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किस्सा-ए-दास्तानगोई... मंच पर जिंदा हुई कर्ण की महान गाथा, श्लोक और शायरी की अद्भुत जुगलबंदी ने बांधा समां

दास्तानगोई' इस साल अपने रिवाइवल के 20 साल पूरे कर रही है. आज से 20 साल पहले तक दास्तानगोई थी भी और नहीं भी. जो इसे जानते थे वो खुद दास्तान बन चुके थे और तकरीबन 100 सालों तक इसके फनकार यूं समझिए कि नापैद (पनपे नहीं) रहे. खुशी मनाइये कि पिछले 20 साल दास्तानगोई के इंकलाब के गवाह रहे हैं. ये इंकलाबी सुबहें जिस शख्स की कोशिशों से रौशन हैं, उसका नाम है महमूद फारूकी.

कर्ण की दास्तान सुनाते मशहूर फनकार और दास्तानगो महमूद फारूकी कर्ण की दास्तान सुनाते मशहूर फनकार और दास्तानगो महमूद फारूकी
विकास पोरवाल
  • नई दिल्ली,
  • 20 जनवरी 2025,
  • अपडेटेड 9:26 AM IST

पीली चमकदार तेज रौशनी से मंच के बीच का हिस्सा रौशन है. इस बीच वाले हिस्से में तख्त सजा है. दो मसनदें रखी हैं. सफेद चद्दर, जिस पर सिलवटों के निशान कहीं नहीं है, वो इंतजार में हैं किसी शख्स के कि वो आए और तशरीफ पेश लाए. तख्त के दोनों सिरों पर मोमबत्तियां हैं. मोमबत्तियों में लौ है. इनके बगल में ही दोनों ओर चांदीनुमा कटोरे आब (पानी) से भरे हैं.

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आग और पानी का ये साथ बहुत ताकतवर है. इतना ताकतवर कि आदमी को साल, सवा साल, कई सौ साल या और भी सदियों-युगों तक पीछे ले जाने की ताकत रखता है. क्योंकि वो आग ही तो थी जिसके धुएं पर बैठकर सभ्यता ने इतने युगों का सफर तय किया है और वो पानी ही तो था, जिसकी कयामत (प्रलय) से बचकर हम जिंदगी के किनारे लगे थे.

मंच का ये बखान अभी पूरा ही हुआ था कि एक सफेद चिकनकारी अंगरखा पहने एक शख्स तख्त के सामने नमूदार होता है और खवातीन-ओ-हजरात को आदाब अर्ज करते हुए बड़ी ही अदा से उस तख्त पर बैठ जाता है. न..न आप इस शख्स को तख्तनशीं कतई न समझिएगा. ये तख्त पर बैठा जरूर है, लेकिन तुगलक नहीं है. ये तो वो आदमी है, जिसके जेहन में न जाने ऐसे कितने तुगलकों की कहानियां परतों की शक्ल में है और ये भी कि तवारीख (इतिहास) लिखने वालों ने उनके लिए क्या दर्ज कर रखा है. सिर्फ तुगलक क्यों, ये वो शख्स है जो सुनाने पर आए तो सब सुनाता है. दरवेशों के किस्से, मजनुओं का हाल, बीती कोई बात, दिल के जज्बात. मजलूमों का दर्द और जख्मी के जख्म भी उसकी दास्तान में जगह पाते हैं. 

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बीता शनिवार ऐसे ही एक दास्तानगो की सोहबत में बीता. नाम महमूद फारूकी... और जब फारूकी साहब ने दास्तानगोई की हर रस्म को निभाते हुए किस्सा कहना शुरू किया तो जानते हैं क्या किया... बड़े ही नत भाव से कहा- ये दास्तान जिसकी है और वो जिस दास्तान का हिस्सा है, उसे जब मैं आपके सामने पेश करूं तो मेरा फर्ज बनता है कि उसे याद करूं जो इस दुनिया में हर दास्तान की वजह है. जो उसकी शुरुआत है और खात्मा भी. वो कौन? वो है नारायण...

