
'मेरा बलिदान सार्थक होने से पहले अगर मौत दस्तक देगी तो संकल्प लेता हूं कि मैं मौत को भी मार डालूंगा'. 3 जुलाई 1999 को 24 साल की उम्र में कैप्टन मनोज पांडे (Captain Manoj Pandey) शहीद हो गए. करगिल युद्ध (Kargil War) पर जाने से पहले मनोज ने अपनी मां से वादा किया था कि वो अपने 25वें जन्मदिन पर घर जरूर आएंगे. वो घर तो आए लेकिन तिरंगे में लिपटकर. कैप्टन मनोज पांडे का जन्म 25 जून 1975 में उत्तर प्रदेश के सीतापुर के रुधा गांव में हुआ था.
करगिल युद्ध में भारत मां की रक्षा करते हुए सर्वोच्च बलिदान देकर मनोज इतिहास में अमर हो गए. मनोज पांडे को उनके जन्मदिन पर परमवीर योद्धा की तरह याद करना ही सच्ची श्रद्धांजलि है. मनोज पांडे का जन्म एक गरीब नेपाली क्षेत्री परिवार में हुआ था. पिता गोपीचन्द्र पांडे परिवार का पेट पालने के लिए लखनऊ में हसनगंज चौराहे पर पान की दुकान लगाते थे. मां मोहिनी घर संभालती थीं. बचपन से ही मनोज ने गरीबी देखी थी. इसलिए बड़े भाई होने के नाते वो अपने भाइयों को बोलते थे कि मेहनत से पढ़ाई करना पापा का पैसा वेस्ट ना करना. मनोज को बचपन में ही इस बात की समझ हो गई थी कि उन्हें पढ़ाने में पापा को काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा है. इसलिए वो कम में ही गुजारा करते थे. जब मां उन्हें रिक्शे से स्कूल जाने के लिए पैसे देती थी तो वो पैदल ही चले जाते थे. रिक्शे का पैसा बचा लेते थे. मनोज उम्र में छोटे थे परिवार की कमाई में कोई योगदान नहीं दे सकते थे. लिहाजा अपनी जरूरतों को ही छोटा कर लेते थे.
मनोज की मां मोहिनी ने बताया था कि जब वो ढाई साल के थे तो वो उन्हें मेला दिखाने शीतला मंदिर ले गई थीं. मां ने पूछा भइया जो लेना है वो ले लो, तब मनोज ने कहा कि मम्मी हमें बांसुरी दिला दो. मनोज की मां उन्हें भइया कहकर बुलाती थीं. यूं तो दुकानदार के पास बंदूक, बल्ला, गेंद जैसे कई तरह के खिलौने थे पर मनोज ने दो रुपये की बांसुरी खरीदी. उसे बजाना भी सीखा. वो बांसुरी मनोज साथ अंतिम सांस तक रही. जब उनका पर्थिव शरीर आया तो उस बक्से में वो बांसुरी भी उन्हीं के साथ आई. जिस गरीबी में कैप्टन मनोज पांडे का बचपन बीता था. उन परिस्थियों में कोई भी इंसान व्यवस्था से या तो हार जाता या दिन रात व्यवस्था को कोसता रहता पर मनोज ऐसे थे, उन्होंने व्यवस्था को बदलने का हौसला रखा. मनोज बचपन से ही सेना में भर्ती होना चाहते थे. स्कूल में वो हर विषय में अव्वल रहते. उनके नंबर इतने अच्छे थे कि उन्हें हर बार स्कॉलशिप मिली. उनकी सारी मेहनत इसलिए होती थी कि वो एक दिन आर्मी ऑफिसर बन पाएं.
