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बेंगलुरु में विपक्ष की बैठक पर प्रशांत किशोर का बयान, बोले- जनता के बीच जाएं तब मिलेगा फायदा

प्रशांत किशोर ने कहा कि 2019 में भी सारे दल एक साथ हुए थे, बावजूद इसके उसका कोई असर नहीं दिखा था. जिस भूमिका में आज नीतीश कुमार दिखने का प्रयास कर रहे हैं, करीब करीब इसी भूमिका में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू थे, देश की बात तो छोड़ दीजिए, अपने आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू बुरी तरह हार गए थे.

प्रशांत किशोर- फाइल फोटो प्रशांत किशोर- फाइल फोटो
रोहित कुमार सिंह
  • समस्तीपुर,
  • 18 जुलाई 2023,
  • अपडेटेड 1:36 AM IST

पटना के बाद सोमवार को बेंगलुरू में विपक्षी एकता की बैठक शुरू हो चुकी है. इसको लेकर पक्ष और विपक्षी नेताओं की बयानबाजी भी खूब हो रही है. इसे लेकर जन सुराज के सूत्रधार प्रशांत किशोर ने बड़ा बयान दिया है. प्रशांत किशोर ने कहा कि विपक्षी एकता सिर्फ दलों के नेताओं के एकसाथ बैठ जाने से उसका बहुत बड़ा प्रभाव जन मानस पर नहीं पड़ेगा. प्रभाव तब पड़ेगा, जब विपक्षी एकता नेताओं और दलों के साथ मन का भी मेल हो. नैरेटिव भी हो, जनता का कोई मुद्दा हो, ग्राउंड पर काम करने वाले वर्कर भी हों और उस समर्थन को जनता की भावना में, वोट में बदला भी जाए. 

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'इमरजेंसी का पड़ा इंदिरा गांधी पर असर'
उन्होंने कहा कि कई लोगों को ऐसा लगता है कि 1977 में सारे विपक्षी दल एक साथ आकर उन्होंने इंदिरा गांधी को हरा दिया था, ये उन लोगों की सबसे बड़ी बेवकूफी है. 1977 में विपक्षी दलों के एक साथ आने से इंदिरा गांधी नहीं हारी, उस समय इमरजेंसी एक बड़ा मुद्दा था, जेपी का आंदोलन भी था. 

अगर, इमरजेंसी लागू नहीं की जाती, जेपी मूवमेंट नहीं होता तो सारे दलों के एक साथ आने से भी इंदिरा गांधी नहीं हारतीं. साल 1989 में भी हमने देखा कि बोफोर्स मुद्दे को लेकर राजीव गांधी की सरकार को हटाकर बीपी सिंह सत्ता में आए थे. दल तो बाद में एक हुए, पहले बोफोर्स मुद्दा बना. बोफोर्स के नाम पर देश में आंदोलन हुआ, लोगों की जनभावनाएं उनसे जुड़ी. देश के स्तर पर राजनीति में क्या हो रहा है. विपक्ष वाले क्या कर रहे हैं, भाजपा वाले क्या कर रहे हैं, ये मेरे सरोकार का विषय नहीं है. सामान्य नागरिक के जैसे आप सुन रहे हैं, वैसे ही मैं भी सुन रहा हूं.

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'नीतीश कोलकाता में बैठ जाएं तो उससे क्या असर पड़ेगा'
प्रशांत किशोर ने दलसिंहसराय में पत्रकारों से बातचीत में आगे कहा कि मान लीजिए, नीतीश कुमार कोलकाता में बैठ जाएं, तो उससे वहां रहने वाले लोगों और उनकी जनभावना पर भला क्या असर पड़ेगा. अगर, ममता बनर्जी आज समस्तीपुर में आ जाएं, तो समस्तीपुर की जनता को उससे क्या मतलब है कि ममता बनर्जी आकर बोले या स्टालिन. विपक्षी एकता लोकतंत्र की एक प्रक्रिया है, लोकतंत्र मजबूत होना चाहिए. लेकिन, मेरी समझ से इसमें चुनावी सफलता तभी मिलेगी जब इन दलों के पास प्रोग्राम होगा, जिसको लेकर वो जनता के बीच जा सकते हैं, जनता का समर्थन मिले, तभी उसका परिणाम चुनावी नतीजों में दिखेगा. 

'आज नीतीश जिस भूमिका में हैं, 2019 में उसी भूमिका में थे चंद्रबाबू नायडू, बुरी तरह हारे थे'
प्रशांत किशोर ने कहा कि 2019 में भी सारे दल एक साथ हुए थे, बावजूद इसके उसका कोई असर नहीं दिखा था. जिस भूमिका में आज नीतीश कुमार दिखने का प्रयास कर रहे हैं, करीब करीब इसी भूमिका में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू थे, देश की बात तो छोड़ दीजिए, अपने आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू बुरी तरह हार गए थे. तो नीतीश कुमार हो या कोई भी, जो विपक्ष को एक साथ लाने की कोशिश कर रहा है जबतक जनता के मुद्दों पर सहमति नहीं होगी तबतक मुझे नहीं लगता कि इन प्रयासों का कोई असर होगा. हां, ये जरूर है कि इतने सारे दल एक साथ आएंगे, तो मीडिया के लिए चर्चा का विषय होगा, समाज का एक वर्ग जो सामाजिक-राजनीतिक तौर पर जागरूक है उनके लिए उत्सुकता का विषय हो सकता है.
 

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