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्. देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्.

ये महाभारत का पहला श्लोक है. जो कहता है कि हे नारायण आपको नमस्कार है. आपके साथ उस अर्जुन को भी नमस्कार जो नरों में उत्तम हैं. आपकी लीला को प्रकट कर लिखने की प्रेरणा देने वाली देवी सरस्वती को भी नमस्कार है कि वह मुझ व्यास को इस जयकाव्य को लिखने की प्रेरणा दें और जिसके पठन से आसुरी वृत्तियों का नाश हो और धर्म की जय हो, जय हो, जय हो. 

इस श्लोक के साथ मंच पर रोशनी बदलती है, तेज आभा अब फीकी सी होती है और इसी के साथ ऐसा लगता है कि हम सभी इस दास्तान के उसी युग में तकरीबन 5000 हजार साल पीछे चले गए हैं. जहां गंगा की शीतल और चांदनी में तरबतर लहरों के किनारे चंद्रवंशी राजाओं की राजधानी हस्तिनापुर है. इसका राजा शांतनु है जिसकी पहली पत्नी खुद यही नदी गंगा है. जिसका बेटा भीष्म नेजा (भाला) उठा ले तो देवताओं को भी हरा दे और जिसकी शमशीरों से देश पर्वत से सागर तट तक सुरक्षित है. पुश्तें बढ़ती हैं, जमाने बदलते हैं. शांतनु नहीं रहे, भीष्म की दाढ़ी बर्फ से सुफैद हो चली.  बच्चों की शादी हुई. अंधे धृतराष्ट्र को गांधारी मिली और पांडु ने कुंती को अपना बनाया.

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लेकिन, जरा ठहरिए... ये सुहाग सेज पर बैठी नई दुल्हन कुंती की पलकें भीगी क्यों हैं? इन्हीं भीगी पलकों के राज से पर्दा उठाते हुए दास्तानगो अपने उस किरदार पर आता है, जिसकी दास्तान को वो सुनाने वाला है. वो है कर्ण. कुंती का बेटा, विवाह से पहले जन्मा, जो था तो कौंतेय, लेकिन जीवन भर राधेय नाम से पहचाना गया. उसे रजवाड़ों से निकाला गया. जाति ने गुरु से ज्ञान न लेने दिया. शादी करने चला तो राजकुमारी ने ठुकराया और जब अपने बल पर कुछ बन पाया तो श्राप के बोझ तले दबा दिया गया. 

किसी ने कहा कि जा तेरा रथ उस दिन कीचड़ में फंस जाएगा, जिस दिन तू अपनी सबसे जरूरी लड़ाई लड़ रहा होगा. गुरु परशुराम ने श्राप दे दिया कि जिस दिन तुझे सबसे अधिक जरूरत होगी तो मेरी सिखा विद्या भूल जाएगा. जब दोस्त का साथ देने चला तो गोविंद भी आ गए ये बताने कि अरे तू अब तक खुद को राधेय समझता है, अरे सबसे बड़ा कौंतेय तो तू है. जिस मां के लिए जीवन भर तरसा वो भी आंचल फैलाए आ गई और अपने बेटों का जीवन भीख में मांग ले गई. रही सही कसर पूरी कर दी देवताओं के राजा इंद्र ने, जो ब्राह्मण बनकर आए और मांग ले गए वो कवच कुंडल, जिसके रहते कर्ण को कोई हरा नहीं सकता था. 

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रह गया तो अकेला कर्ण गंगा के जल में कमर तक खड़ा वो जांबाज लड़ाका जिसके सीने से चिपके कवच को उतारने से गहरे घाव बन गए हैं. जिनसे बहता लहू रह-रहकर गंगा को लाल कर रहा है, लेकिन कर्ण को चुभ रहे हैं वो अनदेखे घाव, जो पैदाइश के साथ ही उसके सीने पर पड़ने लगे थे. उनकी दवा कौन लाए?

