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74 साल पहले हुई वो बहस, जिससे देश का नाम पड़ा India और Bharat... आंबेडकर का था अहम रोल

संविधान की मसौदा समिति ने संविधान का जो ड्राफ्ट तैयार किया था. उसमें सबसे अधिक माथापच्ची नाम को लेकर ही हुई थी. संविधान सभा के सदस्यों ने संविधान के मसौदे में संशोधन के प्रस्ताव दिए थे, जिन पर विस्तार से बहस हुई थी. लेकिन इसके बावजूद संविधान से जुड़ा एक महत्वपूर्ण हिस्सा लंबित था- अनुच्छेद-1. इस बीच डॉ. आंबेडकर समझ गए थे कि यह टेढ़ी खीर साबित होगा.

बीआर आंबेडकर बीआर आंबेडकर
अंकित कुमार/नलिनी शर्मा
  • नई दिल्ली,
  • 06 सितंबर 2023,
  • अपडेटेड 7:04 PM IST

आज से 74 साल पहले 18 सितंबर 1949 को देश के सबसे प्रबुद्ध लोगों ने इकट्ठे होकर इस बात पर विचार-विमर्श किया कि देश को 'इंडिया' बुलाया जाए या 'भारत' या फिर कुछ और. लेकिन सात दशक बीत जाने के बाद आज भी यह बहस जारी है.

आजाद भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए संविधान सभा की स्थापना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान की प्रमुख मांगों में से एक थी. भारत को सत्ता सौंपने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1946 में जब कैबिनेट मिशन भेजा था, उस समय पहली बार संविधान सभा का गठन किया गया.

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नौ दिसंबर 1946 को संविधान सभा की पहली बैठक हुई थी. इसके बाद दो साल और 11 महीने के अथक प्रयासों के बाद संविधान सभा ने भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया. बता दें कि इस दौरान 166 दिनों की मैराथन चर्चा के बाद इस मसौदे को तैयार किया गया. 

हालांकि, संविधान सभा की पहली बैठक दिसंबर 1946 में हुई थी लेकिन 18 सितंबर 1949 को सभा देश के नाम को अंतिम रूप देने में सक्षम हो सकी. लेकिन नामकरण की यह प्रक्रिया इतनी आसान नहीं रही.

मैराथन बैठकों का दौर और विरोध का बिगुल

संविधान की मसौदा समिति ने संविधान का जो ड्राफ्ट तैयार किया था. उसमें सबसे अधिक माथापच्ची नाम को लेकर ही हुई थी. संविधान सभा के सदस्यों ने संविधान के मसौदे में संशोधन के प्रस्ताव दिए थे, जिन पर विस्तार से बहस हुई थी. लेकिन इसके बावजूद संविधान से जुड़ा एक महत्वपूर्ण हिस्सा लंबित था- अनुच्छेद-1. इस बीच डॉ. आंबेडकर समझ गए थे कि यह टेढ़ी खीर साबित होगा.

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एक ये किस्सा भी दिलचस्प है कि संविधान सभा की बैठक खत्म होने में डेढ़ घंटा बचा था और डॉ. आंबेडकर चाहते थे कि संविधान के अनुच्छेद-1 को उसी दिन स्वीकार कर लिया जाए लेकिन कुछ प्रतिनिधियों ने इसकी राह में रोड़े अटका दिए. वे चाहते थे कि इस पर वोटिंग से पहले लंबी बहस हो. आंबेडकर ने सुझाव दिया था कि संविधान का अनुच्छेद-1 कहता है, 'इंडिया, दैट इज भारत, जो राज्यों का संघ होगा लेकिन अन्य सदस्यों ने इस पर आपत्ति जताई थी. इस पर सदस्यों से कहा गया कि उन्हें संशोधन से पहले अगले दिन 18 सितंबर 1949 को इस पर अपनी राय रखने का पर्याप्त समय दिया जाएगा. 

किन-किन ने किया था विरोध?

जब 18 सितंबर 1949 को संविधान सभा की बैठक हुई तो समिति के सदस्य एचवी कामथ पहले वक्ता थे. उन्होंने कहा कि यह भारतीय गणतंत्र का नामकरण समारोह है. इस दौरान देश के अन्य सुझाए गए वैकल्पिक नाम भारत, हिंदुस्तान, हिंद, भारतभूमि या भारतवर्ष थे. 

कामथ ने कहा था कि अगर नामकरण समारोह की जरूरत नहीं होती तो हम इंडिया नाम ही रख सकते थे लेकिन अगर हम इस बिंदु पर पहुंच गए हैं कि नया नाम रखना ही चाहिए तो यकीनन सवाल यही उठेगा कि क्या नाम होना चाहिए.

