
25 साल पहले बड़े भाई से ब्याह करके गांव आई. देवर तब स्कूल जाता था. बड़ा हुआ तो घरवाले ने कहा - इसे भी अपना लो. मैं बाहर आता-जाता रहता हूं. ये साथ देगा. अब दोनों से ही रिश्ता है. मेरे कमरे में आने की पारी लगा रखी है. एक शाम बड़ा भाई आता है. अगले दिन छोटे का नंबर. 'तकलीफ नहीं हुई?' हुई क्यों नहीं. धुकधुकी लगी रहती कि साथ रहने के बाद छोटा घरवाला मुझे छोड़कर दूसरी गांठ न बांध ले! थकी होती तब भी इसी डर से मना नहीं कर पाती थी. लेकिन फिर निभ गई.
बच्चे किसके हिस्से आए?
उनको भी बांट लिया. छोटे के हिस्से छोटा लड़का आया. बड़े घरवाले को तीन बच्चे और मेरी शादी मिली.
देवदार से बनी छत के नीचे मेरी बात सुनीला देवी से हो रही है. जोड़ीदारां यानी जॉइंट शादी में रहती ये महिला खुलकर हंसती है. पहाड़ों पर पहाड़ी नदी जैसी फुर्ती से चलती है. बाहरियों से बात करने में भी सहज खुलापन. कैमरा देखकर वे मुंह नहीं फेरती, बल्कि आंखों में सीधी ताकती है. मानो ललकारती हो- तुम पूछो, जो सोचती हो. पूछ पाओगी तो मैं बता दूंगी.
हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले को गिरि नदी दो भागों में बांटती है- गिरि-आर और गिरि-पार. गिरि-पार या ट्रांस-गिरि वो इलाका है, जहां हाटी समुदाय बसता है. कुछ ही महीनों पहले इस कम्युनिटी को अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिला. समाज के जानकार मानते हैं कि इसमें बड़ा हाथ जोड़ीदारां जैसी प्रथाओं का भी था. बहुपतित्व का रिवाज हाटियों में आम है.
वहां के बुजुर्ग इसके पीछे चाहे जितने तर्क दे दें, लेकिन पहली नजर में खरे सोने-सी दमकती दलीलों के पीछे अनबहे आंसू भी हैं, जिनका खारापन चाहे-अनचाहे साझा पत्नियों की बातों में झलक ही जाता है.
सुनीला कहती हैं- जब आई तो घर-जाखड़ कुछ नहीं था. पूरी बिनाई की एक कोटी (स्वेटर) थी. बाहर जाते हुए वही सास पहनती, या मैं जाऊं तो मुझे मिल जाती. जूतियां भी एक. फिर मुझे तो बंटना ही था!
जोड़ीदारां में रहती इन औरतों और उनके परिवारों से मिलने का हमारा सफर दिल्ली से शुरू हुआ. हिमाचल के पोंटा साहिब के ऊपर रास्ता बदलने लगा. डीजल-पेट्रोल के धुएं की जगह हरी खुशबू ने ले ली. रास्ते ज्यादा संकरे, ज्यादा घुमावदार होते गए. मानो पहुंचने से पहले ही चेताते हों कि यहां तर्क-बहस नहीं, सिर्फ पहाड़ी कायदे चलेंगे. गिरि-पार पहुंचने के बाद कई जगह रुककर रास्ता पूछते-पुछाते आगे बढ़े.
लगभग 13 सौ वर्ग किलोमीटर में फैले ट्रांस-गिरि इलाके में 154 पंचायतें हैं, जिनमें से 147 में हाटी समुदाय रहता है. पिछले साल अगस्त में केंद्र ने इसे अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया.
बेहद अलग परंपराओं वाले कबीले में वैसे तो महिला-पुरुष बराबर हैं, लेकिन चावल में ताजा घी की तरह अदृश्य फर्क का स्वाद बिना दिखे ही मुंह में आ जाएगा.
