
गुजरात में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता मनसुखभाई वसावा ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया है. साथ ही जल्द ही वो संसद की सदस्यता भी छोड़ देंगे. बीजेपी के लिए ये एक बड़ा झटका माना जा रहा है क्योंकि मनसुख वसावा का राजनीतिक कद गुजरात से लेकर दिल्ली तक काफी बड़ा रहा है. वो राज्य और केंद्र दोनों ही सरकारों में मंत्री की जिम्मेदारी भी निभा चुके हैं. गुजरात में उन्होंने ऐसी सीट पर वर्षों तक बीजेपी का परचम लहराया है जहां कभी कांग्रेस के दिग्गज स्वर्गीय अहमद पटेल जैसे नेता का दबदबा था.
आदिवासी समुदाय से आने वाले मनसुख वसावा का जन्म 1 जून 1957 को नर्मदा जिले के जूनाराज में हुआ था. वसावा ने बीए की पढ़ाने करने के बाद MSW की भी शिक्षा ली. मनसुख वसावा की पढ़ाई साउथ गुजरात यूनिवर्सिटी और अहमदाबाद स्थिति विद्यापीठ से हुई. मूलरूप से उनका पेशा खेती-किसानी का है.
63 साल के मनसुख वसावा का राजनीतिक करियर काफी लंबा रहा है. 1994 में वसावा सबसे पहले गुजरात विधानसभा का चुनाव जीतकर विधायक बने थे. उन्हें गुजरात सरकार में डिप्टी मिनिस्टर भी बनाया गया था.
लोकसभा चुनाव में हमेशा रहा दबदबा
इसके बाद वो लोकसभा चुनाव की राजनीति में उतर गए और तब से ही लगातार चुनाव जीतते आ रहे हैं. 1998 में वसावा भरूच से लोकसभा के सांसद निर्वाचित हुए. 1999 में लगातार दूसरी बार सांसद बने. जीत का ये सिलसिला चलता रहा और 2004 में जब एनडीए का शाइनिंग इंडिया का नारा फीका पड़ गया, तब भी मनसुख वसावा चमके और चुनाव जीता. 2009 के लोकसभा चुनाव में भी उन्हें जीत मिली.
मोदी सरकार में बने मंत्री
2014 में जब पूरे देश में मोदी लहर चली तो मनसुख वसावा की जीत का रथ भी परंपरागत तरीके से आगे बढ़ा. पांचवीं बार लोकसभा सांसद बनने का उन्हें इनाम भी मिला और उन्हें केंद्रीय आदिवासी मंत्री बनाया गया. हालांकि, 2019 में चुनाव जीतने पर भी उन्हें कैबिनेट में जगह नहीं मिली.
बता दें कि भरूच आदिवासी बहुल इलाका है. गुजरात में आदिवासी वोटरों की संख्या करीब 12 फीसदी मानी जाती है और यहां की 27 विधानसभा सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. करीब 40 सीटों पर आदिवासी वोटर निर्णायक की भूमिका में माने जाते हैं. मनसुख वसावा की पूरी राजनीति आदिवासी वोटरों से जुड़ी रही है. यही कारण है कि भरूच की बदौलत वो 1998 से लोकसभा चुनाव जीतते चले आ रहे हैं. मगर, अब आकर उन्होंने एक बड़ा फैसला किया है और बीजेपी का साथ छोड़ दिया है.