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एक जगह ही हो समान नागरिक संहिता से जुड़ी याचिकाओं पर सुनवाई, SC में याचिका दाखिल

सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अर्जी में याचिकाकर्ता ने कहा है कि अभी भी अन्य हाईकोर्ट में इनसे संबंधित मामले आ सकते हैं. लिहाजा हाईकोर्ट्स में पेंडिंग केस सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर किए जाएं और इन मामलों से संबंधित कोई नया मामला स्वीकार ना किया जाए.

सुप्रीम कोर्ट (PTI) सुप्रीम कोर्ट (PTI)
संजय शर्मा
  • नई दिल्ली,
  • 11 अप्रैल 2021,
  • अपडेटेड 12:00 AM IST
  • बीजेपी नेता अश्विनी उपाध्याय ने दाखिल की याचिका
  • दिल्ली HC में पेंडिंग केस SC ट्रांसफर करने का अनुरोध
  • कोर्ट से अनुरोध, UCC पर और कोई याचिका न स्वीकारे

देश भर में एक समान नागरिक संहिता को लेकर विभिन्न हाइकोर्ट्स में लंबित याचिकाओं की एक साथ सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई करने के लिए याचिका दाखिल की गई है. ताकि विभिन्न धर्मों के मुताबिक अलग-अलग पर्सनल लॉ के तहत मान्य नियमों की जगह समान नागरिक नियम लागू करने को लेकर किस्तों में दाखिल याचिकाओं की सुनवाई एक साथ हो सके.

सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अर्जी में याचिकाकर्ता ने कहा है कि अभी भी अन्य हाईकोर्ट में इनसे संबंधित मामले आ सकते हैं. लिहाजा हाईकोर्ट्स में पेंडिंग केस सुप्रीम कोर्ट में ट्रांसफर किए जाएं और इन मामलों से संबंधित कोई नया मामला स्वीकार ना किया जाए.

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सुप्रीम कोर्ट में बीजेपी नेता और वकील अश्विनी उपाध्याय ने अपनी अर्जी में केंद्र सरकार को प्रतिवादी बनाया गया है. इस अर्जी में दिल्ली हाई कोर्ट में पेंडिंग मुकदमे सुप्रीम कोर्ट ट्रांसफर करने की अपील की गई है.

मई 2019 से नहीं हुई सुनवाई

दो साल पहले दिल्ली हाई कोर्ट ने 31 मई 2019 को यूनिफार्म (कॉमन) सिविल कोड के लिए ड्राफ्ट तैयार करने का निर्देश देने वाली याचिका पर केंद्र सरकार और लॉ कमीशन से जवाब तलब किया था. याचिका में कहा गया कि केंद्र सरकार संविधान के अनुच्छेद-44 (समान नागरिक आचार संहिता) की भावना के अनुरुप ड्राफ्ट तैयार करे. याचिका में गुहार लगाई गई है कि समान नागरिक आचार संहिता को क्रियान्वित किया जाए.

अदालत ने केंद्र सरकार के अलावा लॉ कमीशन को नोटिस जारी कर जवाब दाखिल करने को भी कहा है. मई 2019 से अब तक इस मामले की अगली सुनवाई ना होने से ये साफ नहीं हुआ है कि इन दोनों पक्षकारों ने जवाब दाखिल किया भी या नहीं. लिहाजा माना जा सकता है कि अभी हाईकोर्ट में केंद्र सरकार को अपना स्टैंड साफ करना है.

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इसी बीच अब सुप्रीम कोर्ट में भी याचिकाकर्ता ने अर्जी दाखिल कर कहा है कि मामला सुप्रीम कोर्ट ट्रांसफर किया जाए. याचिका में कहा गया है कि जेंडर समानता और जस्टिस तब तक नहीं जा सकता जब तक कि अनुच्छेद-44 को सच्चे और वास्तविक अर्थों में लागू न किया जाए.

याचिका में यूनिफर्म सिविल कोड लागू नहीं होने से सामने आने वाली कई समस्याओं का भी जिक्र है. मसलन, मुस्लिम पर्सनल लॉ में बहुविवाह अर्थात चार निकाह करने की छूट है लेकिन अन्य धर्मो में 'एक जीवनसाथी' का नियम बहुत सख्ती से लागू है. बांझपन, घातक संक्रामक रोग या नपुंसकता जैसे उचित कारण होने पर भी जीवन साथी के विवाह विच्छेद हुए बगैर हिंदू, ईसाई, पारसी के लिए दूसरा विवाह अपराध है. भारतीय दंड संहिता की धारा 494 में 7 वर्ष की सजा और अर्थ दंड का प्रावधान है. विवाह की न्यूनतम उम्र भी सबके लिए एक समान नहीं है.

