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'90 घंटे काम' वाली बहस के बीच जानें वर्कआवर का इतिहास, अमीर और गरीब देशों में दिखता है बड़ा अंतर

लार्सन एंड टुब्रो (L&T) के चेयरमैन एस.एन. सुब्रमण्यन के 90 घंटे काम वाले बयान ने इस बहस को जन्म दिया कि 'ज्यादा घंटे' तक काम करने में समझदारी है या 'स्मार्ट वर्क' करने में. इस बहस के बीच आइए जानते हैं दुनियाभर के इंसानों में टाइम स्पेंड का पैटर्न कैसा है, वे अपने रोज के एक-एक मिनट का इस्तेमाल किस तरीके से और क्या करने में करते हैं?

दुनिया के अलग-अलग देशों में लोगों का टाइम स्पेंड बिहेवियर भी अलग-अलग है. अमीर और गरीब देशों में इसमें बड़ा अंतर दिखता है. (आजतक ग्राफिक्स टीम) दुनिया के अलग-अलग देशों में लोगों का टाइम स्पेंड बिहेवियर भी अलग-अलग है. अमीर और गरीब देशों में इसमें बड़ा अंतर दिखता है. (आजतक ग्राफिक्स टीम)
संदीप कुमार सिंह
  • नई दिल्ली,
  • 15 जनवरी 2025,
  • अपडेटेड 11:17 AM IST

भारत की सबसे बड़ी कंस्ट्रक्शन कंपनी लार्सन एंड टुब्रो (L&T) के चेयरमैन एस.एन. सुब्रमण्यन ने बीते दिनों अपने कर्मचारियों को रविवार सहित 90 घंटे काम करने की सलाह दी थी. उनके बयान ने इस बहस को जन्म दिया कि 'ज्यादा घंटे' तक काम करने में समझदारी है या 'स्मार्ट वर्क' करने में. एस.एन सुब्रमण्यन का बयान को लेकर सोशल मीडिया पर मीम्स बन रहे हैं. वहीं बिजनेस वर्ल्ड से भी मिली जुली प्रतिक्रिया सामने आ रही है. महिंद्र ग्रुप के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने 'सप्ताह में 90 घंटे काम' के मुद्दे पर कहा कि वह 'क्वांटिटी ऑफ वर्क' की जगह 'क्वालिटी ऑफ वर्क' में विश्वास रखते हैं. 

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आईटीसी के चेयरमैन संजीव पुरी ने फ्लेक्सिबल वर्क कल्चर की वकालत करते हुए कहा, 'कर्मचारियों के काम के घंटों को लेकर नियम बनाने की जगह कोशिश ये होनी चाहिए कि वे जोश और उत्साह के साथ कंपनी की जर्नी का हिस्सा बनें और बदलाव लाने की कोशिश करें.' इससे पहले इंफोसिस के को-फाउंडर एन.आर नारायण मूर्ति ने हफ्ते में 70 घंटे काम करने की सलाह दी थी, जिसे लेकर उन्हें भी सोशल मीडिया पर काफी आलोचना का सामना करना पड़ा था. क्या आपको पता है कि दुनियाभर के इंसानों में टाइम स्पेंड का पैटर्न कैसा है, वे अपने रोज के एक-एक मिनट का इस्तेमाल किस तरीके से और क्या करने में करते हैं? इस बारे में कई शोध हुए हैं और उनमें काफी रोचक आंकड़े सामने आए हैं.

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दुनिया के देशों में टाइम स्पेंड पैटर्न अलग-अलग

दुनिया में हर इंसान एक दूसरे से जुदा है, हर देश का क्लाइमेट अलग है, टाइम जोन अलग है. भौगोलिक स्थितियां अलग हैं. लाइफस्टाइल भी अलग-अलग है. लेकिन दुनिया के सभी लोगों में एक चीज जो कॉमन है, वह है टाइम. धरती पर मौजूद हर इंसान के पास दिन के 24 घंटे यानी 1440 मिनट, साल के 365 दिन यानी 8,760 घंटे ही होते हैं. लेकिन इस समय को इस्तेमाल करने की आदतें अलग-अलग हैं? आधुनिक नौकरियों ने इंसानों की रोज की लाइफस्टाइल पर काफी फर्क डाला है. आज बिजी वर्किंग आवर वाली कई नौकरियों में 14-15 घंटे तक लोग दफ्तरों में बिताते हैं. उपलब्ध रिसर्च डेटा के अनुसार, 19वीं शताब्दी तक इंसानों के लिए कोई तय वर्किंग आवर नहीं होता था.

