
जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने का विवाद चार साल बाद भी नहीं थमा है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ सुनवाई कर रही है. कोर्ट के सामने जम्मू कश्मीर के इतिहास के पन्ने पलटे जा रहे हैं. विशेष राज्य का दर्जा हासिल करने के लिए दावे से लेकर दलीलों तक पेश की जा रही हैं. सरकार के फैसले को एकतरफा बताया जा रहा है. जनभावना को ध्यान में नहीं रखने का तर्क भी दिया जा रहा है. जानिए दिग्गज वकीलों ने अब तक की सुनवाई के दौरान क्या 20 बड़ी दलीलें कोर्ट में रखी हैं...
बता दें कि केंद्र सरकार ने 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद-370 के प्रावधानों में बदलाव कर जम्मू-कश्मीर के स्पेशल स्टेटस (विशेष राय) को खत्म कर दिया था. उसके बाद से जम्मू-कश्मीर अब देश के बाकी राज्यों जैसा हो गया है. पहले केंद्र सरकार का कोई भी कानून यहां लागू नहीं होता था, लेकिन अब यहां केंद्र के कानून भी लागू होते हैं. साथ ही जम्मू-कश्मीर में कई समुदायों को कई सारे अधिकार भी नहीं थे, लेकिन अब सारे अधिकार भी मिलते हैं. जम्मू-कश्मीर अब केंद्र शासित प्रदेश हैं. सरकार का कहना है कि सही समय आने पर जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दे दिया जाएगा. केंद्र ने जम्मू कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों जम्मू और कश्मीर और लद्दाख में विभाजित किया है.
कुल 23 याचिकाएं.. अलग-अलग वकील कर रहे हैं पैरवी
केंद्र सरकार के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दाखिल की गई हैं. अक्टूबर 2020 से पांच जजों की संविधान पीठ सुनवाई कर रही है. इसमें सीजेआई के अलावा जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत हैं. याचिका कर्ता नेशनल कॉन्फ्रेंस के सांसद अकबर लोन की ओर से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल, मुजफ्फर इकबाल खान की ओर से वरिष्ठ वकील गोपाल सुब्रमण्यम, रिफत आरा की ओर से दुष्यंत दवे और जम्मू-कश्मीर पीपल्स कॉन्फ्रेंस (JKPC) की तरफ से वरिष्ठ वकील राजीव धवन, जम्मू कश्मीर बार एसोसिएशन की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता जफर अहमद शाह पैरवी कर रहे हैं.
कपिल सिब्बल ने क्या बड़ी दलीलें कोर्ट में पेश की...
1- 5 अगस्त, 2019 को जब अनुच्छेद 370 को निरस्त किया गया, तब किसी से रायशुमारी नहीं की गई. संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करना ब्रेक्जिट की तरह ही एक राजनीतिक कदम था. इस पर CJI ने कहा, ब्रेक्जिट जैसे जनमत संग्रह का कोई सवाल ही नहीं है. संवैधानिक लोकतंत्र में लोगों की राय जानने का काम स्थापित संस्थाओं के जरिए किया जाना चाहिए.
2- सिब्बल ने कहा, संसद ने जम्मू-कश्मीर पर लागू संविधान के प्रावधान को एकतरफा बदलने के लिए अधिनियम को अपनी मंजूरी दे दी. सबसे बड़ा सवाल है कि इस अदालत को ये तय करना होगा कि क्या भारत सरकार ऐसा कर सकती है. सिर्फ संविधान सभा को आर्टिकल 370 को निरस्त करने या संशोधित करने की सिफारिश करने की शक्ति निहित थी. चूंकि संविधान सभा का कार्यकाल 1957 में खत्म हो गया था, इसलिए जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले संवैधानिक प्रावधान को स्थायी मान लिया गया.
3- 370 को हटाने के लिए राज्य को कानून पारित करना होगा. भारत सरकार इसे नहीं हटा सकती. यहां विरोध की बात लागू नहीं होती. इसी स्थिति को स्वीकार किया गया था और इस तरह 370 अस्तित्व में आया. लेकिन बाद में 370 को अचानक हटा दिया गया. अचानक संसद में सरकार ने कहा कि हम यह कर रहे हैं. इस बात की जानकारी किसी को नहीं थी. कोई परामर्श नहीं हुआ. राज्य के राज्यपाल और संसद ने एक सुबह ऐसा करने का फैसला किया और 370 को खारिज कर दिया गया.
