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अंग्रेजों ने खामोश कर दी घुंघरुओं की झनकार... तहजीब सिखाने वाली तवायफों को सेक्स वर्कर में बदल दिया

तवायफों को एक समय संगीत और नृत्य का उस्ताद माना जाता था, और उनके कोठे युवा राजकुमारों और रईसों के लिए अदब और तहजीब सीखने के केंद्र थे. लेकिन मुगलों के साथ बंगाल, पंजाब और अवध ​की रियासतों के पतन के साथ ही कोठों की रौनक भी समाप्त होने लगी.

लखनऊ के नवाब शासन के दौरान तवायफें रईस थीं और शीर्ष करदाताओं में से थीं. (Photo: Generative AI/Vani Gupta) लखनऊ के नवाब शासन के दौरान तवायफें रईस थीं और शीर्ष करदाताओं में से थीं. (Photo: Generative AI/Vani Gupta)
सुशीम मुकुल
  • नई दिल्ली,
  • 20 मई 2024,
  • अपडेटेड 11:57 AM IST

जद्दनबाई अपनी लहराती अनारकली पोशाक में इलाहाबाद के अपने कोठे पर एक मोटे कालीन पर बैठी थीं. उनके चारों ओर दीपक टिमटिमा रहे थे और साजिंदों (संगीत वाले) ने धीरे-धीरे गीत-संगीत शुरू किया. तभी अपनी सुरमई आवाज में उन्होंने ठुमरी शुरू की और पूरी महफिल में छा गईं. जद्दनबाई की कला ने ऐसा जादू बिखेरा कि श्रोताओं में बैठे एक युवक, जिसकी लंदन जाने की योजना थी, ने उनसे शादी का प्रस्ताव रखा. 

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जद्दनबाई का मुस्लिम होना ही एकमात्र समस्या नहीं थी, वह एक तवायफ भी थीं. लेकिन उस युवा को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. उसने इस्लाम अपना लिया, जद्दनबाई से शादी की और वहीं रह गया. और इस तरह लंदन, इलाहाबाद के एक कोठे से हार गया. वह युवा थे मोहनचंद उत्तमचंद (मोहन बाबू) त्यागी, जो एक रईस मोहयाल हिंदू ब्राह्मण परिवार से आते थे. इस्लाम अपनाने के बाद उन्हें अब्दुल रशीद के नाम से जाना गया. यह 20वीं सदी की शुरुआत थी. तवायफों ने अपना पूर्व गौरव और वैभव खो दिया था, लेकिन उनके कोठे अब भी संगीत से गूंजते थे. 

अंग्रेजों की विक्टोरियन नासमझी अभी तक संस्कृति के गलियारों को पूरी तरह से नष्ट करने में कामयाब नहीं हुई थी. जद्दनबाई 1892 में एक कोठे में तवायफ के घर पैदा हुई थीं. हिंदी फिल्म उद्योग की पहली महिला संगीतकार और फिल्म निर्माता बनकर वह इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए अमर हो गईं. जद्दनबाई ने हिंदी सिनेमा को अपनी बेटी- नरगिस - के रूप में एक उपहार भी दिया, जिन्हें अब तक की सबसे बेहतरीन अभिनेत्रियों में से एक माना जाता है. जद्दनबाई के परिवार की तीन पीढ़ियों की कहानी तवायफ संस्कृति के सुनहरे दिनों और उसकी ढलान को दर्शाती है. 

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अदब और तहजीब सीखने के केंद्र होते थे कोठे

तवायफों को एक समय संगीत और नृत्य का उस्ताद माना जाता था, और उनके कोठे युवा राजकुमारों और रईसों के लिए अदब और तहजीब सीखने के केंद्र थे. लेकिन मुगलों के साथ बंगाल, पंजाब और अवध ​की रियासतों के पतन के साथ ही कोठों की रौनक भी समाप्त होने लगी. अंग्रेज सुसंस्कृत तवायफों पर नाराज थे और उन्हें 'नाचने वाली' (Nautch Girls) कहकर खारिज कर देते थे. हतोत्साहित भारतीय इतने लचीले थे कि उन्हें कोठों में सिर्फ अय्याशी ही दिखती थी. फिर पंजाब में सुधारवादी आंदोलन ने तवायफ संस्कृति को जोरदार झटका दिया.

हिंदी फिल्मों ने कोठों को वेश्यालय और तवायफों को सेक्स वर्कर्स की तरह चित्रित किया. लेकिन सच्चाई कुछ और ही थी. जापान में गीशा परंपरा की तरह, तवायफों ने पेशेवर रूप से शायरी और गजलों के साथ अपने मेहमानों का मनोरंजन किया. इतिहासकारों का मानना है कि कोठों पर सेक्स आकस्मिक था, अनिवार्य नहीं. अधिकांश लोकप्रिय तवायफें अक्सर अपने चाहने वालों में से सबसे अच्छे को ही चुनती थीं. हालांकि, समय के साथ तवायफों की संस्कृति लुप्त हो गई और कोठे संगीत से वंचित होकर, देह व्यापार के अड्डे बन गए. अनारकली पोशाक की चमक मद्धम पड़ गई और फिर किसी जद्दनबाई ने ठुमरी नहीं गायी.

