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कड़कनाथ मुर्गे पर छत्तीसगढ़ और MP के बीच दिलचस्प लड़ाई

मध्यप्रदेश का दावा है कि GI टैग पर उसका अधिकार है, क्योंकि इस प्रजाति का मुख्य स्रोत उनके राज्य का झाबुआ जिला है. छत्तीसगढ़ का दावा है कि यह ब्रीड झाबुआ से ज्यादा दंतेवाड़ा में पाई जाती है. यहां उसका सरंक्षण और प्राकृतिक प्रजनन सदियों से होता आया है. छत्तीसगढ़ के इस दावे पर फिक्की ने भी मुहर लगाई है.

कड़कनाथ मुर्गा कड़कनाथ मुर्गा
अंकुर कुमार/सुनील नामदेव
  • रायपुर ,
  • 07 फरवरी 2018,
  • अपडेटेड 11:46 AM IST

पश्चि‍म बंगाल और ओडिशा के बीच रसगुल्ले की लड़ाई के बाद एक दिलचस्प लड़ाई अब छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के बीच शुरू हो गई हैं. आमतौर पर ग्रामीण इलाकों में मुर्गा लड़ाई के कई नजारे आपने देखे होंगे. इन दिनों कड़कनाथ नामक मुर्गे की प्रजाति को लेकर दो राज्यो के बीच जंग छिड़ी हुई है. इस प्रजाति के मुर्गे की GI टैग को लेकर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों ही राज्य अपना अपना दावा कर रहे हैं.

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मध्यप्रदेश का दावा है कि GI टैग पर उसका अधिकार है, क्योंकि इस प्रजाति का मुख्य स्रोत उनके राज्य का झाबुआ जिला है. छत्तीसगढ़ का दावा है कि यह ब्रीड झाबुआ से ज्यादा दंतेवाड़ा में पाई जाती है. यहां उसका सरंक्षण और प्राकृतिक प्रजनन सदियों से होता आया है. छत्तीसगढ़ के इस दावे पर फिक्की ने भी मुहर लगाई है.

GI टैग को लेकर दंतेवाड़ा के कलेक्टर सौरभ कुमार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि उन्हें इस बात की आपत्ति नहीं है कि GI टैग मध्यप्रदेश के झाबुआ को ना मिले. इस मामले में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा को नजर अंदाज नहीं किया जाना चाहिए. उनके मुताबिक इस अकेले दंतेवाड़ा जिले में सालाना डेढ़ लाख के लगभग कड़कनाथ प्रजाति के मुर्गे का उत्पादन होता है.

कलेक्टर सौरभ कुमार ने कहा कि आने वाले समय जल्द ही उत्पादन का यह आंकड़ा 4 लाख के लगभग पहुंच जाएगा. उनके मुताबिक इस प्रजाति के मुर्गे के उत्पादन को बतौर खेती के रूप में प्रोत्साहित किया जा रहा है. राज्य के एग्रीकल्चर मिनिस्टर बृजमोहन अग्रवाल के मुताबिक आदिवासी इलाकों के सैकड़ो परिवारों को आर्थिक सहायता देकर कड़कनाथ मुर्गा पालन व्यवसाय से जोड़ा गया है. यह स्वरोजगार का अच्छा साधन भी साबित हुआ है.

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आदिवासी इलाकों में पाया जाता है कड़कनाथ

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा से कई शहरों में कड़कनाथ मुर्गे की सप्लाई होती है. इस मुर्गे का मांस चार सौ से पांच सौ रुपये प्रति किलो बिकता है. इससे होने वाली आमदनी के मद्देनजर राज्य के दूसरे इलाकों में भी लोगो ने इसकी ब्रीडिंग शुरू की है. आमतौर पर ब्रायलर, कॉकरेल और अन्य चिकन जहां डेढ़ सौ से दो सौ रुपये प्रति किलो तक बिकता है. वहीं कड़कनाथ से होने वाली आमदनी काफी ज्यादा होती है. GI टैग को लेकर दोनों ही राज्यो के दावे अपनी अपनी जगह है. कड़कनाथ प्रजाति का मुर्गा सदियों से आदिवासी बहुल्य राज्यों में ही उपलब्ध और संरक्षित रहा है. वास्तव में यह एक जंगली मुर्गा है,  जो पूरी तरह से प्राकृतिक वातावरण में रहने से सामान्य मुर्गो की तुलना में भारी भरकम और आक्रामक होता है. आमतौर पर यह जेट ब्लैक और काले में हल्का लाल रंग के पंखों वाला दो कलर में मिलता है.

काले खून और स्वादिष्ट मांस के लिए जाना जाता है कड़कनाथ

इसका खून का रंग भी सामन्यतः काले रंग का होता है. जबकि आम मुर्गे के खून का रंग लाल पाया जाता है. इसका मांश काफी कड़ा होता है। सामान्य मुर्गो के पकने की तुलना में कड़कनाथ का मांश दुगना समय लेता है। इसका स्वाद भी लाजवाब होता है. लोगों के बीच प्रचलन है कि कड़कनाथ के मांस का सेवन करने से सैक्सुवल पवार बढ़ता है और यह शक्तिवर्धक दवाइयों से ज्यादा कारगर होता है. इसके चलते कड़कनाथ का जमकर शिकार हुआ.

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मध्यप्रदेश के झाबुआ में तो इसकी प्रजाति तक लुप्त होने लगी थी. नतीजतन सरकार ने इसके शिकार और खरीदी बिक्री पर पाबन्दी तक लगाई. चोरी छिपे इस मुर्गे की तस्करी तक हुई. काफी महंगे दाम पर यह मुर्गा के महानगरों की सैर करता रहा. अब जाकर इस मुर्गे की स्थिति सामान्य हो पाई है. हालांकि झाबुआ जिले से बाहर इसके परिवहन पर पाबंदी अभी भी लागू है. कड़कनाथ समेत दूसरे मुर्गे मुर्गियों की प्रजाति पर विशेष पड़ताल करने वाले प्रभात मेघावाले की दलील है कि कड़कनाथ पर GI टैग सयुंक्त रूप से छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश दोनों को ही दिया जाना चाहिए, क्योंकि यह प्रजाति प्राकृतिक रूप से आदिवासी बाहुल्य बस्तर और झाबुआ में सामन्यतः पाई जाती है.

यह है जीआई टैग

जीआई टैग (भौगोलिक संकेतक) मुख्य रूप से कुछ विशिष्ट उत्पादों (कृषि, प्राक्रतिक, हस्तशिल्प और औधोगिक सामान) को दिया जाता है, जो एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में 10 वर्ष या उससे अधिक समय से उत्पन्न या निर्मित हो रहा है. इसका मुख्य उद्देश्य उन उत्पादों को संरक्षण प्रदान करना है.

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