
महाराष्ट्र में सियासी संग्राम का पटाक्षेप हो गया है. सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के बाद उद्धव ठाकरे ने बुधवार को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है. साल 2019 में बीजेपी को महाराष्ट्र की सत्ता में आने से रोकने के लिए शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी ने वैचारिक विरोधी होते हुए महा विकास अघाड़ी के रूप में सियासी प्रयोग किया गया था. उद्धव ठाकरे के सिर सीएम का ताज सजा था, लेकिन 31 महीने के बाद महा विकास अघाड़ी सरकार का अंत हो गया है. ऐसे में सवाल उठता है कि ढाई साल चली महा विकास अघाड़ी सरकार के सियासी प्रयोग में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी ने सियासी तौर पर क्या खोया और क्या पाया?
बता दें कि साल 2019 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना और बीजेपी साथ मिलकर चुनाव लड़े थे. एनडीए गठबंधन प्रचंड बहुमत के साथ जीतकर आई थी, लेकिन मुख्यमंत्री पद पर काबिज होने को लेकर शिवसेना और बीजेपी की 25 साल पुरानी दोस्ती टूट गई थी और शिवसेना ने एनसीपी-कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिया था. विचारधारा के दो विपरित छोर पर खड़ी पार्टियां सियासी मजबूरियों की वजह से साथ आईं और महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी गठबंधन बना.
वहीं, उद्धव ठाकरे का मुख्यमंत्री बनना महाराष्ट्र की राजनीति की ऐतिहासिक घटना थी, क्योंकि ठाकरे परिवार से संवैधानिक पद पर बैठने वाले वो पहले व्यक्ति बने थे. ऐसे में उद्धव ठाकरे ने कई उतार-चढ़ावों से गुजरते हुए ढाई साल पूरे किए, लेकिन एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना विधायकों की बगावत ने उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया और इसके साथ ही महा विकास अघाड़ी सरकार का अंत हो गया. ऐसे में शिवसेना ही नहीं कांग्रेस और एनसीपी को भी सियासी तौर पर बड़ झटका लगा है.
उद्धव ने सत्ता से चक्कर में सब कुछ गवां दिया
महाराष्ट्र में शिवसेना और बीजेपी 1984 में करीब आईं और 1989 में गठबंधन किया. हिंदुत्व के मुद्दे ने शिवसेना-बीजेपी को जोड़े रखा था, लेकिन सत्ता के सिंहासन ने दोनों दलों की राहें अलग करा दी. बीजेपी से नाता तोड़कर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री जरूर बन गए थे. महा विकास अघाड़ी के सियासी प्रयोग में सत्ता जरूर उद्धव को मिल गई थी. लेकिन उन्हें अपनी छवि से लेकर हिंदुत्व के विचारधारा तक का नुकसान उठाना पड़ा है. राज ठाकरे से लेकर शिवसेना से बगावत करने वाले एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे पर हिंदुत्व के एजेंडे से हटने का आरोप लगाया और कहा कि बाला साहेब ठाकरे के मूल उद्देश्यों से पार्टी भटक गई है.
उद्धव ठाकरे जब तक सत्ता में नहीं आए थे तब तक उनकी छवि बेदाग थी. उद्धव पर कभी किसी तरह के भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा था और सत्ता में रहते हुए उद्धव ने अपनी इमेज को तो बचाए रखा, लेकिन पार्टी की हिंदुत्व की छवि नहीं बचा सके. कांग्रेस-एनसीपी के साथ होने के चलते हिंदुत्व के मुद्दे पर समझौता करने के आरोप में ढाई साल तक सफाई देनी पड़ी. उद्धव ठाकरे और उनके परिवार को अयोध्या तक जाना पड़ा.
शिवसेना के भविष्य पर भी संकट
एकनाथ शिंद की बगावत से शिवसेना पूरी तरह से बिखर गई है और पहली बार ठाकरे परिवार को सियासी तौर पर चुनौती मिली है. 40 के करीब शिवसेना विधायक एकनाथ शिंदे के साथ हैं तो पार्टी के कई सांसद भी बागी हो चुके हैं. शिवसेना का राजनीतिक भविष्य पर संकट गहरा गया है. ऐसे में उद्धव ठाकरे के हाथ से संगठन पर से नियंत्रण खो देंगे? क्या शिवसेना बिना ठाकरे परिवार के चलेगी?
साल 1991 में दिग्गज चेहरे छगन भुजबल गए, 2005 में नारायण राणे गए, उद्धव के चचेरे भाई राज ठाकरे भी 2005 में अलग हो गए लेकिन ठाकरे का दबदबा कायम रहा, लेकिन शिंदे के सफल होने के बाद अब उद्धव की शिवसेना कमजोर पार्टी बनकर रह जाएगी.
