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पटना ने हमेशा बदली है दिल्ली की सियासत, किसी को दिलाई सत्ता तो किसी के लिए बना आफत

पटना में 23 जून को 17 विपक्षी पार्टियों की बड़ी बैठक हुई. इसमें सभी ने एकजुट होकर साल 2024 का लोकसभा चुनाव बीजेपी के खिलाफ लड़ने का ऐलान किया. इस मीटिंग में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के नेता यानी स्टालिन से लेकर उमर अब्दुल्ला तक शामिल हुए. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है जब पटना देश की सियासत का केंद्र बिंदु बना है.

जय प्रकाश नारायण, नीतीश कुमार, राम मनोहर लोहिया (फाइल फोटो) जय प्रकाश नारायण, नीतीश कुमार, राम मनोहर लोहिया (फाइल फोटो)
कुणाल कौशल
  • पटना,
  • 24 जून 2023,
  • अपडेटेड 5:44 PM IST

'जो कुछ भी पटना से शुरू होता है, वह जन आंदोलन का रूप लेता है.' पटना में 23 जून को 17 विपक्षी दलों की मीटिंग के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कहे इन शब्दों के व्यापक निहतार्थ को अगर समझें तो इसके पीछे कई ऐसे राजनीतिक घटनाक्रम हैं, जिन्होंने बिहार की राजधानी पटना को सत्ता के बदलाव का केंद्र बनाया और इतिहास भी इसका गवाह रहा है.

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जब-जब देश को बदलाव, नए विचारों और रास्तों की जरूरत हुई है, तब-तब पटना ने ऐसी राजनीतिक लकीर खींची, जिसने दिल्ली की सत्ता को ना सिर्फ चुनौती दी है बल्कि परिवर्तन की नई इबारत लिखी. इसका साक्षी देश का इतिहास रहा है. पटना की राजनीतिक अहमियत की शुरुआत होती है साल 1965 से. तब देश आजादी के बाद सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा था. साथ ही  देश के लोग दो वक्त की रोटी के लिए भी संघर्ष कर रहे थे.

पटना के भाषण ने लोहिया को बना दिया था विपक्ष का सबसे बड़ा नेता

दरअसल, साल 1965 में कृष्ण बल्लभ सहाय बिहार के मुख्यमंत्री थे. उनकी जन विरोधी नीतियों को लेकर कांग्रेस नेता और प्रखर समाजवादी राममनोहर लोहिया ने मोर्चा खोल दिया, जबकि सहाय उन्हीं की पार्टी यानी कि कांग्रेस के नेता थे. देश और बिहार भारी अकाल के दौर से जूझ रहा था. लोग दाने-दाने को मोहताज थे और सीएम सहाय हजारीबाग में इंदिरा गांधी के स्वागत में महावन भोज का आयोजन कर रहे थे.

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लोहिया से ये बर्दाश्त ना हुआ और उन्होंने पटना में एक जनसभा के दौरान अपनी ही पार्टी के सीएम के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. उन्होंने कहा, 'राज्य की भूखी जनता को अन्न की जगह भाषण खिलाया जाता है, यह अकाल प्राकृतिक हो या मानवजनित लेकिन लोगों की भूख नकली नहीं है.' इतना ही नहीं उन्होंने मुख्यमंत्री पर हमला बोलते हुए कहा कि लोगों को अब भी भरोसा है सीएम जनता को भरपेट अनाज देंगे, लाठी और गोली नहीं.' 

मुख्यमंत्री के. बी. सहाय को लगा, अगर राम मनोहर लोहिया को अभी नहीं रोका गया तो वो सरकार और कांग्रेस के खिलाफ और हमलावर हो जाएंगे. इसके बाद लोहिया को रातोरात गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेज दिया गया. अगर, उन्हें पटना में रखा जाता तो सरकार के इस फैसले के खिलाफ लोग विद्रोह कर सकते थे.

लोहिया भले गिरफ्तार हो गए लेकिन पटना की जनसभा में अपनी ही सरकार के खिलाफ दिए भाषण ने उन्हें उत्तर भारत में कांग्रेस विरोधी एकता के नए नायक के रूप में स्थापित कर दिया. इसके बाद उनकी लोकप्रियता बढ़ती चली गई.

