
कांग्रेस से नाता तोड़ चुके गुलाम नबी आजाद अब कश्मीर में अपनी अलग नई सियासी पारी की तरफ कदम बढ़ा रहे हैं. इस दिशा में जम्मू-कश्मीर कांग्रेस के नेताओं में जीएम सरूरी, हाजी अब्दुल राशिद, मोहम्मद अमीन भट, गुलजार अहमद वानी, चौधरी मोहम्मद अकरम और सलमान निजामी ने पार्टी को अलविदा कहकर गुलाम नबी आजाद का हाथ थाम लिया है.
गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के तीन साल पूरे हो चुके हैं और सूबे में में अगले कुछ महीनों के भीतर ही चुनाव होने की उम्मीद हैं. ऐसे में सूबे की राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों की नजर गुलाम नबी आजाद पर है. सवाल ये भी है कि आजाद जम्मू कश्मीर के आने वाले विधानसभा चुनावों में क्या और किस तरह की भूमिका निभाएंगे. वे मुफ्ती मोहम्मद सईद का फॉर्मूला अपनाएंगे या अमरिंदर सिंह की राह पकड़ेंगे.
गुलाम नबी आजाद की जन्मस्थली भले ही जम्मू डिवीजन का डोडा इलाका है, लेकिन उनकी पहचान कश्मीर घाटी के नेता के रूप में रही है. जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और कांग्रेस के सबसे बड़े चेहरे के तौर पर जाने जाते थे. ऐसे में एक तरह उनके पार्टी छोड़ने से कांग्रेस को बड़ा झटका लगा है तो उनके नई पार्टी बनाने से बीजेपी को सत्ता में अपनी वापसी की उम्मीद दिख रही है. इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि कश्मीर में गुपकार अलायंस पूरी तरह बिखर चुका है. ऐसे में सभी पार्टियों के अलग-अलग चुनाव लड़ने से बीजेपी को अपना फायदा मिलने की आस है.
बता दें कि जम्मू-कश्मीर में चुनाव आयोग ने जो परिसीमन किया है, उसके मुताबिक सात सीटों को बढ़ाया गया है. इस तरह से अब जम्मू-कश्मीर में 90 सीटें पहुंच गई है. इनमें जम्मू की 6, जबकि कश्मीर की एक सीट शामिल है. कुल 90 सीटों की बात करें तो इसमें कश्मीर की 47 और जम्मू की 43 सीटें हैं. इनमें से दो सीटें कश्मीरी पंडितों के लिए रिजर्व रखी गई हैं तो 9 सीटें एससी-एसटी के लिए आरक्षित किया गया है. इस तरह से जम्मू-कश्मीर के सियासी समीकरण अब पूरी तरह से बदल गए हैं.
जम्मू-कश्मीर के बदले हुए सियासी हालत में गुलाम नबी आजाद के पास पास पीडीपी और नैशनल कॉफ्रेंस में जाने पर बहुत ज्यादा सियासी लाभ की उम्मीद नहीं थी. इसीलिए कांग्रेस से अलग होकर उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला किया है. ऐसे में जम्मू-कश्मीर के पुराने कांग्रेसी नेताओं को अपने साथ जोड़ रहे हैं ताकि चुनावी पिच पर मजबूती से खड़े हो सकें.
जम्मू डिवीजन में बीजेपी काफी मजबूत है और यहां उसे ज्यादातर सीटें मिल सकती हैं. वहीं, कश्मीर के इलाके वाली सीटों पर बीजेपी की स्थिति ठीक नहीं मानी जाती, क्योंकि मुस्लिम बहुल सीटें हैं. ऐसे में गुलाम नबी आजाद कुछ सीटें जीतने में सफल रहते हैं तो सियासी संभावनाओं में वो किंगमेकर बन सकते हैं. ऐसी सूरत में बीजपी को भी उनसे हाथ मिलाने में कोई परहेज नहीं होगा, क्योंकि घाटी की नुमाइंदगी के लिए सरकार में उसे भी किसी पार्टी की जरूरत होगी.
गुलाम नबी आजाद फिलहाल खुद को बीजेपी की बी-टीम के तमगे से बाहर रखने की कवायद में है. इसीलए कहा कि एक कश्मीरी कभी भी बीजेपी के साथ नहीं जाएगी. यह बात कहने के पीछे एक सियासी वजह है, उन्हें पता है कि उनकी पार्टी पर बीजेपी के साथ मिली भगत होने का आरोप लगा तो फिर सियासी तौर पर सफल नहीं हो पाएंगे. वहीं, कांग्रेस उन्हें बीजेपी के साथ खड़ी कर रही है. कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने गुलाम नबी के डीएनए को मोदी-फाइड बताया है.
