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राजस्थान का भटकी समाज मांग रहा आशियाना, जंगल में गुजर गईं कई पीढ़ियां

महाराष्ट्र के गोंदिया के कारंजा में चित्तौढ़गढ़ियां भटकी समाज के लोगों के इस डेरे को देखकर यहां से गुजरने वालों की निगाहें अचानक ठहर जाती हैं. करीब के जंगलों से जड़ी बूटी इकट्ठा कर उसकी दवाई बनाना और उसे मरीजों तक पहुंचा कर ये अपना गुजारा करते हैं.

भटकी समाज (फोटो-सुनील) भटकी समाज (फोटो-सुनील)
सुनील नामदेव/वरुण शैलेश
  • रायपुर,
  • 27 नवंबर 2018,
  • अपडेटेड 11:49 PM IST

राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के मूल निवासी चित्तौड़गढ़ियां भटकी समाज के लोगों ने इन दिनों छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र की सरहद पर स्थित गोंदिया में डेरा डाल दिया है. ये लोग अपने लिए आशियाने की मांग कर रहे हैं.

महाराष्ट्र के गोंदिया के कारंजा में चित्तौढ़गढ़ियां भटकी समाज के लोगों के इस डेरे को देखकर यहां से गुजरने वालों की निगाहें अचानक ठहर जाती हैं. करीब के जंगलों से जड़ी बूटी इकट्ठा कर उसकी दवाई बनाना और उसे मरीजों तक पहुंचा कर ये अपना गुजारा करते हैं. इनके पास ना तो कोई अपना घर है, न जमीन. इनके पास राशन कार्ड और आधार कार्ड जैसे कानूनी दस्तावेज भी नहीं हैं.

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आज यहां तो कल वहां. इस तरह से इनका जीवन-यापन होता है. राजस्थान समेत कुछ राज्यों में विधानसभा चुनाव और उसके बाद आम चुनाव की आहट से राजस्थान के चित्तौढ़गढ़ियां समाज के लोग अपने लिए भी एक अदद आशियाने की मांग कर रहे हैं. उनकी सरकार से मांग है कि उन्हें भी देश की मुख्यधारा से जोड़ा जाए. उन्हें भी आम लोगों की तरह रोटी, कपड़ा और मकान जैसी सुविधाएं मुहैया कराई जाएं.

भटकी समाज के इस डेरे में कोई भी पढ़ा लिखा नहीं है, ना पुरुष ना महिलाएं और ना ही बच्चे. दो वक्त की रोजी-रोटी के जुगाड़ में इनकी जिंदगी इसी तरह गुजर जाती है. कभी इस शहर में तो कभी दूसरे शहर में. कभी इस जंगल में तो कभी उस जंगल में. साल दर साल इनकी जिंदगी यूं ही चलती रहती है. इसके चलते ना तो बच्चे स्कूल जा पाते हैं और न ही महिलाएं आजीविका का कोई दूसरा रास्ता ढूंढ पाती हैं.

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इस डेरे के प्रमुख राजकुमार सिंह के मुताबिक वे लोग मूल रूप से राजस्थान के आदिवासी हैं. उनकी कई पीढ़ियां जंगलों में निवास करते गुजर गईं. लेकिन जीवन यापन के लिए उन्हें जंगलों से आम बस्तियों में लौटना पड़ा. लेकिन न तो उनके पास राशन कार्ड है और न ही आधार कार्ड. किसी भी तरह का कानूनी दस्तावेज नहीं होने से उन्हें किसी भी तरह की सरकारी मदद नहीं मिल पाई.

रतन सिंह का कहना है कि उनके माता-पिता भी नहीं पढ़ पाए, वह भी नहीं पढ़ पाए और न ही उनके बच्चे पढ़ाई कर पाए. उनकी आय इतनी नहीं है कि वो अपने बच्चों को स्कूल भेज पाएं. डेरे की महिला सदस्य बिंद्रा और जुमली के मुताबिक वे बेहद गरीबी में अपना जीवन यापन करती हैं. गरीबी की वजह से उनके बच्चे पढ़ नहीं पाते और पूरी जिंदगी जंगलों से जड़ी बूटी इकठ्ठा करने में ही गुजर जाती है.

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