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दिल्ली MCD चुनाव: क्या AAP तोड़ पाएगी BJP का 15 साल पुराना चक्रव्यूह? जानें सभी दलों की क्या है स्थिति

दिल्ली नगर निगम चुनाव में मुकाबला इस बार बेहद रोचक है. पहले जहां चुनाव भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होता था तो वहीं आम आदमी पार्टी के दिल्ली की राजनीति में कदम रखने के बाद अब मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है. AAP के चुनाव लड़ने से कांग्रेस, बसपा और अन्य को नुकसान हुआ है.

दिल्ली एमसीडी (File Photo) दिल्ली एमसीडी (File Photo)
कुमार कुणाल/आशीष कुमार गुप्ता
  • नई दिल्ली,
  • 09 नवंबर 2022,
  • अपडेटेड 12:11 PM IST

दिल्ली नगर निगम (MCD) में भारतीय जनता पार्टी (BJP) पिछले 15 सालों से शासन कर रही है. पिछले एमसीडी चुनाव में (2017) भाजपा ने कुल वार्डों में से दो-तिहाई पर जीत हासिल की थी. 2017 में BJP ने न सिर्फ जीत की हैट्रिक बनाई, बल्कि 2017 में (181 सीट) 2012 (138 सीट) से भी ज्यादा अच्छा प्रदर्शन किया.

आम आदमी पार्टी ने पहली बार 2017 के एमसीडी चुनाव में अपनी किस्मत आजमाई थी. पार्टी 49 वार्डों में जीतने में सफल भी रही थी. आप चुनाव तो नहीं जीत पाई, लेकिन उसने कांग्रेस की विपक्ष की भूमिका जरूर छीन ली. तब कांग्रेस ने 31 वार्ड जीते थे और AAP 49 वार्ड में जीतने में कामयाब रही थी.
 
पिछले चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो BJP के साथ-साथ AAP का भी इस चुनाव में काफी कुछ दांव पर लगा हुआ है. अब देखना यह है कि क्या AAP दिल्ली के वोटरों को रिझा पाएगी या पार्टी का दबदबा सिर्फ विधानसभा चुनाव तक ही सीमित है?

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ये है नंबर गेम

2017 में एक तरफ AAP और BJP दोनों ने क्रमशः 49 और 43 वार्डों में बढ़त हासिल की तो वहीं कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और दूसरी पार्टियों ने क्रमशः 46, 12 और 34 वार्ड गंवा दिए. इस दौरान कांग्रेस ने अपने 60 फीसदी वार्ड गंवाए.

AAP के आने से BJP को मिला फायदा

यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि भाजपा ने वार्डों के मामले में बड़े पैमाने पर बढ़त तो हासिल की, लेकिन पार्टी का वोट शेयर 36 फीसदी पर स्थिर रहा. प्रतिस्पर्धा के बदलते स्वरूप का लाभ सीधे भाजपा को मिला. पहले एमसीडी में बीजेपी और कांग्रेस के बीच बाइपोलर मुकाबला हुआ करता था, लेकिन आप के आने के बाद यह त्रिकोणीय संघर्ष बन गया. पिछले बार AAP ने सीट और वोट शेयर दोनों के मामले में कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया था. बसपा, जो एक महत्वपूर्ण वोट शेयर के साथ दिल्ली में तीसरी पार्टी हुआ करती थी, तब से लगभग गायब ही हो गई है.

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 नहीं बढ़ा पार्टी का वोट प्रतिशत

अगर हम 2017 के एमसीडी चुनावों में पार्टियों के क्षेत्रवार प्रदर्शन को देखें, तो पूर्वी दिल्ली नगर निगम (64 वार्ड) में भाजपा का वोट शेयर सबसे ज्यादा 39 फीसदी था. इस बीच, उत्तरी दिल्ली नगर निगम और दक्षिणी दिल्ली नगर निगम (दोनों में 104 वार्ड ) में, भाजपा ने 36 प्रतिशत मतों के साथ समान प्रदर्शन किया. 2019 के लोकसभा चुनावों को छोड़कर, AAP वोट शेयर और सीट शेयर के मामले में लगातार दो बार शामिल रही. दिल्ली में चुनावी मुकाबला पिछले कुछ सालों में आप और भाजपा के बीच तेजी से आमने-सामने का हो गया. 

लोकसभा चुनाव में BJP का दबदबा

AAP ने जहां विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की. वहीं, दिल्ली में लोकसभा चुनाव में बीजेपी का दबदबा रहा. विधानसभा और लोकसभा में दोनों दलों का समर्थन आधार 50 प्रतिशत का आंकड़ा पार कर गया और अलग-अलग चुनावों में एक-दूसरे के पक्ष में आ गया. एमसीडी से बीजेपी को हटाने के लिए आप या कांग्रेस को एक-दूसरे के कम से कम 10 फीसदी वोट काटने होंगे.

