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कोरोनाः हजरत निजामुद्दीन की दरगाह पर क्यों नहीं जाते तबलीगी जमात के लोग?

दिल्ली में तबलीगी जमात के मरकज से कोरोना के कई केस सामने आए हैं. इस मरकज से चंद कदम की दूरी पर स्थित निजामुद्दीन औलिया की दरगाह को भी लोग निशाने पर ले रहे हैं जबकि जमात के लोग दरगाह पर जाते ही नहीं हैं. तबलीगी जमात और निजामुद्दीन दरगाह को मानने वाली इस्लाम की दो विपरीत धाराएं हैं. इसीलिए दोनों को एक दूसरे जोड़कर नहीं देखना चाहिए.

निजामुद्दीन औलिया की दरगाह निजामुद्दीन औलिया की दरगाह
कुबूल अहमद
  • नई दिल्ली,
  • 02 अप्रैल 2020,
  • अपडेटेड 9:15 AM IST

  • कोरोना के चलते देश भर में 14 अप्रैल तक लॉकडाउन
  • तबलीगी जमात के अमीर मौलाना साद के खिलाफ FIR

दिल्ली के तबलीगी जमात के मरकज में जैसे ही कोरोना संक्रमण की खबर आई हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह चर्चा में आ गई. इसकी वजह भी थी. दरअसल तबलीगी जमात का मरकज भी निजामुद्दीन इलाके में ही स्थित है. मरकज और दरगाह के बीच कुछ ही कदमों का फासला है. न्यूज चैनलों पर जैसे ही फ्लैश चले दरगाह को सफाई देनी पड़ी कि उनका मरकज से कोई संबंध नहीं है.

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तबलीगी जमात और निजामुद्दीन दरगाह को मानने वाले लोग दो विपरीत धाराएं हैं. इस्लाम से परिचित लोग ये जानते हैं कि तबलीगी जमात के लोग सिर्फ निजामुद्दीन औलिया की ही नहीं बल्कि किसी भी अन्य दरगाह या मजार पर नहीं जाते क्योंकि वे इस विचार के ही खिलाफ होते हैं.

निजामुद्दीन औलिया की दरगाह की देखभाल और सारी जिम्मेदारी चिश्ती परिवार के पास है. यहां कई तरह के संगठन बने हुए हैं और वे सब मिलकर दरगाह की देखभाल करते हैं. वहीं, तबलीगी जमात मरकज के सर्वेसर्वा संस्थापक मौलाना इलियास कांधलवी के परपोते मौलाना साद हैं. निजामुद्दीन औलिया की दरगाह सदियों से मुसलमानों के बीच खासी अहमियत रखती है, पर तबलीगी जमात के लोग वहां नहीं जाते. इतना ही नहीं अजमेर के ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह सहित तमाम औलियाओं की मजारों पर इन्हें जाते नहीं देखा जाता. मजारों पर होने वाली कव्वाली और सजने वाली महफिलों को तबलीगी जमात इस्लाम का खिलाफ बताती है और हराम करार देती है.

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मजारों पर विश्वास बरेलवी और सूफीज्म विचारधारा के लोग करते हैं. वे जियारत करने, चादर चढ़ाने, मन्नत मांगने इन मजारों पर जाते हैं. मुस्लिमों के अलावा हिंदू, सिख सहित बाकी धर्मों के लोग भी दरगाह जाते हैं. मजारों पर जाने वाले मुसलमान निजामुद्दीन औलिया ही नहीं तमाम बुजुर्गों की मजारों पर जाते हैं और उन्हें अल्लाह के करीब मानते हैं. दरगाहों पर जाने को ये लोग रुहानी तस्कीम (आध्यात्मिक सुकून) मानते हैं.

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सुन्नी इस्लाम में चार बड़े संप्रदाय हैं, इमाम अबू हनीफा को मानने वाले हनफी मुस्लिम कहलाते हैं. भारतीय उप-महाद्वीप में 90 फीसदी सुन्नी मुसलमान हनफी मसलक के मानने वाले हैं. तबलीगी जमात और बरेली या सूफीज्म दोनों हनफी मसलक से ही हैं. इनके नमाज, रोजा, हज जैसे तरीके एक हैं, बस मजारों पर जाने और न जाने को लेकर विवाद है. मुसलमानों में तबलीगी जमात के लोग देवबंदी विचाराधारा के करीब हैं.

देवबंदी विचारधारा दरगाहों, मजारों पर जाने को लेकर साफ तौर पर मना तो नहीं करती, लेकिन यह जरूर कहती है कि इससे पूजा पद्धति को बढ़ावा मिलता है. इतना ही नहीं इनका कहना है कि जो मर गया है वो आपकी कोई मदद नहीं कर सकता. ऐसे में उनसे किसी तरह की कोई मन्नत नहीं मांगनी चाहिए. हालांकि, ये कहते हैं कि मजारों पर जाकर सिर्फ फातिहा पढ़िए और मरने वाले को बख्श कर चले आइए. न तो मजारों को चूमें और न ही किसी तरह की चादर वगैराह चढ़ाएं. यही वजह है कि तबलीगी जमात के लोग मरकज से चंद कदमों की दूरी पर स्थित निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर नहीं जाते.

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दूसरी तरफ बरेलवी और सूफीज्म मुस्लिम कहता है कि औलिया मरे नहीं बल्कि दुनिया से परदा हो गए हैं. वो आज भी हमारी बातों को सुनते हैं और अल्लाह तक हमारी सिफारिश करते हैं. हजरत निजामुद्दीन औलिया सहित तमाम मुस्लिम बुजुर्गों के जन्मदिन पर उनकी मजारों पर उर्स लगते हैं और कव्वाली होती है. इसमें हर धर्म के लोग शरीक होते हैं. इसे एक रुहानी महफिल करार दिया जाता है. लेकिन तबलीगी जमात और देवबंदी इस तरह की महफिल और कव्वाली को जायज नहीं मानते इसलिए इससे दूर रहते हैं

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