19वीं शताब्दी में औद्योगिकीकरण के बाद वर्किंग आवर सप्ताह में 150 घंटे तक बढ़ गया. फिर जैसे-जैसे आर्थिक संपन्नता आई, मानवाधिकार को लेकर लोगों के बीच अवेयरनेस आई, तो काम के तय घंटे भी घटते गए. साल 1870 में जहां अमेरिका में सालाना वर्किंग आवर 3000 घंटे तक था यानी हर हफ्ते 60 से 70 घंटे, जो कि आज घटकर 1700 घंटे तक आ गया है. यानी 5-डे वीकली सिस्टम से रोजाना औसतन 7 से 8 घंटे काम. इकोनॉमिक हिस्टोरियन माइकल ह्यूबरमैन और क्रिस मिन्स की रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार, 1870 की तुलना में आज जर्मनी में वर्किंग आवर 60 फीसदी तक घटा है. ब्रिटेन में 40 फीसदी घटा है. लेबर लॉ में बदलावों के पहले लोग जनवरी माह से जुलाई माह के बीच ही इतने घंटे काम कर लेते थे, जितने घंटे आज पूरे साल में लोग करते हैं. हालांकि, इसमें भी अलग-अलग देशों में फर्क है. ज्यादा औद्योगिकरण वाले देशों में लेबर लॉ में बड़े बदलाव हुए हैं और वहां वर्किंग आवर ज्यादा घटा है, जबकि गरीब देशों में अब भी कम बदलाव हुआ है. अमीर देशों में वर्किंग आवर रोज 6 घंटे तक और हफ्ते में 4 दिन के वर्किंग दिन तक तय हो गए हैं.

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विकासशील देशों में लोग करते हैं ज्यादा घंटे काम

वहीं भारत और चीन समेत अन्य विकासशील देशों में भी फॉर्मल सेक्टर (पंजीकृत होते हैं और सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त) में काम के घंटे तय हैं. लेकिन आबादी ज्यादा होने की वजह से भारत और चीन में इन्फॉर्मल सेक्टर (औपचारिक रूप से पंजीकृत नहीं, लेकिन इसका बाजार मूल्य है) का आकार बहुत बड़ा है, जहां काम के घंटे को लेकर कोई तय मापदंड नहीं है. इस सेक्टर में काम करने वालों को तय मानकों से ज्यादा समय देना पड़ता है, कड़ी मेहनत करनी पड़ती है. इसके साथ ही लेबर लॉ लागू होने के बाद कर्मचारियों के लिए बढ़ीं छुट्टियों ने भी टाइम स्पेंड में बदलाव किया है. 

औसतन दुनिया में कर्मचारियों को साल में 240 दिन काम करना पड़ता है और साप्ताहिक अवकाश और बाकी छुट्टियां मिलाकर 120 दिन आराम के लिए मिलती हैं. इससे लाइफस्टाइल में भी काफी बदलाव आया है. पिछले कुछ सालों में भारत में महिलाओं के लिए 6 महीने की प्रेग्नेंसी लीव मंजूर हुई है, जिसे बढ़ाकर 8 महीने करने पर भी सरकार मंथन कर रही है. सरकारी नौकरी वाली महिलाओं के लिए 2 साल की फैमिली लीव ने भी काम और परिवार के बीच संतुलन बनाने के मौके बढ़ाए हैं. इसी तरह यूएई में कामगारों के लिए 30 से लेकर 100 दिन की छुट्टियों का सालाना प्रावधान किया गया है. 

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कौन से फैक्टर कैसे तय करते हैं टाइम स्पेंड?

दुनिया भर के इंसानों में समय को लेकर कुछ आदतें तो एक समान हैं. जैसे- हम सभी रोज सोते हैं, काम करते हैं, खाना खाते हैं और फुर्सत के पल बिताते हैं. लेकिन इन एकसमान आदतों के अलावा रोज के हमारे वक्त का एक बड़ा हिस्सा है, जो हर इंसान अलग-अलग तरीके से बिताता है. इन आदतों को तय करने वाले फैक्टर इंसानों की सहूलियत के अनुसार अलग-अलग हो सकते हैं. आइए जानते हैं ऐसे कौन से फैक्टर हैं जो इंसानों के टाइम स्पेंड को तय करते हैं...

1. जेंडर गैप 

इंसानों की आदतों पर असर डालने वाले कई फैक्टर हैं- जैसे देशों के अपने हालात, आर्थिक स्थितियां इत्यादि. एक अहम फैक्टर है जेंडर गैप जो अलग-अलग देशों में लोगों की आदतों को तय करता है. जैसे अधिकांश देशों में पुरूषों के पास फुर्सत का समय ज्यादा होता है. Ourworldindata की रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार- दुनिया में नॉर्वे में पुरूषों और महिलाओं के पास फुर्सत वाले टाइम में सबसे कम गैप है. वहां पुरूषों के पास रोज 370 मिनट फुर्सत वाले हैं. वहीं महिलाओं के पास भी 360 मिनट से ऊपर का समय उपलब्ध है. वहीं यूरोप के ही दूसरे देश पुर्तगाल में यह अंतर 50 फीसदी से अधिक का है. वहां पुरूषों के पास जहां औसत फुर्सत का पल 280 मिनट है तो महिलाओं के पास 200 मिनट है. भारत जैसे एशियाई देशों के लिए ये आंकड़ा काफी अलग है. पुरूषों के लिए एशियाई देशों में जहां फुर्सत का पल या लेजर टाइम रोजाना 280 मिनट का है तो वहीं महिलाओं के लिए ये 240 मिनट का है. इंसान के पास ज्यादा वक्त का मतलब है कि वह अपने शारीरिक देखभाल, फिटनेस, मानसिक स्वास्थ्य आदि पर ज्यादा फोकस रख सकता है. इसका उसकी जीवनशैली और हैपीनेस पर असर पड़ता है.

