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आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से चलने वाले ‘डीप फेक्स’ होंगे चीनी प्रोपेगेंडा के अगले बड़े औजार: अमेरिकी स्टडी

स्टडी में कहा गया है कि पश्चिमी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अब तक चीनी दुष्प्रचार अभियान बेअसर है क्योंकि इसके अमल में खामिया हैं. इसमें तीसरे पक्षों को ऑपरेशन आउटसोर्स किए जाना भी शामिल है.  

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अंकित कुमार
  • नई दिल्ली,
  • 13 अक्टूबर 2020,
  • अपडेटेड 10:32 AM IST

दुनिया भर में अपनी साइकोलॉजिकल और पब्लिक ओपिनियन वॉरफेयर के हिस्से के तहत चीन अब आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) से उत्पन्न दुष्प्रचार कंटेंट पर जोर दे सकता है. इसके लिए ‘डीप फेक्स’ यानि AI  जेनेरेटेड फर्जी सूचनाओं, वॉयस वीडियो पर चीन के निर्भर रहने की संभावना है. ये निष्कर्ष अमेरिका स्थित थिंक टैंक अटलांटिक काउंसिल की एक ताजा स्टडी का है. 

अटलांटिक काउंसिल की डिजिटल फोरेंसिक लैब (DFRLab) ने चीन के दुष्प्रचार अभियानों और ताजा ट्रेंड्स का विश्लेषण करते हुए नई स्टडी प्रकाशित की है.. इसमें कहा गया है कि स्थानीय ऑडियंस में बड़ी कामयाबी के बावजूद चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) विदेशी फ्रंट पर अपने संदेशों को फैलाने के लिए जूझ रही है.  

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स्टडी में कहा गया है कि पश्चिमी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अब तक चीनी दुष्प्रचार अभियान बेअसर है क्योंकि इसके अमल में खामिया हैं. इसमें तीसरे पक्षों को ऑपरेशन आउटसोर्स किए जाना भी शामिल है.  

ट्विटर, फेसबुक और गूगल जैसे प्लेटफॉर्म चीनी दुष्प्रचार अभियानों की पहचान करने में सक्षम हैं और इन पर समय रहते कार्रवाई की गई. लेकिन इस स्टडी में कहा गया है कि अब “बड़े पैमाने पर और प्रभावी दुष्प्रचार अभियान के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल किया जाएगा. इसके जरिये पश्चिमी सोशल मीडिया में सीक्रेट तौर पर अकाउंट भी बनाए जाएंगे.” 

ये स्टडी ऐसे समय में सामने आई है जब वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर भारत और चीन के बीच गतिरोध जारी है. यहां तक कि हाल ही में अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पॉम्पिओ की ओर से इस क्षेत्र में चीन की ओर से "खतरा" पेश किए जाने का हवाला दिया गया था.  

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डिस्कोर्स पॉवर और इंफॉर्मेशन वॉरफेयर 

अटलांटिक काउंसिल की स्टडी में कहा गया है कि चीन की उस विदेश नीति में बदलाव आया है जिसके तहत पहले वह अन्य देशों के मामलों में "नॉन-इंटरवेंशन" यानी हस्तक्षेप न करने का रुख अख्तियार करता था. चीन अब “डिस्कोर्स पॉवर” का प्रयोग करना चाहता है. ये एक कंसेप्ट है जिसके मुताबिक कोई देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एजेंडे सेट करके घरेलू स्तर पर और अन्य देशों में राजनैतिक व्यवस्था और मूल्यों को प्रभावित कर सकता है, और इसके जरिये अपनी भू-राजनीतिक शक्ति बढ़ा सकता है. ताकि वो खुद के वैश्विक महाशक्ति के रूप में शांतिपूर्ण उदय को प्रोजेक्ट कर सके.  

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी "चाइना स्टोरी " को घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रोजेक्ट करने के लिए इन्फॉर्मेशन स्पेस का उपयोग करती रही है. अटलांटिक काउंसिल की स्टडी की लेखक एलिसिया फॉसेट (Alicia Fawcett) इसे घरेलू और विदेश स्तर पर मीडिया लैंडस्केप में स्टोरीटैलिंग के जरिए पॉजिटिव छवि प्रोजेक्ट करने की चीन की कोशिश के तौर पर देखती हैं.  

निगेटिव सूचनाएं हटाने, दबा देने या डाउनप्ले करने के साथ-साथ कुछ हैशटैग के गेम के जरिये इंफॉर्मेशन परसेप्शन जुगत बनाना ऐसा हथियार है जिसके जरिये चीन बाकी दुनिया में रहने वाले लोगों को विश्वास दिलाना चाहता है कि वह एक "जिम्मेदार वर्ल्ड लीडर" है और अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में सुधार लाने वाली अगुवा शक्ति है. इंटरनेट से ड्राइव होने वाला आज का ग्लोबल इंफॉर्मेशन स्पेस बीजिंग को कारगर माध्यम मुहैया कराता है ताकि वो ‘चाइना स्टोरी’ को दुनिया में फैला सके.  