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कामथ ने असल में भारत नाम की उत्पत्ति की तह तक जाना शुरू कर दिया था. उन्होंने तर्क रखने शुरू किए कि असल में भरत वैदिक युग में दुष्यंत और शकुंतला का बेटा था, जिसके नाम पर भारत नाम पड़ा. लेकिन इस पर आंबेडकर ने कहा कि 'क्या इतनी गहराई में जाने की जरूरत है? मुझे इसका उद्देश्य समझ नहीं आता'. 

कामथ ने कहा कि मुझे लगता है कि इंडिया यानी भारत संविधान में अनफिट है. कामथ ने इसे संवैधानिक भूल करार दिया. उन्होंने कहा कि आंबेडकर ने यह स्वीकार किया है कि पूर्व में कई भूलें हो चुकी हैं लेकिन मुझे उम्मीद है कि वह इस चूक को भी स्वीकार करते हैं.

कामथ के बाद बिहार से ब्रजेश्वर प्रसाद ने कहा कि उन्हें नहीं लगता कि इंडिया या भारत को लेकर किसी तरह की दिक्कत है. उनकी मांग थी कि राज्यों और केंद्र को लेकर अलग से कोई उल्लेख नहीं होना चाहिए. उन्होंने प्रस्ताव रखा कि संविधान के अनुच्छेद-1 में कहा जाना चाहिए कि 'इंडिया, दैट इज भारत, एक अभिन्न इकाई है.

नेहरू और आंबेडकर से नाराज थे मोहानी

इसके बाद कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के संस्थापक सदस्य और उर्दू शायर मौलाना हसरत मोहानी ने सभा को बताया कि यह सिर्फ नाम के बारे में नहीं है. यहां कहा गया है कि भारत राज्यों का संघ होगा, लेकिन केवल राज्य ही क्यों? गणराज्यों का क्यों नहीं?

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मोहानी ने नेहरू और आंबेडकर दोनों से नाराजगी जताते हुए कहा कि मैं जानता हूं कि डॉ. आंबेडकर ने अपना मन बना लिया है और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी अपना मन बना लिया है. उन्होने अपना पूरा व्यवहार बदल लिया है. मैं जानता हूं कि उनके पास समर्थन है. मोहानी ने कहा कि भारत के राज्य पूरी तरह से स्वायत्त होने चाहिए.

सेठ गोविंद दास ने भी इसका विरोध किया था. उन्होंने कहा था, 'इंडिया यानी भारत' किसी देश के नाम के लिए सुंदर शब्द नहीं है. इसकी बजाय हमें 'भारत को विदेशों में इंडिया से नाम भी जाना जाता है' शब्द लिखना चाहिए. उन्होंने पुराणों से लेकर महाभारत तक का जिक्र किया. साथ ही चीनी यात्री ह्वेन सांग के लेखों का हवाला देते हुए कहा कि देश का मूल नाम 'भारत' ही है. 

दास ने महात्मा गांधी का जिक्र करते हुए कहा था कि उन्होंने देश की आजादी के लड़ाई 'भारत माता की जय' के नारे के साथ लड़ी थी. इसलिए देश का नाम भारत ही होना चाहिए.

बहस के दौरान आंध्र प्रदेश से संविधान सभा के सदस्य केवी राव ने भी दो नाम पर आपत्ति जताई थी. उन्होंने तो ये तक सुझाव दे दिया था कि चूंकि सिंध नदी पाकिस्तान में है, इसलिए उसका नाम 'हिंदुस्तान' होना चाहिए.

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बीएम गुप्ता, श्रीराम सहाय, कमलापति त्रिपाठी और हर गोविंद पंत जैसे सदस्यों ने भी देश का नाम सिर्फ भारत ही रखे जाने का समर्थन किया था. उस दिन देश के नाम को लेकर कमलापति त्रिपाठी और डॉ. बीआर अंबेडकर के बीच तीखी बहस भी हुई थी. 

त्रिपाठी ने कहा था, 'देश हजारों सालों तक गुलामी में था. अब इस आजाद देश को अपना नाम फिर से हासिल होगा.' तभी अंबेडकर ने उन्हें टोकते हुए कहा, 'क्या ये सब जरूरी है?'

संविधान सभा में जिस समय देश के नाम को लेकर बहस हो रही थी. उस बैठक के आखिरी वक्ता हरगोविंद पंत थे. पेशे से पत्रकार और वकील पंत चाहते थे कि देश का नाम भारतवर्ष या कुछ और हो.

हालांकि, ये सारी बहस का कुछ खास नतीजा नहीं निकला. और जब संशोधन के लिए वोटिंग हुई तो ये सारे प्रस्ताव गिर गए. आखिर में अनुच्छेद-1 ही बरकरार रहा. और इस तरह से 'इंडिया दैट इज भारत' बना रहा. 

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