मनोज का हमेशा से यही मानना था कि सिविल में तो हर कोई नौकरी कर लेता है. उन्हें तो सेना में शामिल होने की धुन सवार थी. मनोज ने आठवीं तक लखनऊ के रानी लक्ष्मी बाई मेमोरियल सीनियर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ाई की उसके बाद वो आर्मी स्कूल में भर्ती हुए. उनके जूनून को जैसे दिशा मिल गई. खेल और पढ़ाई में वो काफी तेज थे. किसी शख्स में दोनों चीजें बहुत कम देखने को मिलती हैं. NDA की लिखित परिक्षा पास करने के बाद मनोज को इंटरव्यू का कॉल आया तो उनकी खुशी का ठिकाना ही नहीं रहा. उन्हें अंग्रेजी ठीक से नहीं आती थी, गांव से ताल्लुक रखते थे. पर वो NDA का इंटरव्यू देने गए वो भी नए जूते पहनकर.
इंटरव्यू में उनसे सवाल पूछा गया था कि Why do you want to join the arm forces. तो उन्होंने साफ कहा था कि उन्हें 'परमवीर चक्र' चाहिए. मनोज का यह जवाब सुनकर इंटरव्यू पैनल के लोग हंसने लगे. फिर इस जवाब के सवाल पर अधिकारी ने पूछा क्या आप जानते हो परमवीर चक्र कैसे मिलता है, इस पर मनोज ने जवाब दिया कि ज्यादातर लोगों को मरणोपरांत मिलता है. मुझे अवसर मिलेगा तो मैं जीवित लेकर आऊंगा.'
मनोज पांडे तो पैदा ही परमवीर हुए थे. इसलिए उन्होंने उस बटालियन को चुना Bravest of Bravest, जिसे बहादुर से भी बहादुर कहा जाता है, यानी गोरखा राइफल्स. 6 जून 1995 को वन- इलेवन गोरखा राइफल्स में कमिशन कर लिया गया. मनोज पूरी तरह से शाकाहारी थे वो शराब, सिगेरट तक नहीं पीते थे. उनके यहां परंपरा है कि जो भी युवा ऑफिसर होगा, उससे दशहरा के मौके पर बकरे का सिर कटवाया जाएगा. गोरखाओं के लिए दशहरा सबसे बड़ा पर्व होता है. मनोज को यह काम दिया गया था. नर्म स्वभाव के मनोज ने अपने इस काम को पूरी मजबूती के साथ पूरा किया. उन्होंने पूजा में चढ़ाने के लिए बकरे की गर्दन काटी. उसके बाद उन्हें इतना बुरा लगा कि वो बार- बार हाथ धोते रहे. इसके बाद मनोज ऐसे सिपाही बने जिन्होंने युद्ध के मैदान में कई दुश्मनों को मार गिराया.
युवा लेफ्टिनेंट मनोज की पहली पोस्टिंग श्रीनगर में हुई. यहां से उन्हें दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र सियाचिन भेजा गया. इन दोनों स्थानों पर इनकी तैनाती और काम को देखते हुए उन्हें कमांडो ट्रेनिंग के लिए भेजा गया. इन सबके बीच मनोज पांडे को जिस दिन का बचपन से इंतजार था वह भी आ गया. 4 मई 1999 को ऑपरेशन रक्षक के लिए उनकी यूनिट को करगिल जाने के आदेश मिले.
ये युद्ध के शुरुआती दिन थे तब यह साफ नहीं था करगिल में गोलीबारी कर रहे घुसपैठिए मुठ्ठी भर आतंकी हैं या फिर या पाक सेना के जवान. उस समय मनोज की जिम्मेदारी इलाके में गश्त लगाने और घायल जवानों को रिट्रिव करने की थी. कई बार उन्हें दुश्मन की गोलियों के बीच से जान की बाजी लगाकर अपने जवानों को निकालना पड़ता था. उपकरण ना होते हुए भी कैप्टन मनोज पांडे अपने मोजों को हाथों पर पहनकर कर बर्फीले पहाड़ पर चढ़ जाते थे. बंदूक की नाल गर्म रहे इसके लिए उन्होंने अपने मोजों उस पर लपेट दिया था. जवानों को ऐसा इसलिए करना पड़ा कहीं उनकी राइफल का ब्रीच ब्लॉक जाम न हो जाए. इसकी वजह से कई जवान फायर नहीं कर पाए थे.