यहां लड़के के जन्म पर दशराता मनाते हैं. इस दौरान बड़ी दावत दी जाती है, मांस परोसा जाता है. वहीं लड़की का जन्मोत्सव फुसफुसाहट की तरह हवा में घुलामिला हुआ. पूरी रिपोर्ट के दौरान सबने माना कि शादी से पहले पत्नी की रजामंदी नहीं ली गई, बस तय हो गया कि उन्हें ऐसे ही रहना होगा.
जामना गांव हमारा पड़ाव था, जहां बहुत से परिवार जोड़ीदारां में रहते हैं.
यहीं हमारी मुलाकात सुनीला से हुई. 40 से 45 के बीच की महिला नीचे मंदिर में किसी उत्सव के लिए पहुंची हुई थी. वहां से ऊपर की तरफ हम साथ-साथ चले. सरपट भागती हुई महिला बीच-बीच में ठहरकर किसी साग-पत्ती के बारे में बताती चलती है. भुरभुरी मिट्टी पर मैं एक झाड़ी-नुमा पौधे का सहारा लेने को थी कि टोक देती हैं- ये बिच्छू बूटी है. छुएंगी तो रातभर जलन रहेगी.
यह वही पौधा है, जिसका साग बनाकर ट्रांस-गिरि के लोग खाते हैं, जब हरी सब्जी न जुट पाए.
‘तोड़ते-पकाते आपको जलन नहीं होती!’
‘होगी क्यों नहीं, हम भी हाड़ ही हैं, आपकी तरह.’ हंसता हुआ जवाब दन्न से भीतर घुसता है. बताने वाली लेकिन एकदम सहज थी. वैसे ही सरसराते हुए चलती और पीछे मुड़-मुड़कर मेरे ठीक होने की तसल्ली करती हुई.
शहरी घरों की तीन सीढ़ियों जितनी ऊंची एक सीढ़ी वाला घर. लकड़ी और एस्बेस्टस की छत से बना यही घर सुनीला का है. सटा हुआ आंगन, जिसके कोने सीधे पहाड़ से मिलते हैं. कोई बाउंड्री नहीं. सामने की दीवार पर बीपीएल नंबर और गांव का नाम लिखा हुआ. सुनीला के ओपन ड्रॉइंगरूम की ये अकेली पेंटिंग है.
पहुंचते ही ‘छोटा घरवाला’ मिला. सुनीला इसी संबोधन से उनसे मिलवाती है. नमस्ते के बाद चाय-पाणी परोसने का लगभग आदेश देते हुए घरवाला नीचे बच्चों को स्कूल से लाने चल पड़ा.
शादी करके आई तो घर में पूरी दीवारों वाला एक ही कमरा था. उसी में सास-ससुर सोते. वहीं आड़ करके हम सो जाते. गरीबी इतनी कि पूरी ऊन का स्वेटर भी एक ही था. मैं और सास कभी साथ बाहर नहीं जाते थे कि तन पर उधड़ा कपड़ा न दिख जाए. आधा पेट, आधा कमरा, जैसे-तैसे सब चल रहा था कि एक दिन जॉइंट घरवाली बनने को कह दिया गया.
जबर्दस्ती नहीं. बस हर-मुंह एक समझाइश, जो दिनों तक चलती रही.
सास ने कहा- कर ले बेटा. घर जुड़ा रहेगा.
पति ने कहा- मान जाओ, मैं बाहर रहूं वो तुम्हारा ध्यान रखेगा.
ससुर ने कहा- इतनी गरीबी है, तुम राजी हो तो उसका भी घर बस जाए.
मैंने हां कर दी. इस बात को 25 साल हुए. अब भाइयों से मेरे चार जॉइंट बच्चे हैं. ढाटू (सिर पर लगा पारंपरिक स्कार्फ) ठीक करते हुए सुनीला सालों पुरानी हां को याद करते हुए भरभरा नहीं जातीं. ऐसे कहती हैं, जैसे किसी और का दुख जी रही हों.