क्या आजाद बनेंगे अगले अमरिंदर?
पंजाब के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस से अलग होकर अपने समर्थकों के साथ अपनी एक नई राजनीतिक पार्टी बनाई थी. ठीक उसी तरीके से गुलाम नबी आजाद भी जम्मू-कश्मीर में अपनी नई राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला किया. हालांकि, कैप्टन अमरिंदर और गुलाम नबी में एक सियासी फर्क दिख रहा है. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बीजेपी के साथ मिलकर पंजाब का चुनाव लड़ा था, लेकिन न तो वो खुद जीते और न ही उनकी पार्टी सफल नहीं रहे. इसके पीछे एक बड़ा कारण किसान आंदोलन था और किसानों की बीजेपी से नाराजगी कैप्टन अमरिंदर सिंह पर भी पारी पड़ी थी. वहीं, गुलाम नबी ने साफ कर दिया है कि बीजेपी के साथ हाथ नहीं मिलाने जा रहा हैं.
गुलाम नबी को भाएगा मुफ्ती का मॉडल?
मुफ्ती मोहम्मद सईद और गुलाम नबी आजाद दोनों ही राजीव गांधी से पहले के कांग्रेसी थे. सईद इंदिरा गांधी के वफादार थे और गुलाम नबी आजाद संजय गांधी के वफादार. दोनों ने अपने गृह राज्य जम्मू और कश्मीर के बाहर लोकसभा चुनाव जीता. मुप्ती सईद ने 1989 में मुजफ्फरनगर से जनता दल के टिकट पर चुनाव जीता जबकि गुलाम नबी आजाद ने 1980 और 1984 में महाराष्ट्र के वाशिम से सांसद बने थे.
मुफ्ती सईद की राजीव गांधी से मतभेद था. कश्मीर पर मुफ्ती मोहम्मद सईद खुद को केंद्र यानि नई दिल्ली के हितों का एक मजबूत समर्थक मानते थे और वो राजीव गांधी जिस तरह से फारूक अब्दुल्ला के नेशनल कॉन्फ्रेंस के गठबंधन में गए थे उसका विरोध करते थे. ऐसे में 1999 में मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कांग्रेस छोड़कर अपनी पार्टी बनाई तो केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार सत्ता में थी. साल 2002 में जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री बने.
वहीं, संजय गांधी की मृत्यु के बाद गुलाम नबी आजाद ने राजीव गांधी के साथ अपना तालमेल बना लिया था, लेकिन राहुल गांधी को अहमियत देते हुए जिस तरह से राजनीति में लाया गया. इसको लेकर उन्हें थोड़ी नाराजगी थी और खुद को राहुल गांधी की तुलना में पार्टी के हितों का ज्यादा मजबूत रक्षक माना. यही भावना राहुल गांधी के खिलाफ उभरकर अब सामने आई है. उन्होंने कांग्रेस की मौजूदा स्थिति के लिए राहुल गांधी को जिम्मेदार ठहराया और अब अपनी नई पार्टी बनाने की ऐलान कर दिया.
मुफ्ती सईद बनाम गुलाम नबी आजाद
हालांकि. मुफ्ती मोहम्मद सईद ज्यादा चतुर राजनेता थे और गुलाम नबी आजाद से बेहतर नई दिल्ली और कश्मीर दोनों को समझते थे. सईद ने आजाद से बेहतर तरीके यह महसूस किया था कि अपने सियासी वजूद को किसी खास सियासी पार्टी के साथ ही जोड़ कर ना रखा जाए. मुफ्ती मोहम्मद सईद कभी भीकांग्रेस से अटके नहीं रहे और चतुराई से अपने करियर को आगे बढ़ाने के लिए निष्ठा को बदल दिया.
मुफ्ती सईद एक ऐसे नेता बने रहने की कोशिश की जो कश्मीरी हैं, लेकिन नई दिल्ली के लिए भी अहम हैं, लेकिन आजाद को उस कसौटी पर खरा उतरना है. बीजेपी किसी ऐसे शख्स को घाटी में खोज रही है जो उसके लिए कारगर हो और जम्मू के भी मुस्लिम बहुत इलाके जैसे डोडा, रजौरी और पूंछ में पैठ मजबूत कर सके. डोडा के रहने वाले गुलाम नबी आजाद मुस्लिम भी हैं और वो बीजेपी के प्लान में फिट बैठते हैं. ऐसे में देखना है कि गुलाम नबी आजाद किस तरह से अपने आपको अब खड़ा करते हैं और किस दिशा में अपना कदम बढ़ाते हैं?