युद्ध के मैदान से घर पर संपर्क करना आसान नहीं होता था. जब मिशन पर ना हो तो चिट्ठियां या घर पर एक फोन कर हालचाल पूछ लेते थे. 26 मई 1999 के बाद से वो घर पर एक भी फोन नहीं कर पाए थे. चिंता में डूबे घर वालों को राहत तब लगी जब एक महीने बाद 23 जून को उनकी एक चिट्ठी मिली. उस चिट्ठी में उन्होंने लिखा था कि टीवी के माध्य से आप लोगों को यहां के हालत का पता चल गया होगा. आप लोग चिंता ना करना. 'मैं जहां हूं वहां काफी संघर्ष है' मेरे खत का जवाब आप जरूर देना मैं ठीक हूं. मम्मी- पापा और छोटे भाई का ध्यान देना.
यूं तो मनोज ने लगातार कई खतरनाक मिशन को सफलता से पूरा किया था. लेकिन खालूबार का जो मिशन सबके सामने था जो सबसे बहादुर माने जाने वाले गोरखाओं के लिए भी बड़ी चुनौती थी. पहाड़ों पर सिर्फ दुश्मन से ही लड़ाई नहीं होती है. पहाड़ों पर जवान को तीन तरह के दुश्मन का सामना करना पड़ता है. पहला दुश्मन होता है ऊंचाई... पूरे सामान के साथ ऊपर चढ़ना पड़ता है. दूसरा- मौसम बार-बार अपना मिजाज बदलता है. तीसरा बेतहाशा ठंड, जहां पर तापमान शून्य डिग्री या उससे कम होता है. गोरखा लोग इस तरह की चुनौती के आदि होते हैं. पाकिस्तान की कमर तोड़ने के लिए खालूबार को जीतना जरूरी था क्योंकि उसके पीछे पीओके था जहां पर पाकिस्तान ने अपना हैलिपैड बनाया था. जिससे उन्हें जरूरत का सारा सामान मिल रहा था.
2 जुलाई 1999 को कैप्टन मनोज पांडे की यूनिट वन इलेवन गोरखा राइफल्स को खालूबार से दुश्मन की पोजिशन को क्लियर करने का आदेश मिला. यूनिट के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल ललित राय खुद जवानों की अगुवाई कर रहे थे. युद्ध के मैदान पर आमतौर पर इतने सीनियर अफिसर खुद मोर्चा नहीं संभालते पर कर्नल राय को सिपाहियों से आगे पहाड़ पर चढ़ जाते थे. मनोज भी अपने अफसर से काफी प्रभावित थे. संघर्ष में जीत की बारिकियां उनसे सीख रहे थे. 22 ग्रेनेडियर्स की चार्ली कंपनी गोरखाओं से पहले खालूबार भेजी गई थी. तीन दिन तक उनकी कोई खबर नहीं लगी. तीसरे दिन उनकी तरफ से मदद का एक सिग्ननल आया. मौके की नजाकत को देखते हुए कर्नल ललित राय ने दिन के उजाले में ही मिशन का बेड़ा उठा लिया.
मनोज पांडे की प्लाटून ने खालूबार की चोटियों को बाइपास कर पीछे से हमला किया था. जिससे पाकिस्तानी सेना की कमर टूट गई. इस मिशन को पूरा करने के बाद भी गोरखाओं का असली लक्ष्य अभी बाकी था. 14 घंटे की लगातार चढ़ाई के बाद आखिरी चोटी की करीब 400 मीटर की दूरी थी. अचानक दो दिशाओं से ताबड़तोड़ गोलियां बरसने लगी. अब न रुकना विकल्प था न पलटना. सामने से आती गोलियों से बेपरवाह गोरखा आगे बढ़ते रहे. कुछ देरे के लिए किसी चट्ठान की आड़ लेते, कभी गोलियां दागते चढ़ते रहे. उनका यह रूप देखकर पाकिस्तानियों की पैरों तले जमीन खिसक गई. अब उन्होंने अपनी तोप का मुंह भी भारतीय सैनिकों की तरफ खोल दिया.