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2. एज फैक्टर 

टाइम स्पेंड का दूसरा बड़ा फैक्टर सामने आया एज फैक्टर के रूप में. इंसान की उम्र जैसे जैसे बढ़ती है वह ज्यादा सामाजिक होता चला जाता है यानी ज्यादा लोगों से मिलने-जुलने लगता है, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों से जुड़ने लगता है. उसकी टाइम स्पेंड हैबिट एकदम बदलने लगती है. आज डिजिटल होती दुनिया में युवा आबादी के समय का एक बड़ा हिस्सा डिजिटल स्पेस पर और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर बीत रहा है. फोर्ब्स मैग्जीन के अनुसार, जेनरेशन Z यानी 16 से 24 साल की उम्र वाली युवा आबादी रोजाना औसतन सोशल नेटवर्क पर 3 घंटे 11 मिनट बिताती है. जबकि मध्यम उम्र के पुरूष 2 घंटे 40 मिनट, वहीं अधिक उम्र के यानी 55 साल के ऊपर के लोगों में सोशल मीडिया को लेकर उतनी ज्यादा रुचि देखने को नहीं मिलती. उनकी सोशल लाइफ ज्यादा होती है. 

एक सर्वे रिपोर्ट के अनुसार, युवावस्था के बाद 30 साल से आगे जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है वैसे-वैसे इंसान सहकर्मियों और दोस्तों की जगह परिवार, लाइफ पार्टनर और बच्चों के साथ ज्यादा समय बिताने लगता है. 60 साल की उम्र पार करने के बाद सहकर्मियों के साथ इंसान कम समय बिताने लगता है. रिटायरमेंट लाइफ के बाद वह परिवार के साथ ज्यादा सामाजिक होने लगता है. 40 साल की उम्र के बाद इंसान अकेले में भी ज्यादा वक्त बिताने लगता है. उसकी आदतें एकांत में रहने वाली होने लगती हैं, वह स्वास्थ्य पर ज्यादा ध्यान देने लगता है और इसी के साथ उसकी रोजाना की आदतें भी बदलने लगती हैं.

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दुनिया के देशों में स्लीप साइकिल अलग-अलग

आम तौर पर हम अपनी दिनचर्या को तीन हिस्सों में बांटते हैं- काम, आराम और मनोरंजन. रोज हमारे पास 24 घंटे यानी 1440 मिनट होते हैं. इंसान रोजाना अपने समय का एक बड़ा हिस्सा सोने में बिताता है. अलग-अलग देशों के लोगों के सोने की आदतें भी काफी अलग-अलग हैं. जैसे साउथ कोरिया के लोग रोज औसतन 7 घंटे 51 मिनट सोते हैं. वहीं अमेरिका और भारत के लोगों की स्लीप साइकिल अलग है. यहां लोग औसत से 1 घंटे ज्यादा सोते हैं. यानी 7 से 8 घंटे. 

काम के घंटे, खाने की टाइमिंग भी अलग-अलग 

काम के घंटे भी अलग-अलग देशों में काफी अलग-अलग हैं. उदाहरण के लिए चीन और मैक्सिको के लोगों का रोज का वर्क आवर इटली और फ्रांस के लोगों की तुलना में लगभग दोगुना है. यानी एक तरफ 6 घंटे तो दूसरी ओर 12 घंटे औसतन. इन देशों के बीच सांस्कृतिक कारणों से भी टाइम स्पेंड में फर्क है. जैसे फ्रेंच लोग ब्रिटिश लोगों की अपेक्षा खाने पर अधिक समय बिताते हैं. फ्रांस, ग्रीस, इटली, स्पेन जैसे देशों का फूड कल्चर ऐसा है कि लोग ज्यादा समय डाइनिंग टेबल पर बिताते हैं, जबकि अमेरिका के लोग सबसे कम औसतन 63 मिनट रोजाना खाने की टेबल पर बिताते हैं. खेल इवेंट, कंप्यूटर गेम्स और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी इंसानों के समय बिताने के आंकड़े काफी अलग-अलग हैं. खास कर अमीर देशों में जहां लोग एक्स्ट्रा एक्टिविटीज में ज्यादा समय बिताते हैं. वहीं गरीब और विकासशील देशों में लोग पेड और सेकेंड जॉब पर ज्यादा समय देते हैं और फुर्सत के पल कम हासिल कर पाते हैं.

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