यही वजह है कि उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद के साथ-साथ एमएलसी पद से भी इस्तीफे दे दिया और कहा कि अब से शिवसेना के दफ्तर में बैठूंगा और दोबारा से पार्टी को मजबूत करेंगा. इससे साफ जाहिर होता है कि उद्धव के सामने शिवसेना को बचाए रखने का संकट खड़ा हो गया है.
कांग्रेस को शिवसेना के साथ क्या मिला
महाराष्ट्र में कांग्रेस ने शिवसेना और एनसीपी के साथ मिलकर सत्ता में भागेदारी तो की, लेकिन सियासी तौर पर नुकसान ही उठाना पड़ा है. शिवसेना के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बनाना वक्त की जरुरत थी, लेकिन इसके बदले कांग्रेस को क्या मिला. कांग्रेस महाराष्ट्र की सत्ता में हमेशा बड़े भाई की भूमिका में रहा करती थी, लेकिन 2019 में बने महा विकास अघाड़ी में तीसरे नंबर की जूनियर पार्टनर की भूमिका में थी. कांग्रेस को शिवसेना के साथ गठबंधन के लिए वैचारिक रूप से समझौता करना पड़ा, जिसमें न तो उसे एनसीपी की तरह डिप्टी सीएम की पोस्ट मिली और न ही मलाईदार विभाग.
हालांकि, महाराष्ट्र ही एक बड़ा राज्य है, जहां सत्ता में कांग्रेस शामिल थी. महा विकास अघाड़ी के सत्ता से हटने से कांग्रेस फाइनैंशियल पावरहाउस कहे जाने वाले राज्य से एक्जीक्यूटिव कंट्रोल खो दी है. सत्ता से बाहर होने के बाद, कमजोर केंद्रीय नेतृत्व के चलते राजनीतिक रूप से कमजोर दिखने वाली कांग्रेस और भी खराब स्थिति में पहुंच सकती है. कांग्रेस पार्टी कभी पूरे देश में एकछत्र राज करती थी, 2014 के बाद से उसी पार्टी का ग्रॉफ लगातार नीचे जा रहा है.
2022 में कांग्रेस के हाथ से पंजाब भी फिसल गया. अब पार्टी की सिर्फ छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार बची है. तो वहीं महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी सरकार के गिरने से कांग्रेस के हाथ से एक और राज्य चला गया. तमिलनाडु और झारखंड में वो सहयोगी है. ऐसे में 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के लिए लिए ये एक बड़ा झटका है. कांग्रेस ने अपना सत्ता वाला एक राज्य और गंवा दिया है.
एनसीपी क्या महाराष्ट्र में मजबूत होगी
एमवीए सरकार गिरने के बाद केवल शरद पवार अपनी पार्टी एनसीपी को बेहतर स्थिति में रख सकते हैं. पार्टी के पास इतनी क्षमता है कि वह कांग्रेस के कमजोर होने से बने स्पेस को कवर कर सकेंगे. अभी यह कहना जल्दबाजी होगी लेकिन आगे चलकर अगर महाराष्ट्र में राजनीतिक सीन भाजपा बनाम एनसीपी बने तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. हालांकि, सत्ता से हटने का नुकसान भी एनसीपी को उठाना पड़ेगा.
उद्धव भले ही मुख्यमंत्री बन गए थे, लेकिन महा विकास अघाड़ी सरकार की चाबी शरद पवार ने अपने हाथों में ही रखी. उद्धव सरकार के मलाईदार मंत्रालय और गृह जैसा भारी भरकम विभाग भी एनसीपी ने अपने पास रखा. उद्धव ठाकरे अपने स्वास्थ्य की वजह से भी खुद को सीमित रखते हैं, लेकिन शरद पवार सक्रिय रहे. ऐसे में कई बार आरोप लगे कि शरद पवार रिमोट कन्ट्रोल से उद्धव सरकार को चला रहे हैं.
उद्धव ठाकरे के सत्ता से बेदखल होते ही एनसीपी भी सरकार से बाहर हो गई. पांच साल के बाद 2019 में उनकी पार्टी महाराष्ट्र की सत्ता में भागीदार बनी है और केंद्र की सरकार से आठ साल से एनसीपी बाहर है. मौजूदा समय में एनसीपी के दो बड़े नेता अलग-अलग मामलों में जेल में हैं, जिनमें से एक नवाब मलिक तो राज्य में मंत्री थे और दूसरे अनिल देशमुख हैं, जो उद्धव सरकार के गृहमंत्री थे. वहीं. एनसीपी नेता व राज्य के परिवहन मंत्री अनिल परब भी केंद्रीय जांच एजेंसियों के रडार पर है. ऐसी स्थिति में शरद पवार के लिए राजनीतिक चुनौतियां खड़ी हो जाएंगी. यही नहीं जांच एजेंसियों के घेरे में आए एनसीपी नेताओं की मुसीबतें और भी ज्यादा बढ़ सकती हैं.