पाकिस्तानियों को यह बात अच्छी तरह से पता थी कि अगर भारतीय फौज खालूबार को अपने कब्जे में ले लेगी तो पूरा युद्ध ही पलट जाएगा. उन्होंने एडी गन से भी फायर करना शुरू कर दिया. एडी गन एक मिनट 1000 से ज्यादा गोलियां फायर करती है. ऐसे बहुत सारी मशीन गनों से उन्होंने भारतीय जवानों पर फायर करना शुरू कर दिया. पाकिस्तानी सेना के पास भारी मात्रा में बड़े हथियार थे. जो काफी नुकसान पहुंचा रहा थे. 16 हजार 700 फीट की ऊंचाई पर रात की भयंकर ठंड में गोले बारूद की गर्मी भारी बर्फ को पिघला रही थी. दुश्मन की सामने से आती गोलियां और दूसरी तरफ से आते गोलों के बीच आगे बढ़ना जवानों के मुनासिब नहीं था. अब सिर्फ 60 जवान ही पलटन में बचे थे.
ऐसे में एक प्लान बनाया गया. कर्नल राय 20 जवानों के साथ दूसरी तरफ से आगे बढ़ने लगे. बाकी जवानों के साथ कैप्टन मनोज पांडे ने दूसरी तरफ से धावा बोला. इस हमले के बाद पाकिस्तानी सेना बुरी तरह से बौखला गई. अब पाकिस्तानी सेना बीच-बीच में मोर्टार फायर करने लगी, ये ऐसे बम होते हैं, जिनमें हवा में भी विस्फोट हो जाता है. यानी झुककर बचने की भी गुंजाइश नहीं होती. इस विस्फोट से निकला एक छर्रा कर्नल राय की जांघ को भेद गया, पर वो रुके नहीं और अपने जवानों के साथ आगे बढ़ते गए.
दूसरी तरफ मनोज पांडे अपने जवानों को साथ लेकर बहादुरी से आगे बढ़ रहे थे. जब उन्होंने बढ़ना शुरू किया था तो आकलन था कि उस तरफ दुश्मन के सिर्फ दो बंकर होंगे. लेकिन वहां पहुंचकर पता चला कि दो नहीं बल्कि 6 बंकर हैं. दुश्मन की नजर बचाकर भारतीय जवान ऊपर तो पहुंच गए थे लेकिन चोटी पर बैठे पाकिस्तानी सेना के जवानों को शक हो चला था कि भारतीय जवान यहां पहुंच गए हैं. दुश्मन की तरफ से हर कुछ मिनट बाद इल्युमिनेटिंग राउंड फायर शुरू हो गए थे. इसे फायर करने के बाद करीब 3 मिनट तक रोशनी रहती है. पाकिस्तानी हर तीन मिनट में इन गोलियों को फायर कर रहे थे. यानी रात के अंधेरे में भी रोशनी थी.
ऐसे में कैप्टन मनोज पांडे रुकने का फैसला करते तो सवेरा हो जाता. युद्ध के मैदान में ऐसे पसोपेश के मौके हर बार आते हैं. जिसमें जितनी जल्दी फैसला लिया जाए उतना अच्छा रहता है. 24 साल के मनोज पांडे ने अपने जवानों को बड़ी सी चट्टान के पीछे छोड़ा. खुद बाहर निकले पर गोलियों की बरसात होने लगी. वो वापस चट्टान के पीछ लौटे पर अहम बात यह थी कि वो दुश्मन की गन पोजिशन देखने में कामयाब हो गए थे. जय महाकाली के युद्धघोष के साथ फिर बाहर निकले जैसा सोचा था सामने से गोलियां फिर बरसी पर उनकी आंखों ने निशाना देख रखा था. बंदूक की गोली सटीक लक्ष्य पर लगी. मशीन गन के पीछे बैठा पाकिस्तानी जवान वहीं ढेर हो गया. कैप्टन पांडे को कंधे और पैर में गोली लगी. घायल होने बाद भी अगले बंकर की तरफ आगे बढ़े. ग्रैनेड फेंककर उसे भी खत्म कर दिया.