मैं गौर से देखती हूं. जिम में पसीना बहाते शहरी शरीरों से बेहतर देह. उभरी हुई चीकबोन. धूसर पड़ी लाल बिंदी और कानों में छोटी-बड़ी तीन सुनहरी बालियां.
बालियां क्या सोने की हैं? कपड़े भी बांटकर पहनने वाली महिला से ऐसी बात पूछने का इरादा छोड़ते हुए पूछती हूं- आपको तकलीफ नहीं हुई!
होती क्यों नहीं! देवर स्कूल जाता तो रोटी बांधती थी. फिर उसे भी पति का हक देना पड़ा. झेंप और दुख काफी दिनों तक साथ-साथ चलते रहे. गांव में मिलने पर भी लगता था कि लोग देख रहे हैं. सोच रहे हैं. फिर आदत हो गई. हो ही जाती है. नहीं...!
मुझसे पूछा गया ये 'नहीं' हवा में ही टंगा रहता है.
पूजा-पाठ हो तो आपके साथ कौन बैठता है?
दोनों बैठते हैं अगल-बगल. मैं बीच में. शादी-ब्याह हो, कोई दान करना हो तो 'तीनों का जोड़ा' बनता है. मइके (मायका) जाओ तो एक के साथ जाने पर शिकायत होती है. दोनों ही जमाई हैं घर के.
एक-एक करके चार बच्चे हो गए तो उन्हें भी बांट लिया. तीन लड़का-लड़की और मेरी शादी बड़े भाई के हिस्से आई. एक बेटा छोटे को दे दिया.
लिखा-पढ़ी हुई बच्चों के बंटवारे की?
सवाल समझ न आया हो, ऐसे सुनीला देखती रहती हैं, फिर कहती हैं- 'इतना तो मुझे नहीं पता, लेकिन नीचे कस्बे में कुछ हुआ होगा.'
सीधे पहाड़ पर खुलते बे-बाउंड्री आंगन में बात चल ही रही थी कि तभी एकदम से बादल घिरे और बारिश शुरू हो गई.
सुनीला व्यस्त हो गईं. सामान उठाने-धरने में. सूखा अनाज, लहसुन हटाने में. जिस भीतरी कमरे में मुझे बिठाया गया, उसकी छत सिर से टकराती हुई.
क्यों?
‘बड़े-पुरखे कहते हैं कि सिर झुका रहे तभी छत टिकी रहती है.’ भीगकर लौटी महिला बताती है.
सिरमौर में जितने घरों में हम गए, सबमें यही बंदोबस्त. दरवाजा काफी नीचे होगा. यहां तक कि कमरे में भी पूरे कद का आदमी आराम से न चल सके. कई सारे छोटे-छोटे कमरे. लकड़ी पर रंगीन काम.
पहले ये लकड़ी ऐसी चिकनी नहीं थी. हर दो-चार महीने बाद हमें साफ-सफाई करनी पड़ती. हाथों में गट्टे आ जाते. अब पेंट करवाते हैं. गीले कपड़े से सब साफ हो जाता है. सुनीला घर के बारे में चाव से बता रही हैं. जिस जतन से वे सामान रखती-उठाती हैं, लगता है कि पति के साथ-साथ घर की चीजों से भी ब्याह हुआ हो.
शादी एक से हुई. साथ दोनों का है. ये बताइए कि प्यार कौन ज्यादा करता है?
‘प्यार...वो तो बस ऐसे ही. क्या करना है उसका.’ छोटा जवाब. लेकिन आंखों में दिप से जैसे कुछ टिमटिमा गया हो. आवाज में हुलस. थोड़ा रुककर खुद ही कहती हैं- ध्यान रखने की बात पूछती हो तो सुनो, छोटा ज्यादा करता है. बीमार हुई. कुछ इच्छा हुई. इसे सब याद रहता है. बड़ा वाला तो मजदूरी के लिए शहर जाता है. साथ में यही रहता है.
और आप! आप किससे ज्यादा जुड़ी हैं?