- इस पर सीजेआई ने कहा, अनुच्छेद 370 कहता है कि इसे खत्म किया जा सकता है. सिब्बल ने कहा, 370 को हटाना तो दूर, आप इसमें बदलाव तक नहीं कर सकते हैं.
- जस्टिस बीआर गबई ने पूछा- जब तक पूरी जम्मू-कश्मीर की आबादी के विचार को ध्यान में नहीं रखा जाता, तब तक निरस्तीकरण नहीं किया जा सकता? सीजेआई ने भी पूछा- हम मूल ढांचे से अलग एक नई कैटेगरी बना रहे हैं और आर्टिकल 370 उसी के अंतर्गत आता है?
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सीनियर एडवोकेट दुष्यंत दवे ने क्या तर्क दिए...
4- 1960 के द बेरुबारी यूनियन के मुकदमे में दिए फैसले को आधार बनाते हुए तर्क दिया और कहा- अनुच्छेद 3 के जरिए मिली शक्ति के प्रयोग से हर चीज को खत्म करने के लिए राष्ट्रपति शासन का उपयोग करना संवैधानिक सुरक्षा उपायों का मजाक है. अनुच्छेद 370 हमेशा से अस्थायी होने के लिए डिजाइन किया गया था. ना कि भारतीय प्रभुत्व के नजरिए से. वो जम्मू कश्मीर के नजरिए से अस्थायी था. अनुच्छेद 370 को केवल संविधान सभा द्वारा हटाया जा सकता था. इसी कारण इसे अस्थायी कहा गया. इसके स्थायित्व का निर्णय करना अंततः जम्मू-कश्मीर के लोगों के हाथ में था.
5- 1957 में संविधान सभा भंग हो गई. संविधान सभा का निर्माण और समापन एक बार की प्रक्रिया थी, जिसे बार-बार दोहराया नहीं जा सकता. संवैधानिक शक्तियों का इस्तेमाल राजनीतिक उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए नहीं किया जा सकता. 2019 में सत्तारूढ़ पार्टी ने अपने घोषणापत्र में कहा था- संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त किया जाएगा. सत्ता के दुरुपयोग का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा? यह संविधान के साथ धोखाधड़ी है. चुनावी एजेंडे के लिए अपने घोषणा पत्र को संतुष्ट करना ही एकमात्र एजेंडा है.
6- इस विवाद पर कोर्ट को एक नाजुक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए. केंद्र सरकार ने उल्लेख किया है कि 370 को रद्द करना राष्ट्र हित में किया गया था, लेकिन जवाबी हलफनामे में यह उल्लेख नहीं है कि राष्ट्र हित क्या है. आज यह मान लेते हैं कि यह फैसला राष्ट्र हित में है. कल सत्तासीन कोई अन्य पार्टी ऐसा फैसला लेने की कोशिश कर सकती है, जो राष्ट्र हित में नहीं है. अगर जम्मू कश्मीर में ऐसा किया जा सकता है तो गुजरात या महाराष्ट्र में क्यों नहीं किया जा सकता.
7- सरकार को इस तरह की शक्ति देना कानून की नजर में विनाशकारी हो सकती है. यहां विद्रोह है. इससे कोई इनकार नहीं कर सकता. पूर्वोत्तर के कई राज्यों में विद्रोह की स्थिति है. पंजाब में लंबे समय से विद्रोह है.
8- जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा के पास ही अनुच्छेद 370 को पूरी तरह से निरस्त करने की शक्ति थी. अनुच्छेद 370 शायद संवैधानिक निर्माताओं की ओर से सबसे शानदार अभिव्यक्ति है. आप ऐसे समय में हैं जब कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग उठ रही है. आप ऐसे समय में हैं जब हमलावर सादे कपड़ों में छापा मार रहे हैं और छीनने की कोशिश कर रहे हैं.