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अंग्रेजों के निशाने पर थे कोठे, कैसर बाग को लूटा 

लखनऊ के कैसर बाग का एक कोठा, जो घुंघरुओं की आवाज का आदी था, एक दिन ब्रिटिश सैनिकों के बूटों की आवाज से गूंज उठा. यह साल 1857 था. अंग्रेजों ने कंपनी बैरक से शुरू हुए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को कुचल दिया था. अब, वे युद्ध की लूट चाहते थे. कैसर बाग के कोठे से अंग्रेजों ने जो चीजें लूटीं उनमें कीमती पत्थरों से जड़े सोने और चांदी के आभूषण, कढ़ाई वाली कश्मीरी ऊन और ब्रोकेड शॉल, बेजल वाली टोपी और जूते, चांदी के कटलरी और जेड गोबल (Jade Goblets, नक्काशी वाले कीमती ग्लास, जिनमें शराब परोसी जाती थी) शामिल थे. 

लेखिका और अकादमिक वीना तलवार ओल्डेनबर्ग ने अपने पेपर, लाइफस्टाइल ऐज रेसिस्टेंस: द केस ऑफ द क​आर्टिजन्स ऑफ लखनऊ, इंडिया (Lifestyle as resistance: The case of the Courtesans of Lucknow, India) में लिखा है कि इस कोठे में लखनऊ के आखिरी नवाब, वाजिद अली शाह की पत्नी रहती थीं और उस समय अंग्रेजों द्वारा लूटी गई कीमती वस्तुओं की कीमत लगभग 40 लाख रुपये थी. अंग्रेजों की इस लूट की आज के समय में कीमत कम से कम कुछ हजार करोड़ रुपये की होती. सोचिए... उस समय की तवायफें कितनी अमीर थीं.

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अंग्रेज भारत की संपत्ति को लूटने के लिए निकले थे, लेकिन उनके द्वारा विशेष रूप से कोठों को निशाना बनाने का एक और कारण यह था कि विद्रोह करने वाले सिपाही यहां गुप्त बैठकें करते थे और छिपने के लिए इन जगहों का इस्तेमाल करते थे. लखनऊ के ब्रिटिश शासन के अधीन आने के साथ, तवायफों और उनके कोठों ने अपनी महिमा को धूमिल होते देखा. यह सिर्फ लखनऊ ही नहीं था, अलग-अलग समय में दिल्ली, आगरा और लाहौर जैसे अन्य शहरों में भी यही कहानी थी. पैसे वालों और रईसों के बिना, कोठे, जो कभी संगीत और नृत्य के जीवंत केंद्र थे, धीरे-धीरे बदनाम होते गए.

आज के रेड-लाइट एरिया कोठा संस्कृति के पतन का प्रमाण हैं और उपमहाद्वीप के देशों को ब्रिटिश राज का दिया एक और जख्म है. शब्द, 'तवायफ', उर्दू शब्द 'तवाफ' से लिया गया है, जिसका अर्थ है गोल-गोल चक्कर लगाना (नृत्य के संदर्भ में). एक समय यह शब्द प्रतिभावान नर्तकियों और गायिकाओं से जुड़ा था, लेकिन बाद में इसे वेश्यावृत्ति के साथ जोड़ दिया गया. अब इस शब्द को एक स्लैंग की तरह इस्तेमाल किया जाता है. तवायफों की भव्यता और संस्कृति की कहानियों का दस्तावेजीकरण नहीं किया गया. ये कहानियां हमेशा के लिए मिटा दी गईं. जो कुछ बचा था, उसे फिल्म निर्माताओं के एक समूह ने सिनेमा में गलत रूप से चित्रण करके नष्ट कर दिया.

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टैक्स पेयर होती थीं तवायफें, था राजनीतिक प्रभाव 

राजाओं और राजकुमारों का समर्थन प्राप्त होने के कारण, तवायफें शिक्षित, सामाजिक और आर्थिक रूप से स्वतंत्र थीं. लेखिका वीना तलवार ओल्डेनबर्ग ने अपने शोध पत्र में लिखा है, 'वे शहर [लखनऊ] में सबसे अधिक व्यक्तिगत आय के साथ, हायर टैक्स ब्रैकेट में होती थीं. वेश्याओं के नाम संपत्तियां (घर, बाग-बगीचे, फूड और लग्जरी आइटम बनाने वाले प्रतिष्ठान) होती थीं. उनका रियास की राजनीति में काफी प्रभाव था.' लेखिका वीना तलवार ओल्डेनबर्ग के शोध पत्र में उपन्यासकार और पत्रकार अब्दुल हलीम शरर के हवाले से कोठे की राजनीति और तवायफों की राजनीतिक भूमिका की झलक मिलती है.

