
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में तमिलनाडु के उस व्यक्ति को बरी कर दिया, जो 12 साल से जेल में था और जिसे अपनी पत्नी की हत्या के आरोप में उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी. कोर्ट ने कहा कि केवल मरने से पहले दिए गए बयान (डायिंग डिक्लेरेशन) के आधार पर दोषसिद्धि करना उचित नहीं होगा. खासकर जब उसमें विरोधाभास हो.
क्या है पूरा मामला?
दरअसल, यह मामला 2008 का है. जब आरोपी पर आरोप लगा कि उसने अपनी पत्नी पर केरोसिन डालकर उसे जला दिया था. गंभीर रूप से जलने के कारण महिला को अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहां करीब तीन हफ्ते बाद उसकी मौत हो गई. इस दौरान महिला ने अलग-अलग बयान दिए. पहले उसने कहा कि यह एक दुर्घटना थी, लेकिन बाद में न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने अपने पति को जिम्मेदार ठहराया. इसी बयान को आधार बनाकर ट्रायल कोर्ट और बाद में मद्रास हाईकोर्ट ने आरोपी को दोषी ठहराते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी.
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सुप्रीम कोर्ट ने क्यों सुनाया बरी करने का फैसला?
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने मद्रास हाईकोर्ट के फैसले को पलट दिया. अदालत ने कहा कि मृतका के बयान में विरोधाभास थे, इसलिए अकेले उसके अंतिम बयान के आधार पर दोषसिद्धि करना सही नहीं होगा. अदालत ने कहा कि डायिंग डिक्लेरेशन आपराधिक मामलों में महत्वपूर्ण साक्ष्य होता है, लेकिन उस पर तभी भरोसा किया जाना चाहिए जब वह विश्वसनीय हो और अन्य साक्ष्यों द्वारा पुष्ट किया जाए. इस मामले में मृतका ने पहले पति पर आरोप नहीं लगाया था, लेकिन बाद में बयान बदल दिया.
कोर्ट ने क्या-क्या कहा?
संदेह का लाभ दिया जाना चाहिए: अगर किसी मामले में संदेह की गुंजाइश है, तो आरोपी को लाभ मिलना चाहिए.
पुष्टिकारक साक्ष्य जरूरी: बिना अन्य ठोस सबूतों के केवल एक विरोधाभासी बयान के आधार पर सजा नहीं दी जा सकती.
मरने से पहले दिए गए बयान की विश्वसनीयता: अगर किसी मामले में मृतका के बयान बदलते हैं, तो उसकी अंतिम गवाही पर पूरी तरह भरोसा नहीं किया जा सकता.
क्या बोले गवाह?
इस मामले में गवाहों ने कहा कि जब महिला को अस्पताल लाया गया, तब उसके शरीर से केरोसिन की गंध नहीं आ रही थी. इससे इस बात पर सवाल उठता है कि उस पर वास्तव में केरोसिन डाला गया था या नहीं. इस बात के कोई ठोस सबूत नहीं मिले कि उस पर जबरन केरोसिन डाला गया था.