इस बार जवाब खूब संभलकर आया, जैसे गुणा-भाग चल रहा हो. जैसे बिस्तर के नीचे छिपे पुराने प्रेम-पत्र की बात निकल पड़ी हो. इबारत दिखी कि रिश्ता दरका.
हम फर्क नहीं करते. मन में जो भी चले, चेहरे, कामकाज में उसका असर नहीं आने देते. दोनों को दौड़कर ठंडा पानी पूछूंगी. खाना दोनों को एक-सा परोसूंगी. दोनों के कपड़े उसी जतन से धोऊंगी. एक जैसा मान-जतन देना है. पता न लगे कि मन में कुछ उबड़खाबड़ भी है. मेरे लिए दोनों ही पति हैं.
दो आदमियों की फरमाइश, इच्छा झेलते हुए कभी थक भी जाती होंगी!
हां, लेकिन घर की कमी के कारण सब सह लिया. शरीर का कष्ट भी. मजबूरी थी. डर लगता था कि हमारे साथ रहकर दूसरी शादी भी कर लेंगे, तब इतने बच्चों को कौन देखेगा. अब तो वो लोग भी समझते हैं. जबर्दस्ती नहीं करते. मान जाते हैं.
सुनीला की आंखें शिकायत से खाली थीं, मानो सालों पहले ही सब चुक गया हो. बाकी है तो केवल 25 सालों की आदत.
बारिश तेज थी. एक स्वेटर बांटकर पहनने वाले घर के हालात सुधरे तो हैं, लेकिन कुछ भी एक्स्ट्रा की गुंजाइश नहीं. एक छतरी छोटा घरवाला ले जा चुका.
भीगते हुए ही हम अगले घर की तरफ बढ़ते हैं, जहां मीना देवी हमारा इंतजार कर रही हैं. तीन पतियों की पत्नी. दोमंजिला घर के अहाते में पुराने पेड़ की तरह बसी हुई. तीनों पति भी घर पर ही थे. सब साथ ही बैठते हैं.
जोड़ीदारां की नौबत क्यों आईं.
इसपर बड़े पति समझाते हुए कहते हैं- शादी तो मुझसे ही हुई थी. मैं पढ़ा-लिखा नहीं. घर पर गरीबी थी. लगा कि तीन भाइयों की तीन औरतें आएंगी तो बचा-खुचा भी बंट जाएगा. हमने आपस में सलाह की और इसको (पत्नी की तरफ इशारा करते हुए) बता दिया.
आपने पत्नी से भी मंजूरी ली होगी!
सवाल शायद नया होगा, वे समझने की कोशिश करते हैं. मैं दोहराती हूं. बाकी दो भाइयों की तरफ देखती हुई दबी आवाज आती है- नहीं उससे तो नहीं पूछा. लेकिन उसने मना भी नहीं किया. रजामंदी ही थी.
जॉइंट में रहते हुए कभी कोई परेशानी नहीं आई? कभी दूसरे भाई साथ हों, और आपका मन हो जाए...
अधूरा सवाल पकड़ते हुए वे कहते हैं- अब सहन तो करना पड़ता है कभी-कभी. सहेंगे नहीं तो लड़ाई-झंझट होगा. चल गया सब. वो भी खुश रही बेचारी. आपस में मार-पिटाई जैसी नौबत कभी नहीं आई.
बेहद सरलता से बड़े भाई सबकुछ कह जाते हैं. मीना भी वहीं हैं. नजर मिलने पर हर बार मुस्कुराती हुई. एक और भाई भी इसी किस्म की बातें कहता है, लेकिन प्रैक्टिकल जिंदगी की छौंक लगाते हुए.
हममें से किसी को, या दो को भी कुछ हो जाए तो घर जागता रहेगा. इसके पति, बच्चों के पास पिता होगा.
तीनों के जाने के बाद हमारी बात शुरू हुई.
‘जॉइंट में रहने का फैसला हुआ तो रोज प्रार्थना करती कि देवता मुझे सबसे एक-सा प्रेम करना सिखा दे. सीखते-सीखते बूढ़ी भी हो गई.’ खाली आंखें धीरे-धीरे बता रही हैं.
