
बिहार में पिछले 6 सालों में शराब पर बैन लगा है. नीतीश कुमार इसके लिए कभी आलोचना और कभी तारीफ पाते रहे हैं. लेकिन ये भी एक सच है कि उनके लिए चुनावी तौर पर ये बैन फायदेमंद साबित हुआ है क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि शराब बैन करके उन्होंने महिला वोटर्स को अपने पाले किया. लेकिन इसी तस्वीर का एक पहलू और भी है. और वो है बिहार में अभी भी बिक रही इलीगल शराब. आँकडे कहते हैं कि शराब पर बैन के बाद इसमें तेजी आई है. जाहिर है असल शराब के चाहने वाले अवैध तरीके से बनी शराब के ओर बढ़ रहे हैं. बिहार में इस बैन के दौरान करीब 700 से भी ज्यादा मौतें नकली शराब से हुई हैं. साढ़े तीन लाख से ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गए हैं और करीब 53 लाख लीटर शराब जब्त हुई है जो अवैध थी. इस दौरान नीतीश का विपक्ष बदलता रहा, लेकिन जो भी विपक्ष में रहा चाहे आर्जेडी हो या बीजेपी नीतीश के इस शराब बैन पर सवाल उठाती रही. अभी हाल ही में नीतीश कुमार उस सवाल पर बीजेपी नेताओं पर भड़के जिसमें उन्होंने शराब का बैन हटाने की मांग उठाई थी. नीतीश कुमार ने कहा था कि तुम सब लोग शराबी हो गए हो. बीजेपी के नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री तारकिशोर प्रसाद का कहना है कि हम शराब बंदी के समर्थन में हैं, लेकिन जिस तरह से इसे इम्प्लीमेंट किया गया है, वो ग़लत है. विपक्ष की इस घेराबंदी और राज्य में पकड़ी जा रही अवैध शराब और उससे हो रही मौतें – नीतीश कुमार पर दबाव जरूर बना रही हैं. सवाल ये है कि बिहार में शराब बंदी का असर किस तौर पर हुआ है और क्या वाकई ऐसा है कि सरकार पर शराबबंदी हटाने का दबाव बढ़ा है? शराबबंदी पर नीतीश कुमार पर दबाव कितना है क्या इसके पीछे इम्प्लीकेशन्स में हो रही चूक है या फिर ये प्रॉबलम बैन से ही है? 'आज का दिन' में सुनने के लिए क्लिक करें.
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मई 2022 में एक रिपोर्ट आई थी. रिपोर्ट बता ये रही थी कि एशिया में मेडिकल इन्फ्लेशन यानी हेल्थ सेक्टर की महंगाई सबसे ज्यादा है. जाहिर है ऐसा इसलिए था कि एशिया के ज्यादातर मुल्कों में उस लिहाज से रिसॉरसेस नहीं. ज्यादातर बाहर से मँगवाए जाते हैं. भारत में भी हालत अच्छी नहीं थी. हालांकी कोविड के बाद बढ़े मेडिकल इंश्योरेसन्स के नंबर्स को अच्छे संकेत के तौर पर देखा जा रहा था. अब फिर से एक रिपोर्ट आई है. मोतीलाल ओसवाल नाम की एक संस्था की एक रिपोर्ट से पता चला है कि अस्पतालों की फीस में पिछले साल के मुकाबले 3 से 4 परसेंट बढ़ोतरी हुई है. और यही हाल सर्जरी का भी है. इनके चारजेज 8 से दस परसेंट बढ़े हैं। इलाज में इस्तेमाल होने वाले इक्विपमेंट्स हों या दवाइयाँ ये सब भी इसकी जद में हैं. कोविड के बाद जब इस पर बहस तेज हुई है कि देश में हेल्थ सेक्टर पर काम करने की जरूरत है और उसे सस्ता बनाना चाहिए, ऐसे में ये रिपोर्ट परेशान करती है. फिर ऐसे समय में जब सरकारों का लगातार दावा है कि वो हेल्थ में काम कर रहे हैं, फिर ये महंगाई जो कि किसी भी मरीज के इलाज में एक बड़ा फैक्टर रहती है उसमें बढ़ोतरी क्यों हो रही है? 'आज का दिन' में सुनने के लिए क्लिक करें.
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पीएचडी प्रोग्राम्स में पार्ट लेने के लिए अब तक आप क्या करते हैं? पहले ग्रेजुएशन और फिर पोस्ट ग्रेजुएशन, यही ना. लेकिन कल यूजीसी ने एक घोषणा की है कि अब पीएचडी प्रोग्राम्स में हिस्सा लेने के लिए मास्टर्स की जरूरत नहीं. स्टूडेंट्स चार साल के ग्रेजुएशन प्रोग्राम के बाद सीधे पीएचडी में दाखिला ले सकते हैं. यूजीसी चेयरमैन जगदीश कुमार ने कल बताया कि इस प्रावधान में बदलाव किया जा रहा है. हालांकि उन्होंने आगे ये भी कहा कि यूनिवर्सिटीज को ये अधिकार होगा कि ग्रेजुएशन प्रोग्राम तीन साल का होगा या चार साल का. लेकिन ये तब तक ही होगा जब तक 3 साल के अंडरग्रेजुएट कोर्स को 4 साल के प्रोग्राम के पूरी तरह लागू होने तक बंद नहीं किया जाएगा. कुछ ही दिन पहले यूजीसी ने ऑनर्स डिग्री प्रोग्राम ग्रेजुएशन सिलेबस के लिए चार साल किया था. इसकी जरूरत क्यों लगी यूजीसी को और दिक्कतें क्या होंगी? 'आज का दिन' में सुनने के लिए क्लिक करें.