फारूकी ने कर्ण की जिंदगी के कई अहम वाक़ियात (घटनाक्रम) को दास्तानगोई के जरिए रोशन किया. उनके तस्सवुर की दुनिया में कर्ण की पहचान का बोहरान (Identity Crisis), उनका सखावत भरा मिजाज, उनकी जंगी सलाहियत के साथ वो मुश्किल लम्हा भी शामिल रहा, जब उनकी जन्म देने वाली मां कुंती उनसे कहती हैं कि वह अपने असली भाइयों, पांडवों का साथ दें. लेकिन कर्ण का दिल अपने अजीज दोस्त दुर्योधन के लिए धड़कता है.

इस बात को दास्तानगो महमूद फारूकी कर्ण की जिंदगानी पर लिखी रामधारी सिंह 'दिनकर' की रश्मीरथी के सहारे जब बताते हैं तो इस काव्यकृति के एक-एक शब्द जीवंत हो उठते हैं. फारूकी ने कर्ण के जज्बात को अपने हुनर और ज़ोरदार जिस्मानी हरकतों से इस तरह पेश किया कि वो सिर्फ दास्तान नहीं रही, बल्कि जिंदा तस्वीर बन गई.

कर्ण का किरदार उस शख्स की मिसाल है जो अपनी जिम्मेदारियों और अवामी फराइज़ के बीच फंसा हुआ है. उसका वजूद न सिर्फ जात-पात की दीवारों में कैद है, बल्कि उसे हमेशा अपने औसाफ (खूबियां) को साबित करने की कोशिश करनी पड़ी. उनकी ये दास्तान आज भी हमारे समाज के तास्सुबात (पक्षपात) और तफरकों (बंटा होना) की हकीकत को उजागर करती है.

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कर्ण की ये दास्तान मौजूदा दौर के तमाम मसाइल (समस्या और मुद्दे) पर भी रोशनी डाली. उन्होंने कहा, "कर्ण की हिकायत (गाथा) सिर्फ एक इंसान की नहीं, बल्कि एक ऐसे निज़ाम (व्यवस्था) की है, जो कमजोरों को दबाता है. आज भी समाज में जात-पात और मज़हब के नाम पर होने वाले तफरक़े (बंटवारे) इसी कहानी की ताजा मिसाल हैं."

फारूकी ने इस पेशकश को मुकम्मल बनाने के लिए कई अदबी और तारीखी मतन (एतिहासिक दस्तावेजों) का गहराई से मुतालअ (अध्ययन) किया. उन्होंने संस्कृत और हिंदी महाभारत के अलावा रामधारी सिंह दिनकर की लिखी रश्मिरथी, पाकिस्तान के खलीफा अब्दुल हकीम का भगवद गीता का तर्जुमा, तोता राम शायां का 200 साल पुराना उर्दू में महाभारत का अनुवाद, अकबर के हुक्म पर तैयार रज़्मनामा और इरावती कर्वे की किताब युगांत का भी इस्तेमाल किया.

फारूकी ने अपनी कहानी कहने की सलाहियत को फारसी, उर्दू, हिंदी और संस्कृत के लहजे और अल्फाज से निखार कर पेश किया. उन्होंने भगवद गीता और कुरान के तआल्लुकात पर भी बातें कीं और बताया कि इंसानी जिंदगी और जंग-ओ-सुलह के मसाइल (मामले-मुद्दे) में तमाम मज़हब किस कदर आपस में जुड़े हुए हैं.