...और त्रिकोणीय बन गए चुनाव

डेटा इस अर्थ में बहुत स्पष्ट है कि अगर हम 2012 के साथ 2017 के चुनावों की तुलना करते हैं तो AAP एकमात्र नई प्रमुख पार्टी थी. नई पार्टी होने के बावजूद, इसे 26 प्रतिशत से अधिक वोट मिले और चुनाव त्रिकोणीय बन गए.

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आम आदमी पार्टी में शिफ्ट हुए वोट

2007 और 2012 के एमसीडी चुनावों में बसपा एक मजबूत खिलाड़ी थी. पार्टी को दिल्ली में दस प्रतिशत से अधिक वोट मिले. लेकिन आप के प्रवेश ने बसपा को हाशिये पर धकेल दिया, क्योंकि एक प्रमुख दलित वोट शेयर नई पार्टी के पक्ष में चला गया. AAP को न केवल बसपा की कीमत पर फायदा हुआ, बल्कि कांग्रेस के लगभग 10 फीसदी और निर्दलीय वोट शेयर का पांच फीसदी हिस्सा भी मिल गया.

BJP को मिलता है वोट बैंक का फायदा

कैडर-आधारित पार्टी होने और संघ समर्थित संगठनों से समर्थन आधार होने के कारण भाजपा का एक समर्पित वोट बैंक है. AAP ने अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में 2015 और 2020 में दो विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की. लेकिन जब भी लोकसभा और नगर निगम चुनाव जैसे अन्य चुनावों की बात आई, तो यह लड़खड़ा गया.

आप ने जीते दो विधानसभा चुनाव

पिछले कुछ एमसीडी चुनावों के वोट शेयर को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि भाजपा ने अपने विरोधियों को पूरी तरह से पटखनी दी है. कैडर-आधारित पार्टी होने और संघ समर्थित संगठनों से समर्थन होने के कारण, इसका एक समर्पित वोट बैंक है. AAP ने अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में 2015 और 2020 में दो विधानसभा चुनाव जीते. लेकिन जब भी लोकसभा और नगर निगम चुनाव जैसे अन्य चुनावों की बात आई तो यह लड़खड़ा गई.

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BJP कर रही सत्ता विरोधी लहर का सामना

2014 और 2019 के संसदीय चुनावों में आम आदमी पार्टी एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हो पाई थी. अभी, क्योंकि केजरीवाल और AAP गुजरात विधानसभा चुनावों में व्यस्त हैं, इसलिए पार्टी दिल्ली के स्थानीय निकाय चुनावों में ज्यादा समय नहीं दे पाएगी. इस बार AAP कुशासन को मुद्दा बनाकर भाजपा के खिलाफ बढ़त हासिल करने की कोशिश करेगी. भाजपा सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रही है, इसलिए अपने 75 प्रतिशत मौजूदा पार्षदों को टिकट न देने की योजना बना रही है.
 
AAP कर रही डबल इंजन सरकार का वादा

आप स्वच्छता को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश करेगी. इसलिए केजरीवाल ने अपने एमसीडी चुनाव अभियान की शुरुआत गाजीपुर लैंडफिल साइट पर जाकर की. इसी तरह, कांग्रेस भी मतदाताओं को भ्रष्टाचार और अन्य संबंधित मुद्दों के बारे में याद दिलाने की योजना बना रही है, जो आप और भाजपा दोनों को टारगेट करेंगे. आप दिल्ली को जीतने की कोशिश कर रही है और दिल्ली के लिए 'डबल इंजन सरकार' का वादा कर रही है, लेकिन सब कुछ उम्मीदवार के चयन पर निर्भर करेगा. वार्ड जैसे छोटे से क्षेत्र में अच्छा उम्मीदवार चुनाव में निर्णायक साबित हो सकता है.

वोटबैंक बरकरार रखने की चुनौती

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AAP के सामने भी अपने वोटबैंक को बरकरार रखने की चुनौतियां हैं. दिलचस्प बात यह है कि एमसीडी चुनाव इस बार गुजरात विधानसभा चुनाव के साथ मेल खा रहे हैं. आप के गुजरात में हिंदुत्व कार्ड खेलने के साथ, यह राष्ट्रीय राजधानी में उनके वोट को प्रभावित कर सकता है. AAP ने पिछले दो दिल्ली विधानसभा चुनावों में मुस्लिम और दलित वोट हासिल किए, जिससे पार्टी को दोनों बार व्यापक बहुमत हासिल करने में मदद मिली.

महंगा पड़ सकता है हिंदुत्व कार्ड

गुजरात में केजरीवाल का हिंदुत्व कार्ड दिल्ली में पार्टी को महंगा पड़ सकता है, क्योंकि राष्ट्रीय राजधानी में मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग आप की राजनीति के डिजाइन से नाखुश है. इसी तरह, लगभग एक महीने पहले, AAP ने सीएम केजरीवाल को किसी भी विवाद से दूर रखने के लिए अपने दलित चेहरे और मंत्री राजेंद्र पाल गौतम को हटा दिया, क्योंकि इससे गुजरात पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता था. लेकिन ऐसा लगता है कि इस कदम से दलित मतदाताओं का एक वर्ग नाराज हैं.

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