
तारीख थी 7 मार्च 1986. केंद्र की राजीव गांधी सरकार ने जम्मू-कश्मीर की गुलाम मोहम्मद शाह की सरकार को बर्खास्त कर दिया और राज्य में राज्यपाल शासन लगा दिया. आठ महीने बाद नवंबर 1986 में फारूख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस ने हाथ मिला लिया. मार्च 1987 में जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव हुए और उसके बाद घाटी में सबकुछ बदल गया.
1987 के विधानसभा चुनाव कश्मीर के लिए टर्निंग पॉइंट साबित हुए. इस चुनाव से पहले जमात-ए-इस्लामी और इत्तेहाद-उल-मुस्लमीन जैसी अलगाववादी पार्टियां एक हुईं और मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट नाम से नया गठबंधन बना, जिसने कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस के खिलाफ चुनाव लड़ा.
इस चुनाव में मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट की रैलियों में जमकर भीड़ आती थी. चुनाव में मुस्लिम फ्रंट की जीत लगभग तय मानी जा रही थी. लेकिन जब नतीजे आए तो हर कोई चौंक गया. आरोप लगे कि चुनाव में धांधली हुई और मुस्लिम फ्रंट के उम्मीदवारों को जीतने से रोका गया. हारे हुए उम्मीदवारों को जिता दिया गया और जीते हुए को हरा दिया गया. ये वही फ्रंट था जिससे उस वक्त मोहम्मद सलाहुद्दीन अपने असली नाम युसुफ शाह के नाम से लड़ा था, लेकिन हार गया. हालांकि, सैयद अली शाह गिलानी जीतने में कामयाब रहे थे. ये चुनाव इसलिए टर्निंग पॉइंट कहे जाते हैं क्योंकि इसके बाद कश्मीर में अलगाववाद और आतंकवाद की शुरुआत हुई. मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट की ओर से लड़े ज्यादातर उम्मीदवार बाद में आतंकवादी बन गए. सैयद सलाहुद्दीन हिज्बुल मुजाहिदीन का कमांडर बना, जो अब पाकिस्तान में रहता है.
1987 के चुनाव के बाद 1989 से घाटी में आतंकवाद का जन्म होना शुरू हुआ. 1990 का दौर आते-आते यहां आतंकवाद चरम पर था. गैर-मुस्लिमों खासकर कश्मीरी पंडितों को घाटी से भगाया जाने लगा. जो घाटी छोड़कर नहीं गए, उन्हें मार डाला गया. इन सब बातों का जिक्र अब इसलिए क्योंकि घाटी में एक बार फिर से 1990 जैसे हालात होने की बातें कही जा रही हैं.
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कुछ दिन पहले आतंकियों ने श्रीनगर के ईदगाह इलाके स्थित एक सरकारी स्कूल की प्रिंसिपल सुपिंदर कौर और वहां के टीचर दीपक चंद की गोली मारकर हत्या कर दी. दीपक के एक रिश्तेदार विक्की मेहरा ने कहा, 'कश्मीर हमारे लिए स्वर्ग नहीं, नरक है. घाटी में 1990 जैसे हालात हो रहे हैं. हिंदुओं को मारा जा रहा है. सरकार हमारी सुरक्षा करने में विफल रही है.'
गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि जम्मू-कश्मीर में 1990 से लेकर 2020 तक 31 सालों में 13 हजार 821 आम नागरिकों को आतंकियों ने मार दिया है. वहीं, सुरक्षाबलों ने अपने 5 हजार 359 जवान खोए हैं. इन्हीं 31 सालों में 25 हजार 133 आतंकी भी ढेर किए गए हैं.
एक कश्मीरी की मौत के बदले 6 आतंकी
पिछले साल यानी 2020 में आतंकियों ने 37 आम नागरिकों को मार डाला तो सेना ने 221 आतंकियों को ढेर कर दिया था. यानी, एक कश्मीरी की मौत के बदले औसतन 6 आतंकी. इससे पहले 2015 में भी आतंकियों ने 15 आम नागरिकों की हत्या कर दी थी तो सेना ने 10 गुना ज्यादा यानी 150 आतंकियों को मार गिराया था.
ये ट्रेंड 2008 से ही दिखाई देने लगा था. 2008 में 91 आम नागरिकों की मौत हुई तो सुरक्षाबलों ने 339 आतंकियों को मार दिया था. 2008 के बाद से ही कश्मीर में आतंकी घटनाओं में कमी आनी शुरू हुई. उससे पहले आतंकी घटनाओं की संख्या चार डिजिट में हुआ करती थी, लेकिन 2008 से तीन डिजिट में.
राजनीतिक अस्थिरता का खामियाजा!
मई 1996 में हुए लोकसभा चुनाव में किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला. नतीजा ये हुआ कि 1996 से मार्च 1998 तक देश में तीन प्रधानमंत्री आए. पहले थे अटल बिहारी वाजपेयी, फिर एचडी देवेगौड़ा और फिर इंद्र कुमार गुजराल. केंद्र में चल रही राजनीतिक अस्थिरता का खामियाजा कश्मीर में आम लोगों को भुगतना पड़ गया. 1996 में घाटी में आतंकियों ने 1 हजार 336 आम नागरिकों की जान ले ली.
1999 के चुनाव के बाद जब केंद्र में बीजेपी की सरकार आई और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने तो हालात थोड़े सुधरे. अटल के कार्यकाल में 4 हजार से ज्यादा आम नागरिकों की जान गई, लेकिन इसी दौरान 9 हजार से ज्यादा आतंकी भी मारे गए. वहीं, मनमोहन सरकार में करीब 2 हजार आम नागरिक मारे गए और 4 हजार से ज्यादा आतंकी ढेर हुए. जबकि, मोदी सरकार में 2020 तक 219 आम नागरिकों की जान गई और 1 हजार 216 आतंकी मारे गए.
अब वापस लौटते हैं 1987 के विधानसभा चुनावों की ओर. ये वो चुनाव थे जिसने कश्मीरियों के मन से लोकतंत्र खत्म कर दिया था. इस चुनाव में कश्मीरियों ने जमकर वोटिंग की थी. करीब 75 फीसदी वोट इस चुनाव में पड़े थे. लेकिन नतीजे आए तो हर कोई हैरान था. हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के नेता रहे अब्दुल गनी भट ने एक इंटरव्यू में कहा था, ‘1987 में कश्मीरी युवाओं ने बड़े उत्साह से भाग लिया था. लेकिन चुनाव नतीजों ने उन्हें गुस्से से भर दिया. इसलिए उन्होंने हिंसा का जवाब हिंसा से देने का फैसला किया.’
फरवरी 1994 में फारूख अब्दुल्ला ने इंडिया टुडे को एक इंटरव्यू दिया था. इस इंटरव्यू में जब उनसे 1987 के चुनावों में हुई धांधली को लेकर सवाल किया गया तो उन्होंने कहा, ‘क्या आप मानते हैं कि बाकी चुनावों में धांधली नहीं हुई? आप सब 87 के चुनाव को टर्निंग पॉइंट बताते हैं. कश्मीर में जो हुआ, उसका जिम्मेदार फारूख अब्दुल्ला नहीं, भारत है. वो हैं जिम्मेदार. मैं नहीं.’