कर्ण की दास्तान यह सिखा गई कि इंसान की अज़मत (गौरव) उसकी कामयाबी या नाकामी में नहीं, बल्कि उसके उसूलों और जज्बे में होती है. महमूद फारूकी की ये पेशकश न सिर्फ महाभारत के तात्तबीक (रेलेवंसी) को आज के दौर में समझने का मौका देती है, बल्कि यह हमें अपने समाज के हकीकी मसाइल (सच्ची तस्वीर) का जायजा लेने की भी दावत देती है. कर्ण की शख्सियत, उनकी कुर्बानियां और उनका दर्द हमें याद दिलाते हैं कि हर दौर में इंसाफ और बराबरी की आवाज जिंदा रहती है. उनकी दास्तान हमारे दिलों और जहनों में हमेशा गूंजती रहेगी.

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कर्ण की इस दास्तान को सुनना और इससे पहले उसे जानने-समझने के लिए गीता, पुराण का पाठ करना ये थोड़ा मुश्किल तो रहा होगा. इस सवाल के जवाब में महमूद फारूकी कहते हैं कि, नहीं ऐसी कोई बात नहीं रही. आपने जायसी का नाम सुना होगा. अब्दुल रहीम खानखाना को सुना होगा. अमीर खुसरो को जानते होंगे. रसखान को पहचानते होंगे. ये नाम गिनाकर वह कहते हैं कि हम इसी परंपरा के लोग हैं. हम कला के साथ बंटवारा नहीं कर सकते. फन से अलग नहीं हो सकते हैं. जो संस्कृत पढ़ना जानेगा और वो अरबी, उर्दू, फारसी हर जुबान को पढ़ भी लेगा और समझ भी लेगा और उन्हें खूबसूरती के साथ बोल भी लेगा. बस यही बात-यही भरोसा हमें मंच तक पहुंचाता है, उसके आगे तो सब ऊपर वाले और सुनने वालों के हाथ में. इस दास्तानगोई को 20 साल हो गए हैं, और इतना लंबा वक्त लोगों के प्यार और भरोसे के जरिए ही बीता है. सफर आगे भी जारी रहेगा.

यार ये दास्तानगोई चीज क्या है?
किस्से-कहानियों को कविता के जरिए, हाव-भाव के साथ और कई बार इसे संवादों के तौर पर प्रस्तुत करना ही दास्तानगोई है. कहानियों का नाटकीय अंदाज में सुनाना और बड़े ही प्रभावी ढंग से दर्शकों के सामने रखना कि वह नाटक न हो पर नाटक से कम भी न लगे. इसका शाब्दिक अर्थ है 'कहानी सुनाना' (दास्तान यानी कहानी, गोई यानी सुनाना)

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कहते हैं कि यह फन मुख्य रूप से फारस (वर्तमान ईरान) से उपजा और मुगल काल के दौरान भारत में लोकप्रिय हुआ. 16वीं और 17वीं शताब्दी में यह शाही दरबारों में मनोरंजन का प्रमुख साधन था. दास्तानगोई का सुनहरा युग उर्दू साहित्य के साथ जुड़ा है. प्रसिद्ध "दास्तान-ए-अमीर हम्ज़ा" इसकी सबसे प्रमुख कृति मानी जाती है. यह कहानियां बहादुरी, प्रेम, जादू, और रहस्य पर आधारित होती थीं.

हालांकि दास्तानगोई के ईरान से पैदा होने की बात सच है, लेकिन पूरी तरह नहीं. इसे यूं कहना चाहिए कि ईरान से दास्तानगोई की एक अलग शैली इस फन में जुड़ी. क्योंकि भारत में इससे बहुत पहले स्मृतिगाथाएं और श्रुतिग्रंथ मौजूद हैं. पुराण कथाओं की पूरी परिपाटी कई-कई वर्षों तक ऋषियों द्वारा अपने शिष्यों को सुनाने के आधार पर विकसित हुई और पीढ़ी दर पढ़ ये ज्ञान सिर्फ सुनाकर ही आगे बढ़ाया गया. पंचतंत्र लिखने वाले आचार्य विष्णु शर्मा ने राजा के तीन लड़कों को ज्ञान देने के लिए नैतिक शिक्षा की कहानियों की लंबी शृंखला सुनाई. बौद्ध धर्म में शामिल जातक कथाओं की शृंखला दास्तानागोई का ही एक स्वरूप है.