अब्दुल हलीम शरर लिखते हैं, 'हकीम महदी, जो बाद में वजीर [अवध के प्रधान मंत्री] बने, ने अपनी प्रारंभिक सफलता का श्रेय पियारो नाम की एक वेश्या को दिया. महदी ने गवर्नर ऑफ अवध के रूप में अपनी पहली नियुक्ति पर शासक को जो भेंट दिया था, उसका इंतजाम पियारो ने ही किया था. यह कहा जाता है कि जब तक कोई व्यक्ति तवायफों के साथ संबंध नहीं रखता था, उसे तहजीबदार नहीं माना जाता था.' हुस्ना बाई ने अवध की महिलाओं के लिए हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के द्वार खोले.

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में तवायफों की भूमिका

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तवायफों ने भी भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक बड़ी भूमिका निभाई. वीना तलवार ओल्डेनबर्ग ने आजतक को बताया, 'जब 1857 में विद्रोह शुरू हुआ और देश की अलग-अलग छावनियों में फैल गया, तो तवायफों ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.' ओल्डेनबर्ग कहती हैं, 'जैसा संजय लीला भंसाली की वेब सीरीज हीरामंडी में दिखा गया है, उसके विप​रीत तवायफें सीधे स्वतंत्रता संग्रमा में शामिल नहीं हुईं, लेकिन उनके कोठे स्वतंत्रता सेनानियों के लिए सुरक्षित पनाहगाह बने. उन्होंने ​अंग्रेजों को लखनऊ की घेराबंदी करने से 14 महीनों तक रोके रखने में मत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 1920 के असहयोग आंदोलन के दौरान बनारस की तवायफों के एक समूह ने महात्मा गांधी का साथ दिया. उनके भाषण से प्रेरित होकर, तवायफ विद्याधरी बाई ने महफिलों में राष्ट्रवादी गीत प्रस्तुत करना शुरू किया और खादी (भारतीय हाथ से बुना कपड़ा) को अपनाया.'

हिंदी फिल्मों में कोठों और तवायफों का गलत चित्रण

आजादी के बाद जैसे-जैसे कोठे उजड़ते गए, पहां पनती कुछ प्रतिभाओं को बंबई के रूप में नया घर मिल गया जहां वे अपनी कला का प्रदर्शन कर सकती थीं. तवायफों ने नए-नए पनप रहे हिंदी फिल्म उद्योग को सहारा दिया. द कआर्टिजन प्रोजेक्ट (The Courtesan Project) की मंजरी चतुर्वेदी आजतक को बताती हैं, 'भारत को आजादी मिलने के बाद, कोठा संस्कृति और तवायफें हिंदी सिनेमा की ओर स्थानांतरित हो गए. तवायफों का चित्रण उमराव जान और पाकीजा के साथ अच्छी तरह से शुरू हुआ, लेकिन जल्द ही हिंदी फिल्म उद्योग ने उन्हें कामुक नर्तकियों और वेश्याओं के रूप में चित्रित करना शुरू कर दिया.'

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मंजरी चतुर्वेदी कहती हैं, 'उमराव जान प्रामाणिक फिल्म थी क्योंकि यह मिर्जा हादी रुसवा के उपन्यास पर आधारित थी. फिल्म के निर्देशक मुजफ्फर अली ने रिसर्च के दौरान लखनऊ के चौक में 30 तवायफों से बात की थी. जहां तक ​​पाकीजा की बात है, यह 15 वर्षों में बनाई गई थी.' मंजरी आगे कहती हैं कि जैसे-जैसे हिंदी सिनेगा आगे बढ़ा तवायफों का गलत चित्रण किया जाने लगा. वह कहती हैं, 'फिल्मों में जब भी उन्हें उत्तेजक डांस चाहिए होता था, या उन्हें आइटम नंबर जैसा कुछ चाहिए होता था, तो वे तवायफ को ले आते थे. अगर उन्हें नकारात्मक किरदार चाहिए था तो उन्होंने तवायफ को पेश किया. अगर वे किसी हीरो को टूटे हुए दिल के साथ दिखाना चाहते थे तो उसे कोठे पर तवायफ के पास भेज देते. इसने तवायफ की इमेज को स्टीरियोटाइप कर दिया.'

विशेषज्ञों की यही शिकायत संजय लीला भंसाली की हीरामंडी से भी है, जो नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हो रही है. मंजरी चतुर्वेदी कहती हैं, 'मैं हीरामंडी में यह सीन देखकर दंग रह गई कि कैसे एक तवायफ जो पोएट्री सीखना चाहती है, उसकी किताबें और डायरी जला दी जाती हैं और उसे हतोत्साहित किया जाता है... कहा जाता है कि तुम्हें केवल सेक्स करना है. यह क्या है? तवायफें अपने समय की सबसे ज्यादा पढ़ी-लिखी महिलाएं थीं.' विडंबना यह है कि ये सब उसी हिंदी फिल्म उद्योग द्वारा बनाया और दिखाया जा रहा है, जिसे जद्दनबाई जैसी तवायफ ने खड़ा करने में मदद की थी. लेकिन हिंदी सिनेमा ने तवायफों का गलत चित्रण कर उन्हें निराश किया है. इतिहास में भी पढ़ी-लिखी और प्रतिभाशाली तवायफों के बारे में सबकुछ अच्छा नहीं लिखा गया. (इनपुट: सुशीम मुकुल और प्रियांजलि नारायण)

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