सुप्रीम कोर्ट में उन्होंने गिरफ्तारी के खिलाफ अपना पक्ष खुद रखा. इसके बाद उन्हें बाइज्जत बरी कर दिया गया और गिरफ्तारी के लिए पटना के तत्कालीन डीएम को कड़ी फटकार भी लगाई गई. इसके बाद अगले दशक में राम मनोहर लोहिया विपक्षी एकता के सबसे बड़े नायक बनकर उभरे और समाजवादियों की लड़ाई के धुरी बन गए.

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पटना में संपूर्ण क्रांति के नारे ने दिल्ली में बदल दी सत्ता

कांग्रेस की सत्ता के खिलाफ संघर्ष करते हुए 10 साल बीत चुके थे और 80 का दशक शुरू हो चुका था. जिस इंदिरा गांधी के लिए बिहार के सीएम केबी सहाय ने अकाल के दौर में भोज का आयोजन किया था वो देश की प्रधानमंत्री बन चुकी थीं. साल 1975 में जब इंदिरा गांधी पर भ्रष्टाचार का आरोप साबित हुआ तो प्रखर गांधीवादी नेता और भारत छोड़ो आंदोलन में जेल जा चुके स्वतंत्रता सेनानी जय प्रकाश नारायण ने विपक्ष को एकजुट कर उनसे इस्तीफे की मांग की.

राजनीतिक पार्टियों के विरोध, विपक्षी नेताओं के तेवर और जनआंदोलन को कुचलने के लिए इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया. इसके बाद 5 जून 1975 को जेपी ने पटना में गांधी मैदान में विशान जनसमूह को संबोधित किया जहां से उन्होंने तत्कालीन सरकार यानी इंदिरा गांधी के खिलाफ 'संपूर्ण क्रांति' का नारा दिया.

पटना में जेपी के दिए इस नारे ने पूरे देश में इंदिरा सरकार के खिलाफ लोगों को सड़कों पर ला दिया जिसका परिणाम ये हुआ की इंदिरा गांधी की सत्ता चली गई. साल 1977 में हुए आम चुनाव में लोकनायक जय प्रकाश नारायण के आंदोलन की वजह से भारत में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी.

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क्या 2024 में बदलाव का केंद्र बनेगा पटना

साल 1977 में गैर कांग्रेसी सरकार बनने के बाद अब साल 2024 में पूरा विपक्ष उसी राह पर खड़ा है. एक बार फिर तमाम विपक्षी पार्टियां एकजुट होकर गैर बीजेपी सरकार बनाने की कवायद शुरू कर चुके हैं जिसकी पटकथा बिहार के सीएम नीतीश कुमार के नेतृत्व में पटना में तैयार की जा रही है. 

बीते दो लोकसभा चुनावों में विपक्षी दलों के नेता को एकजुट करने की कोशिश की गई लेकिन किसी ना किसी कारण से यह सफल नहीं हो पाया. नीतीश कुमार के नेृतत्व में इस बार पटना ने वो कर दिखाया जिसकी अब तक बस कल्पना ही की जाती थी.

कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक के विपक्षी नेताओं ने इस बैठक को सराहा. तमिलनाडु के सीएम स्टालिन से लेकर जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला तक ने इसके लिए खुलकर नीतीश कुमार की तारीफ की. 

बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने तो ये तक कह दिया, 'बीजेपी चाहती है कि इतिहास बदला जाए और हम चाहते हैं कि बिहार से इतिहास बचाया जाए.' बिहार में भले ही दशकों से आर्थिक विपन्नता रही हो लेकिन बात जब देश की राजनीति को नई दिशा देने की आती है तो इस राज्य के लोगों और नेताओं ने हमेशा बौद्धिकरूप से अपनी परिपक्वता और समृद्धता दिखाई है.

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12 जुलाई को तय होगा विपक्ष का चेहरा

अब 12 जुलाई को हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में होने वाली विपक्ष की अगली बैठक में सीटों के बंटवारे से लेकर, कॉमन मिनिमम प्रोग्राम (न्यूनतम साझा कार्यक्रम) पर सहमति बन सकती है. इसके बाद विपक्ष का ये चेहरा आगमी चुनाव के लिए अंतिम रूप ले लेगा जिसकी पटकथा एक बार फिर पटना में ही लिखी गई है.

 

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