मशहूर दास्तानगोई के फन की खासियतें
दास्तानगो कहानियों को एक लय और संगीतात्मक शैली में प्रस्तुत करता है. इसमें उर्दू, फारसी और अरबी के शब्दों का प्रयोग होता है, जो इसे खास बनाते हैं. दास्तानगो केवल कहानी नहीं सुनाते बल्कि उसमें हावभाव, आवाज़ के उतार-चढ़ाव और नाटकीय अंदाज़ से जान डालते हैं. कभी-कभी दास्तानगोई में दो कलाकार मिलकर कहानी को संवादों के रूप में प्रस्तुत करते हैं.
20वीं शताब्दी के अंत और 21वीं शताब्दी की शुरुआत में इस कला को पुनर्जीवित किया गया. महमूद फारूकी ने इसे फिर से लोकप्रिय बनाया और इस विधा में ये दोनों नाम स्वर्णिम हस्ताक्षर हैं. दास्तानगोई केवल मनोरंजन नहीं है, यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर है. यह साहित्य, इतिहास और लोककथाओं को जीवंत बनाए रखने का एक माध्यम है. आधुनिक दौर में इसे नाटक, फिल्म और कहानी सुनाने की अन्य विधाओं से जोड़ा जा रहा है.

कौन हैं महमूद फारूकी?
दास्तानगोई' इस साल अपने रिवाइवल के 20 साल पूरे कर रही है. आज से 20 साल पहले तक दास्तानगोई थी भी और नहीं भी. अजी यूं समझिए कि खान में दबी हुई चमक के जैसे गुम सी थी. जो इसे जानते थे वो खुद दास्तान बन चुके थे और तकरीबन 100 सालों तक इसके फनकार यूं समझिए कि नापैद (पनपे नहीं) रहे. खुशी मनाइये कि पिछले 20 साल दास्तानगोई के इंकलाब के गवाह रहे हैं. ये इंकलाबी सुबहें जिस शख्स की कोशिशों से रौशन हैं, उसका नाम है महमूद फारूकी.

ये उनकी ही मेहनत और वर्जिश है कि आज लोग दास्तानगोई को सिर्फ जानते ही नहीं बल्कि उसके दीवाने भी हैं. महमूद फारूकी का नाम इस मामले में बड़े अदब के साथ लिया जाना चाहिए कि सैकड़ों साल पुरानी कला, जिसने इससे पहले अपनी आखिरी सांस 1928 में ली थी, वह तकरीबन 80 साल बाद 2005 में फिर से जिंदा हो जाती है. आज दोबारा जिंदा हो उठा ये फन 20 साल का जवान हो चुका है.

इन 20 सालों में महमूद और उनकी टीम अपनी कहानियों के साथ दुनिया भर में घूमे हैं, हजार से ज्यादा शो किए हैं. लोगों को दास्तानगोई के मायने समझाए हैं, पुरानी दास्तानें सुनाई हैं, नई दास्तानें सुनाई हैं, नए दास्तानगो और नए सुनने वाले पैदा किए हैं और इन सबसे ऊपर कहानियों के इस मुल्क में कहानी सुनने-सुनाने की परंपरा को उसका खोया हुआ रुतबा वापस दिलाया है. इस रुतबे को वापस दिलाने के लिए उन्होंने दास्तानगोई कलेक्टिव नाम से एक रजिस्टर्ड चैनल शुरू किया है. पिछले 20 सालों में कला और संस्कृति की दुनिया में दास्तानगोई ने एक बिल्कुल नया अध्याय जोड़ा है. इस कला ने लोगों को फिर से वाचिक परंपरा यानी ओरल ट्रेडिशन के नजदीक ले जाने का काम किया है. भारत की भारतीयता का परिचय फिर से गाथाओं की उस अनमोल विरासत से कराया है, जो वक्त के साथ भुला दी गई थीं.
 

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