तीन भाइयों में किसके साथ, कब रहती हैं?
उन लोगों ने ही आपस में तय कर लिया था. एक शाम बड़ा वाला आता तो सुबह तक उस कमरे में कोई नहीं आएगा. दूसरी शाम दूसरा और फिर तीसरा. ऐसे ही चलता था. अगर कोई शहर गया हो तो ये पारी दो भाइयों में बंट जाती है.
कभी शरीर की या कोई दूसरी परेशानी नहीं आई?
तकलीफ का क्या कहें! बहुत कुछ चलता था. पति कहना नहीं मानते थे. जिद पर आ जाते. सब तकलीफ काटी हमने. दिल-जान तो हमारा भी एक ही है. बांटना पड़ा. कभी बहुत थक जाती तो चिड़चिड़ा जाती थी. फिर डर लगता कि दूसरी शादी कर लेंगे. तब पास आने देती थी.
मीना रुक-ठहरकर साफ हिंदी में कहती हैं- वैसे शरीर मेरा ठीक रहा. उसमें कोई दिक्कत नहीं आई, भले भूल-चूक हुई हो.
बच्चों की शादी कराएंगी आप जोड़ीदार में?
‘न.’ पलटता हुआ जवाब आता है. ‘लड़के नौकरी करते हैं. दो की अलग-अलग शादियां हैं. बेटियों को भी जोड़ीदारां में नहीं दिया. घर में सबकुछ है. कमी-तंगी का जो शाप था, हमने भोग लिया.’
बात हो चुकी. एस्बेस्टस और लकड़ी की छत पर बारिश अब पत्थर जैसी आवाज के साथ बरस रही है. मैं आगे बढ़ रही हूं कि मीना कह जाती हैं- ये बरसात खास हम पहाड़ी औरतों के लिए आती है. भीगते हुए काम और रोना एक साथ हो जाता है.
हंसोड़ आवाज में पहली बार संजीदगी. लेकिन तेज बारिश और पहाड़ी रास्ते मुड़कर देखने की मोहलत नहीं देते.
आगे हमारी मुलाकात कुंदन सिंह शास्त्री से हुई, जो केंद्रीय हाटी समिति के महासचिव हैं.
वे कहते हैं- हाटी समुदाय के रीति-रिवाज उत्तराखंड के जौनसार-बावर क्षेत्र जैसे ही हैं. उन्हें काफी पहले जनजाति का दर्जा मिल गया. हमें समय लग गया. अब हम भी अनुसूचित जनजाति हैं. जो सरकारी स्टेटस हमें मिला, उसके पीछे एक कारण हमारी अलग परंपराएं भी हैं. जोड़ीदारां भी इनमें से एक है.
इस शादी की कई वजहें भी कुंदन बताते हैं.
पांडवों का कुछ समय इस क्षेत्र के आसपास रहना हुआ था. वही संस्कार हमारे हाटी समुदाय मंह आ गए. दो या तीन भाइयों की एक पत्नी यहां कई घरों में मिल जाएंगी. वे काफी स्नेह से एक ही छत के नीचे रहते हैं.
सबसे बड़ी बात है कि ऐसे घरों में औरत की राय ऊपर रखी जाती है. अगर कोई दुविधा वाला फैसला लेना हो तो भाई पत्नी से सलाह करते, और उसकी ही बात मानते हैं. गांववाले भी ऐसी महिलाओं को ज्यादा इज्जत से देखते हैं कि घर जोड़ने के लिए इतना बड़ा समझौता कर सकीं.
अब कितने गांवों में ये प्रथा बाकी है?
सिरमौर के साढ़े 3 सौ से ज्यादा गांवों में जहां भी हाटी समुदाय है, कम-ज्यादा ये परंपरा मिल जाएगी. वैसे जिस हिसाब का चलन है, आने वाले समय में ये अपने-आप ही खत्म हो जाएगी. बच्चे पढ़े-लिखे हैं. वे इसे उतनी तवज्जो नहीं दे रहे. वैसे भी जोड़ीदारां सहमति से बनने वाला नियम है. किसी से जबर्दस्ती नहीं होती.