9- आप किसी प्रकार की कार्यकारी शक्ति का सहारा नहीं ले सकते, राष्ट्रपति को ऐसा करने के लिए अधिकृत नहीं कर सकते. 356 शक्ति की आड़ में अनुच्छेद 3 द्वारा प्रदान की जाने वाली हर चीज को खत्म नहीं कर सकते. यह संवैधानिक सुरक्षा उपायों का मखौल उड़ाता है. हम जानते हैं कि बहुमत क्या कर सकता है. हम सभी ने देखा कि 1975 में क्या हुआ था. यदि वे इसे अक्षरशः नहीं करते हैं तो लॉर्ड इसे खत्म कर सकते हैं और आपको करना ही होगा.
- इस पर सीजेआई ने कहा, अगर संविधान सभा के खत्म होने के बाद 370 ने अपना उद्देश्य पूरा कर लिया है तो संवैधानिक आदेशों को 1957 के बाद क्यों लागू किया गया? लेकिन यह फैक्ट कि 370 ने अपना उद्देश्य पूरा किया, उसके बाद लागू किए गए संवैधानिक आदेशों से झुठलाया गया, इसलिए 370 अस्तित्व में बना रहा.
- सीजेआई ने आगे कहा, संवैधानिक संशोधन होते रहे और होते रहे 2019 तक. यदि आप कह रहे हैं कि 370(1) का अस्तित्व बना रहेगा तो आप यह नहीं कह सकते कि 370(3) का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा या तो सब कुछ एक साथ रहेगा या सब कुछ एक साथ नष्ट हो जाएगा. हम 64 वर्षों से चली आ रही एक प्रथा के बारे में बात कर रहे हैं.
सीनियर एडवोकेट गोपाल सुब्रमण्यम कोर्ट में क्या बोले...
9- जम्मू कश्मीर संविधान में संशोधन करने की शक्ति सिर्फ उस निकाय के पास हो सकती है जिसे संविधान सभा ने बनाया हो. भारतीय संविधान के सभी प्रावधान जम्मू-कश्मीर पर लागू होते हैं जो नहीं हो पाए. ये 69 साल में संविधान सभा या जम्मू-कश्मीर सरकार द्वारा नहीं किए गए थे. जस्टिस संजीव खन्ना ने कहा, जम्मू-कश्मीर में भारतीय संविधान को अपवादों और संशोधनों के साथ अपनाया गया था. आप इसे जम्मू-कश्मीर का संविधान कह सकते हैं लेकिन जो अपनाया गया, वह भारतीय संविधान था.
10- सुब्रमण्यम ने कहा, विलय के समय जम्मू-कश्मीर किसी अन्य राज्य की तरह नहीं था. उसका अपना संविधान था. हमारे संविधान में विधानसभा और संविधान सभा दोनों को मान्यता दी गई है. मूल ढांचा दोनों के संविधान से निकाला जाएगा. डॉ. अंबेडकर ने संविधान के संघीय होने और राज्यों को विशेष अधिकार की बात कही थी.
11- राष्ट्रपति के पास अनियंत्रित अधिकार नहीं हैं. अनुच्छेद 370 के खंड 1 के तहत शक्ति का उद्देश्य आपसी समझ पर आधारित है. जम्मू-कश्मीर और भारत के बीच यह व्यवस्था संघवाद का एक समझौता थी. संघवाद एक अलग तरह का सामाजिक अनुबंध है. इसे निरस्त नहीं किया जा सकता है.
12- जम्मू-कश्मीर का संविधान वहां के लोगों के लिए है. यह एक संविधान है, इसे एक संविधान सभा ने बनाया था. संविधान में संशोधन करने की शक्ति सिर्फ उस निकाय के पास हो सकती है जिसे संविधान सभा ने बनाया हो. यही नियम कहता है.
वकील जफर शाह ने क्या कहा...
13- अगर हमें अनुच्छेद 370 नहीं चाहिए तो हमें यह देखना होगा कि क्या यह अस्थायी था या स्थायी हो गया. इसे हटाने के लिए मशीनरी मौजूद नहीं थी. आज 370 की व्याख्या इस आधार पर करने की जरूरत है कि इसका मकसद क्या है? इस पर जस्टिस कौल ने पूछा- अगर उस मशीनरी को दोबारा बनाया जाए तो क्या 370 हटाया जा सकता है?
14- जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने जब भारत के साथ संधि की तो उन्होंने रक्षा, संचार और विदेश मामलों के अलावा बाकी शक्तियां अपने पास रखी थीं. इसमें कानून बनाने की शक्ति भी शामिल है. वह दो देशों के बीच संधि थी. यह एक विशेष रिलेशनशिप है. महाराजा चाहते तो पूरी तरह जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
आर्टिकल 370 हटाने के 4 साल बाद, अब...
राजीव धवन ने क्या कहा...
15- जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटते समय संविधान के अनुच्छेद 239ए का पालन नहीं किया गया. अनुच्छेद 239ए कहता है कि कुछ केंद्र शासित प्रदेशों के लिए स्थानीय विधानसभाओं या मंत्रिपरिषद या दोनों के निर्माण की शक्ति संसद के पास है. आईओए पर हस्ताक्षर करने के बाद भी महाराजा ने अपने अधिकार और संप्रभुता नहीं छोड़ी थी.
16- J-K के महाराजा ने सिर्फ यह घोषणा की कि राज्य भारत के प्रभुत्व का एक अभिन्न अंग था. अनुच्छेद 370 ने गतिरोध और विलय समझौते का स्थान ले लिया. अनुच्छेद 370 विलय समझौते के विकल्प के रूप में संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है. इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता है.
17- संविधान के अनुच्छेद तीन और चार के तहत एक अनिवार्य शर्त है. इसके तहत मामले को राष्ट्रपति को राज्य विधायिका के पास भेजना पड़ता है. ऐसे में जब राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू था तो राज्य का पुनर्गठन नहीं हो सकता था. राष्ट्रपति के लिए विधायिका को संदर्भित करना अनिवार्य है. अनुच्छेद 3 को लागू करने से पहले यह एक शर्त है. यह 356 के तहत उद्घोषणा के तहत नहीं किया जा सकता है. यह एक संवैधानिक संशोधन है जो संविधान का ही विध्वंसक है. यदि यह निलंबन विफल हो जाता है तो राष्ट्रपति शासन विफल हो जाएगा. आपने संविधान में संशोधन किया है.
आर्टिकल-370 पर सुनवाई, शाह फैसल और शेहला राशिद ने याचिका वापस ली
इन वकीलों ने भी कोर्ट में रखा पक्ष
18- वकील शेखर नाफडे ने दलील दी कि बदलाव के साथ ही वहां सब कुछ उलट-पुलट हो गया है. संवैधानिक ढांचे पर इसका प्रभाव कई आयाम में होगा.
19- वरिष्ठ वकील दिनेश द्विवेदी ने कहा, एक राज्य को एक केंद्र शासित प्रदेश में नहीं बदला जा सकता है. अनुच्छेद 1 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को समान संवैधानिक दर्जा प्रदान नहीं करता है. यह संविधान के संघीय ढांचे का एक हिस्सा था. जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश में बदलने से इसकी संवैधानिक स्थिति कमतर हो गई है. यह स्वीकार्य नहीं है. यह संघवाद और दोहरी राजनीति के सिद्धांत का उल्लंघन भी है.
20- वकील रिफत आरा भट्ट ने कहा, जम्मू कश्मीर में स्थानीय पार्टी के सहयोग से आपकी सरकार है. यह बेहतर काम कर रही है. आपने अचानक सरकार से समर्थन वापस ले लिया. फिर केंद्र सरकार राष्ट्रपति को अनुच्छेद 356 आदेश जारी करने के लिए राजी करते हैं. फिर राष्ट्रपति को विधानसभा का प्रस्ताव जारी करने के लिए राजी किया जाता है. सत्ता के दुरुपयोग का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा? संसद कार्यकारी और विधायी कामकाज पर संसद का नियंत्रण है. फिर आप कहते हैं कि राष्ट्रपति सभी शक्तियों का इस्तेमाल करेंगे.