वो इससे पहले चार ऑपरेशन सफलतापूर्वक पूरा कर चुके थे. यह उनका पांचवा ऑपरेशन था. मनोज पांडे के शरीर पर कई गोलियां लग चुकी थीं. शरीर छलनी हो चुका था. जब मनोज तीसरे बंकर में पीछे से घुसे तो देखा कि दो पाकिस्तानी गोरखा जवानों पर गोली चलाने वाले हैं. उन्होंने अपनी खुखरी निकाली और उनकी गर्दन काट डाली. अब तक उनके शरीर से इतना खून बह चुका था कि सीधे खड़े हो पाना भी मुश्किल हो रहा था. पर जीत की धुन सवार थी. कैप्टन मनोज पांडे अब आखिरी गन पोजिशन की तरफ आगे बढ़े, उन्होंने बंकर के भीतर ग्रेनेड उछाला पर ग्रेनेड के गिरने और विस्फोट के बीच तीन से चार सेकेंड का फासला होता है, इतनी देर में तीन गोलियां मनोज के हेलमेट को चीरती हुई उनके सिर में घुस गई.
जिस योद्धा ने अपनी हर एक सांस पर मातृभूमि का नाम लिख दी वो जाते-जाते अपने जवानों की विजय का आखिरी आदेश सुना गया. मनोज ने नेपाली में कहा 'न छोड़ नूं'. सोचिए जिसकी जान जा रही है, फिर भी वो बोल रहा है कि इन्हें ना छोड़ना, गोरखा जवानों के गुस्से ने उनकी हिम्मत को 100 गुना बढ़ा दिया. उस दिन एक भी पाकिस्तानी सैनिक को चोटी से भागने का मौका नहीं मिला. दुश्मन को चुन-चुन कर मौत के घाट उतारा गया. जब खालूबार पर कब्जा किया तो उसका असर यह हुआ कि पाकिस्तान के पास जितने भी डिफेंसिव पोजिशन थे वो उसे संभाल नहीं पाए. दूसरी चोटियों से भी भागना शुरू कर दिया. लेकिन हिंदुस्तान का एक और सपूत चोटी पर तिंरगा लहराकर तिरंगे में लिपटकर लौट रहा था.
मनोज ने जुबार, कुकरथाम और खालूबार जैसी मुश्किल चोटियों पर जीत का परचम लहराया. मनोज के शहीद होते ही उनकी मां को यह एहसास होने लगा था कि मनोज को चोट लगी है. क्योंकि सपने में मनोज मां को युद्ध करते दिखे थे. मनोज पांडे युद्ध क्षेत्र से घर वालों को ज्यादा चिट्ठियां तो नहीं लिख पाए थे पर उनकी लिखी डायरी घर वालों को सौंपी गई तो मां का कलेजा तड़प उठा.
खूनी सरहदों पर बैठकर मनोज ने अपनी मां पर कविता लिखी थी. मनोज परिवार या दोस्तों के बीच कभी इतने भावुक नहीं दिखे थे. मनोज ने अपनी आखिरी चिट्ठी में लिखा था. कुछ लक्ष्य इतने नेक होते हैं कि इनमें असफलता भी यश लेकर आती है. प्राण देकर मनोज अपने लक्ष्य में सफल हुए थे. अपने परिवार और देश के लिए यश लेकर आए थे. मनोज पांडे ने सेना में होने की वजह ही बताई थी. परमवीर चक्र जीतना, उस शूरवीर ने बहादुरी का सर्वोच्च सम्मान हासिल भी किया बस उसे लेने के लिए दुनिया में नहीं थे. 24 साल और 7 दिन में उन्होंने देश के लिए सर्वोच्च बलिदान कर दिया.