को मजबूर होकर लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) नाम से नई पार्टी बनानी पड़ी. पशुपति एलजेपी कोटे से केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं. फिर भी बीजेपी को चिराग की जरूरत क्यों पड़ गई? इस पर राजनीतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी ने कहा कि पशुपति ने रामविलास पासवान की बनाई पार्टी पर तो कब्जा कर लिया लेकिन वे पार्टी के कोर वोटर पासवान को अपने साथ जोड़ने में विफल रहे हैं. बीजेपी भी इस बात को समझ गई है कि पार्टी भले ही फिसल गई हो लेकिन पासवान वोटर अब भी चिराग में ही रामविलास की विरासत देख रहा है.  

चिराग के सहारे दलित वोट पर नजर

बिहार में कुल मिलाकर करीब 16 फीसदी दलित और महादलित मतदाता हैं. इनमें पासवान समुदाय की हिस्सेदारी छह फीसदी है, जो दलित वर्ग में आते हैं. बाकी 10 फीसदी मतदाता महादलित कैटेगरी में आते हैं. महादलित में भी छह फीसदी मुसहर हैं. बीजेपी की नजर चिराग के जरिए इन छह फीसदी पासवान मतदाताओं पर है. जीतनराम मांझी के जरिए बीजेपी की कोशिश मुसहर वोट भी अपने पाले में करने की है.

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पशुपति पारस (फाइल फोटो)

40 में से 13 पर हार-जीत तय करते हैं दलित-महादलित

बिहार में कुल 40 लोकसभा सीटें हैं. इनमें से 13 सीटें ऐसी हैं जहां दलित-महादलित मतदाताओं की तादाद तीन लाख से भी अधिक बताई जाती है. इन सीटों पर यही मतदाता जीत और हार तय करते हैं. बिहार के गया लोकसभा क्षेत्र में सबसे अधिक दलित मतदाता हैं. औरंगाबाद, नवादा, नालंदा, काराकट, खगड़िया, सासाराम, उजियारपुर, समस्तीपुर में भी जीत और हार का फैसला दलित और महादलित मतदाता तय करते हैं. बक्सर, हाजीपुर, जहानाबाद और आरा लोकसभा क्षेत्र में भी दलित-महादलित मतदाता निर्णायक भूमिका निभाते हैं.

बीजेपी के साथ जाकर चिराग को क्या मिलेगा?

चिराग पासवान को बीजेपी के साथ जाकर क्या मिलेगा? इसे लेकर वरिष्ठ पत्रकार डॉक्टर श्रीराम त्रिपाठी ने कहा कि एलजेपी के अध्यक्ष पद से पशुपति पारस ने चिराग को हटाया. संसदीय दल का नेता बने और पार्टी का नाम-निशान भी चिराग से छीन लिया. पशुपति पारस के केंद्रीय मंत्री बनने के बाद चिराग समर्थकों ने इस पूरे सियासी खेल के पीछे बीजेपी का हाथ बताया. अब, चिराग अगर उसी बीजेपी के साथ जाने को तैयार हैं तो उसकी कोई तो वजह होगी.

उन्होंने कहा कि विधानसभा चुनाव की हार, पार्टी पर पशुपति पारस के कब्जे से चिराग के समर्थकों का मनोबल कमजोर हुआ है. चिराग को एनडीए के साथ पार्टी को फिर से खड़ा करने की उम्मीद नजर आ रही होगी. दूसरा यह कि वे बिहार की जनता को भी संदेश देने में सफल हो जाएंगे कि पशुपति पारस और एलजेपी के साथ होने के बावजूद बिहार में एनडीए को आखिरकार उनकी ही जरूरत पड़ी. इससे चिराग का कद भी निश्चित रूप से मजबूत होगा.

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कैसे टूटी थी लोक जनशक्ति पार्टी?

चिराग ने 2020 के बिहार चुनाव से पहले नीतीश कुमार सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. नीतीश कुमार की पार्टी भी तब एनडीए में ही थी. चिराग के नेतृत्व वाली एलजेपी ने बिहार चुनाव में बीजेपी के लिए मैदान छोड़ दिया था, लेकिन पार्टी ने उन सीटों पर उम्मीदवार उतार दिए थे, जहां से जेडीयू चुनाव लड़ रही थी. एलजेपी का खाता भी नहीं खुल सका लेकिन पार्टी ने कई सीटों पर जेडीयू की हार की स्क्रिप्ट लिख दी.

नीतीश की पार्टी सीटों के लिहाज से राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) और बीजेपी के बाद तीसरे नंबर पर रही थी. जेडीयू की इस स्थिति के लिए नीतीश ने सीधे तौर पर एलजेपी को जिम्मेदार ठहराया था. नीतीश की जिद से ही एलजेपी की एनडीए से छुट्टी हुई थी और पार्टी गठबंधन में तब लौट सकी जब चिराग से नाम-निशान सबकुछ छिन गया.

पशुपति पारस का क्या होगा?

चिराग पासवान गठबंधन की बात पर बीजेपी के सामने कुछ शर्तें रखते रहे हैं. चिराग ने पिछले साल ही कहा था कि वे एनडीए में तभी लौटेंगे जब पशुपति पारस केंद्रीय मंत्रिमंडल से और उनकी पार्टी एनडीए से बाहर होगी. चिराग ने हालांकि अभी फिलहाल इसे लेकर कुछ नहीं कहा लेकिन कहा जा रहा है कि पशुपति के साथ एक गठबंधन में उनका रहना मुश्किल होगा. ऐसे में देखने वाली बात होगी कि एनडीए में पशुपति पारस और उनकी पार्टी का भविष्य क्या रहता है. उन्हें एनडीए से बाहर आना पड़ता है या बीजेपी चाचा-भतीजा का झगड़ा खत्म करा उन्हें साथ साधने में सफल होती है?

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