मुस्लिम लड़कियों की व्यस्कता की उम्र तय नहीं

मुस्लिम लड़कियों की व्यस्कता की उम्र निर्धारित नहीं है. रजस्वला होते ही लड़की को निकाह योग्य मान लिया जाता है. इसलिए अक्सर 11-12 वर्ष की उम्र में भी लड़कियों का निकाह करवा दिया जाता है. जबकि अन्य धर्मो मे लड़कियों की विवाह की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष और लड़कों की विवाह की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष है. विवाह की न्यूनतम उम्र किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है बल्कि नागरिक और मानवीय अधिकारों से जुड़ा मुद्दा है. इसलिए यह पूर्णतः जेंडर न्यूट्रल और रिलीजन न्यूट्रल होना चाहिए.

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तीन तलाक अवैध घोषित होने के बावजूद तलाक-ए-हसन एवं तलाक-ए-बिद्दत आज भी मान्य है. और इनमें भी तलाक का आधार बताने की बाध्यता नहीं है. केवल 3 महीने इद्दत की प्रतीक्षा करना है. लेकिन अन्य धर्मों में केवल न्यायालय के माध्यम से ही विवाह-विच्छेद किया जा सकता है. मुस्लिम कानून में मौखिक वसीयत एवं दान मान्य है लेकिन अन्य धर्मों में केवल पंजीकृत वसीयत एवं दान ही मान्य है.

मुस्लिम कानून में 'उत्तराधिकार' की व्यवस्था अत्यधिक जटिल है. पैत्रिक सम्पत्ति में पुत्र एवं पुत्रियों के मध्य अत्यधिक भेदभाव है. अन्य कई धर्मों में भी विवाहोपरान्त अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं. उत्तराधिकार के कानून बहुत जटिल हैं. तलाक या विवाह विच्छेद का आधार भी सबके लिए एक समान नहीं है. व्यभिचार के आधार पर मुस्लिम अपनी बीवी को तलाक दे सकता है लेकिन बीवी अपने शौहर को तलाक नहीं दे सकती.

हिंदू, पारसी और ईसाई धर्म में तो व्यभिचार तलाक का ग्राउंड ही नहीं है. कोढ़ जैसी लाइलाज संक्रामक बीमारी के आधार पर हिंदू और ईसाई धर्म में तलाक हो सकता है.  लेकिन पारसी और मुस्लिम धर्म में नहीं. संतान गोद लेने के नियम भी हिंदू मुस्लिम पारसी ईसाई के लिए अलग-अलग है. मुस्लिम गोद नहीं ले सकता और अन्य धर्मों में भी पुरुष प्रधानता के साथ गोद व्यवस्था लागू है.

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कोड को लेकर ड्राफ्ट तैयार कराने का अनुरोध

याचिकाकर्ता ने कहा कि यूनिफर्म सिविल कोड लागू होने से कई लाभ हैं. देश और समाज को सैकड़ों जटिल कानूनों से मुक्ति मिलेगी. वर्तमान समय में अलग-अलग धर्म के लिए लागू अलग-अलग ब्रिटिश कानूनों से सबके मन में हीन भावना पैदा होती है इसलिए सभी नागरिकों के लिए एक 'भारतीय नागरिक संहिता' लागू होने से सबको हीन भावना से मुक्ति मिलेगी. न्यायालय के माध्यम से विवाह-विच्छेद करने का एक सामान्य नियम सबके लिए लागू होगा. पैतृक संपत्ति में पुत्र-पुत्री तथा बेटा-बहू को एक समान अधिकार प्राप्त होगा और संपत्ति को लेकर धर्म जाति क्षेत्र और लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी.

विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जित संपति में पति-पत्नी को समान अधिकार होगा. राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र एवं एकीकृत कानून मिल सकेगा. अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग कानून होने के कारण अनावश्यक मुकदमेबाजी में उलझना पड़ता है.

सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अर्जी में कहा गया है कि दिल्ली हाई कोर्ट में पेंडिंग केस सुप्रीम कोर्ट ट्रांसफर किया जाए. अनुच्छेद-14, 15, 21 के आलोक में अनुच्छेद-44 के भावना के अनुसार यूनिफर्म सिविल कोड ड्राफ्ट किया जाए. केंद्र सरकार को कहा जाए कि वह एक जूडिशियल कमीशन या फिर हाई लेवल की एक्सपर्ट कमिटी का गठन करे जो यूनिफर्म सिविल कोड को लेकर ड्राफ्ट तैयार करे. इसके लिए तीन महीने का वक्त दिया जाए. ये ड्राफ्ट आर्टिकल-44 (समान नागरिक आचार संहिता) के भावनाओं के अनुरुप हो. संविधान अनुच्छेद-14 में समानता की बात करता है जबकि अनुच्छेद-15 में कहा गया है कि जाति, धर्म व लिंग आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा. अनुच्छेद-21 जीवन और स्वच्छंदता की बात करता है.

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