जहां ये सारी बातचीत चल रही है, वहीं एक ऐसा शख्स मौजूद था जिसकी कई पीढ़ियां जोड़ीदारां में रह चुकीं.
मुकेश कहते हैं- चार पीढ़ियों की बात तो मैं जानता हूं. शायद इससे पहले भी यही चला आ रहा हो. मेरी और बड़े भाई की भी संयुक्त शादी हुई. अब चार बच्चे हैं.
किनके नाम पर हैं बच्चे?
हैं तो भाई के नाम पर, लेकिन मैंने गोद ले लिया है.
गोद कैसे लिया, कोई कागज बनवाया!
नहीं. मन से अपने बच्चे मान लिया. हैं तो हम दोनों के ही. बच्चों ने भी कभी पलटकर सवाल या गुस्सा नहीं किया. बड़े भाई को बड़े पापा, और मुझे छोटे पापा बुलाते हैं.
लेकिन कागजों पर आप अब भी अविवाहित हैं!
हां. लेकिन पत्नी-बच्चों का सुख है. कागज भले न हों.
अपनी बेटियों को भी जोड़ीदारां में देगें?
ये तो उनकी मर्जी. एमए-बीएड कर चुकीं. अगर चाहेंगी तो अच्छा ही है. इसमें कोई खराबी नहीं. तालमेल बना रहता है.
‘तालमेल.’ गांव में ये शब्द बार-बार सुनाई देता रहा. साथ ही एक वाक्य- सहन तो करना होगा. पैदल निकलते हुए जगह-जगह बिच्छू बूटी दिखती है. सुनीला की टोक हवा में पसरी हुई- छूना मत, जलन 24 घंटे नहीं जाएगी.
देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड की चर्चा जोरों पर है.
पड़ोसी राज्य उत्तराखंड में यूसीसी लागू भी हो चुका. अगर हिमाचल प्रदेश में भी ऐसी व्यवस्था हो जाए तब क्या होगा! क्या इस दायरे में सिरमौर के हाटी समुदाय की जोड़ीदारां प्रथा भी आएगी? ये समझने के लिए हम दिल्ली हाई कोर्ट के सीनियर वकील मनीष भदौरिया से बात करते हैं.
केंद्र में कोई भी कानून लागू हो तो वो सबके लिए होता है. राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री भी उससे बाहर नहीं होते. जैसे सेंटर ने धारा 497 में एडल्ट्री (व्याभिचार) को अपराध की परिभाषा से बाहर कर दिया. ये सिर्फ कागज पर नहीं, जमीन पर हुआ. सबपर लागू हुआ. लेकिन बात जब आदिवासियों या किसी समुदाय के धार्मिक यकीन की हो तो एक्सेप्शन भी होते हैं. कोशिश रहती है कि मान्यताओं से छेड़खानी न हो, जब तक कि इसकी वजह से एक पक्ष पीड़ित न हो.
वैसे भी किसी प्रथा को गलत या अपराध साबित करने के लिए कंप्लेनेंट की जरूरत होती है. इसके बाद ट्रायल चलता है, तब जाकर बदलाव आता है. जहां तक हिमाचल के इस खास समुदाय की बात है तो ये पता करना होगा कि स्थानीय स्तर पर कोई ट्राइबल लॉ तो नहीं बन चुका!
अगर ऐसा है तो यूसीसी से उसपर कोई असर नहीं होगा, जब तक कि कोई पक्ष शिकायतकर्ता न हो जाए. यानी कुछ महिलाएं बहुपतित्व की वजह से खुद को पीड़ित न बताएं. वहीं स्पेशल एक्ट बना हो तो आईपीसी/सीआरपीसी की बजाए उसे प्राथमिकता दी जाएगी.
इंटरव्यू कोऑर्डिनेशन: दिनेश कनौजिया
(नोट: परिवारों की पहचान बदली हुई है.)