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एक सपने की मौत... दिल्ली में AAP की हार एक राज्य में सत्ता बदल भर नहीं है!

Politics is Art of Possible...इसे आसान शब्दों में समझें तो इसका मतलब है कि राजनीति में कभी भी कुछ भी संभव है. यही बात चुनावी जीत और हार पर भी लागू होती है. लेकिन कभी-कभी कुछ नतीजे सिर्फ सत्ता का बदलाव भर नहीं होते हैं. वो एक ऐतिहासिक विमर्श का विषय बन जाते हैं. जिन्हें भविष्य में उदाहरणों के रूप में पेश किया जाता है.

अरविंद केजरीवाल. अरविंद केजरीवाल.
आकाश सिंह
  • नई दिल्ली,
  • 09 फरवरी 2025,
  • अपडेटेड 1:34 PM IST

Politics is Art of Possible...इसे आसान शब्दों में समझें तो इसका मतलब है कि राजनीति में कभी भी कुछ भी संभव है. यही बात चुनावी जीत और हार पर भी लागू होती है. लेकिन कभी-कभी कुछ नतीजे सिर्फ सत्ता का बदलाव भर नहीं होते हैं. वो एक ऐतिहासिक विमर्श का विषय बन जाते हैं. जिन्हें भविष्य में उदाहरणों के रूप में पेश किया जाता है. ऐसी ही एक हार दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को मिली है. ये हार सिर्फ एक राज्य में सत्ता बदलाव भर नहीं है. ये एक 'सपने' की मौत जैसा है. ऐसा क्यों है इसे जानने के लिए हमें वर्तमान को अतीत के पन्नों से जोड़ना होगा. 

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आंदोलन, उम्मीद और राजनीति में बदलाव की आस...

साल 2012 में 26 नवंबर वो तारीख थी जब देश भर में बदलाव, नई उम्मीद, सादगी और ईमानदारी का दावा करके 'आम आदमी' नामक एक पार्टी बनकर उभरी थी. पार्टी का नाम भी ऐसा था कि हर कोई इससे अपने को कनेक्ट करता है. अन्ना आंदोलन के बाद जब केजरीवाल ने सियासत में कदम रखा तो दिल्ली समेत देशभर के लोगों में एक विकल्प की उम्मीद जगी थी. वीआईपी कल्चर, सादगी, भ्रष्टाचार या फिर नेताओं की जनता से जवाबदेही की बात...तब केजरीवाल हर चीज पर चोट करते थे जिससे लोगों का सीधा जुड़ाव था.  अन्ना आंदोलन से निकली इस पार्टी की इन बातों पर लोगों को इतना यकीन था कि कइयों ने अपनी नौकरी छोड़ी, व्यवसाय छोड़ा और पार्टी से जुड़ गए. 

2012 से लेकर 2025 तक केजरीवाल और उनकी पार्टी ने सियासत का बेहतर दौर ही देखा. दिल्ली में उसे एक के बाद एक बड़ी जीत मिली. पंजाब में भी सत्ता का सुख मिला और अन्य राज्यों में भी उसने अपनी मौजूदगी दिखाई.

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सत्ता मिली तो तेवर और कलेवर भी बदले

केजरीवाल ने जब पहली बार चुनाव लड़ा तो उनकी पार्टी बहुमत से दूर थी. फिर उन्होंने कांग्रेस से गठबंधन किया. ये उनकी पहली वादाखिलाफी थी. क्योंकि उन्होंने ऐसा न करने का सरेआम वादा किया था. लेकिन उनके इस कदम को समय की मांग समझकर जनता ने फिर केजरीवाल को समर्थन दे दिया. फिर धीरे-धीरे केजरीवाल की सादगी से भी उनका पीछा छूटता गया. अपने भी साथ छोड़ते गए. जो पार्टी की कमियों को उजागर करता उसे निकाल भी दिया गया. 

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केजरीवाल को मुफ्त योजनाओं पर भरोसा...

केजरीवाल जिस सादगी और पार्टी लोकतंत्र के वादों के साथ सियासत में आए थे वह साल दो साल के भीतर ही दरकने लगे थे. लेकिन तब तक केजरीवाल राजनीति के दांव पेच सीख चुके थे. उन्होंने हर विवाद को सुलझाया और सफल होते रहे. फिर उन्होंने मुफ्त सुविधाओं का दांव खेला और सफल रहे.

लेकिन भ्रष्टाचार का आरोप बर्दाश्त नहीं कर सकी जनता

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि केजरीवाल की छवि को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब उनका नाम शराब घोटाले में सामने आया. इन आरोपों में केजरीवाल खुद घिरे दिखे, जेल भी गए. इसने उनकी ईमानदार और सादगी वाली छवि को लगभग तोड़ दिया. बची खुची इमेज शीशमहल ने पूरी कर दी. 

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वादों का ओवरलोड हो गया...

जेल से छूटने के बाद केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया. अपनी इमेज को और मजबूत करने के लिए उन्होंने फ्री वाला दांव फिर खेला. हर रोज नए वादे किए. सभी वर्गों को साधने की कोशिश की. लेकिन तमाम वादों के बावजूद भी वो सत्ता नहीं हथिया सके. 

ये हार सिर्फ सत्ता का बदलाव नहीं क्योंकि...

केजरीवाल की हार केवल एक राज्य में सत्ता का बदलाव भर नहीं है. इस पार्टी ने वैकल्पिक राजनीति का जो सपना दिखाया था, उसकी भी हार हुई है. उम्मीदों की भी हार हुई है. बेदाग राजनीति का वादा भी टूटा है. आम आदमी पार्टी के सफर ने ऐसा सबक सिखाया है कि अगर भविष्य में कोई पार्टी आंदोलन से जन्म लेगी तो लोग इसका उदाहरण देंगे.  

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