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Caption: Chinese discourse power architecture/Alicia Fawcett, DFRLab

चीनी सरकार का इंफ्रास्ट्रक्चर बड़े पैमाने पर झूठी या भ्रामक सूचनाओं के प्रोडक्शन और रीप्रोडक्शन में जुटा हुआ है जिससे कि गुमराह किया जा सके. ये कंटेंट आमतौर पर मनोवैज्ञानिक पूर्वाग्रह और लक्षित लोगों में जातीय, नस्लीय या सांस्कृतिक आधार भड़काने पर निर्भर होता है.  इसका मकसद ‘’मानसिक उन्माद’’ को इम्पलांट करना है.   

एलिसिया फॉसेट का कहना है कि चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी, स्टेट काउंसिल और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी मिलकर घरेलू और वैश्विक स्तर पर इस दुष्प्रचार अभियान में शामिल हैं. उनके मुताबिक, “चीन इस दुष्प्रचार अभियान को अपने विदेश नीति के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एक प्रभावी रणनीति के रूप में देखता है.” 

डीप फेक: लोगों को बांटने का हथियार 

डीप फेक एक तरह का सिंथेटिक मल्टीमीडिया है, जहां किसी व्यक्ति की असली आवाज या पेशकश में इस तरह से जोड़-तोड़ करके पेश किया जाता है, जो उसने कभी कहा ही नहीं या किया ही नहीं. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से संचालित डीप फेक छेड़छाड़ से बनाए गए मीडिया को त्रुटिरहित बनाते हैं और आसानी से जेनेरेट होते हैं. ये दर्शकों को गुमराह कर उन घटनाओं पर यकीन करने को विवश कर देते हैं जो कभी हकीकत में हुई ही नहीं.  

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डीप फेक वीडियोज के कुछ मशहूर उदाहरण मार्क जुकरबर्ग और बराक ओबामा के वीडियो हैं जिसमें रिसर्चर्स और आर्टिस्ट्स ने टेक्नोलॉजी के संभावित दुरुपयोग को दर्शाया.   

दूसरी ओर डीप वॉयस मीडिया में मशीन-लर्निंग का इस्तेमाल करके किसी व्यक्ति की आवाज़ को क्लोन किया जाता है. इसके जरिये किसी व्यक्ति की जानकारी या सहमति के बिना उसकी मूल आवाज में एक बिल्कुल नया भाषण तैयार किया जा सकता है. हालांकि, चीनी सोशल मीडिया में डीप फेक, डीप वॉयस और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल अभूतपूर्व घटना नहीं है.  इसलिए बीजिंग के साइबर युद्ध में ये उपकरण प्रमुखता से शामिल हैं. 

स्टडी में पाया गया है कि लोकप्रिय चीनी ऐप्स और बड़ी टेक फर्म्स जैसे कि TikTok, Baidu और Zao  ने बड़ा लेगवर्क किया. स्ट़डी में Baidu के हालिया डीप वॉयस प्रोजेक्ट का भी जिक्र किया गया है, ये सेकेंडों में किसी आवाज़ को क्लोन कर सकता है. चीन इन उपकरणों का इस्तेमाल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से संचालित डीप फेक बड़े पैमाने पर बनाने में कर सकता है. फिर इसे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सूचना ऑपरेशन्स में इस्तेमाल किया जा सकता है. 

कई सरकारों, जिसमें अमेरिका के कुछ राज्य भी शामिल हैं, ने इस खतरे को पहले ही भांप लिया. और समय रहते डीप फेक के संभावित दुरुपयोग के खिलाफ कानून बनाए हैं. भारत में अब तक इसे लेकर कोई कानून नहीं है. 

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साइबर और मनोवैज्ञानिक युद्ध उपकरण के रूप में बिग डेटा के लिए बीजिंग का लगाव कोई रहस्य नहीं है. पीएलए का अपना एकेडेमी जर्नल “मिलिट्री कोरेस्पॉन्डेंट” पहले ही एक कमेंट्री प्रकाशित कर चुका है जिसमें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस संचालित बॉट नेटवर्क के इस्तेमाल का सुझाव है.  

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की बिग डेटा में दिलचस्पी बड़ी जन भावनाओं के विश्लेषण, पहचान,  निर्धारण और हैंडलिंग की ओर बढ़ रही है. सीसीपी के साइकोलॉजिकल वारफेयर की कमान चीन की स्ट्रैटेजिक सपोर्ट फोर्स (SSF) बेस 311 के हाथ में है. SSF के एक आर्टिकल में पहले ‘वॉयस इंफॉर्मेशन सिथेसिस टेक्नोलॉजी’ की जरूरत पर जोर दिया जा चुका है. ये टेक्नोलॉजी यूजर के भावनात्मक पक्ष को पहचानने और उसी के मुताबिक संदेश संचालित करने की है. 

 

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