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महिला को अपना सरनेम बदलने के लिए पति के NOC की जरूरत क्यों पड़ी? जानिए पूरा मामला

दिल्ली हाईकोर्ट के एक्टिंग चीफ जस्टिस मनमोहन और जस्टिस मनमीत प्रीतम सिंह अरोड़ा की डिवीजन बेंच ने आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के प्रकाशन विभाग की अधिसूचना को चुनौती देने वाली महिला की याचिका पर सुनवाई की. याचिका में उस अधिसूचना को चुनौती दी गई थी, जिसमें महिला को अपना सरनेम बदलने के लिए पति से एनओसी की जरूरत पड़ती है.

महिला को अपना सरनेम बदलने के लिए पति के NOC की जरूरत क्यों पड़ी? (प्रतीकात्मक तस्वीर) महिला को अपना सरनेम बदलने के लिए पति के NOC की जरूरत क्यों पड़ी? (प्रतीकात्मक तस्वीर)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 01 मार्च 2024,
  • अपडेटेड 11:22 AM IST

दिल्ली हाईकोर्ट (Delhi High Court) ने गुरुवार को एक महिला के द्वारा दायर की गई याचिका पर सुनवाई की, जिसमें महिला को अपना शादी से पहले वाला सरनेम हासिल करने के लिए 'तलाक के आदेश' या पति से अनापत्ति प्रमाण पत्र (NOC) की अनिवार्यता को चुनौती दी गई है. इस मुद्दे पर अदालत ने नोटिस जारी करते हुए केंद्र सरकार का रुख पूछा है.

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एक्टिंग चीफ जस्टिस मनमोहन और जस्टिस मनमीत प्रीतम सिंह अरोड़ा की डिवीजन बेंच ने आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के प्रकाशन विभाग (Department of Publication Ministry) की अधिसूचना को चुनौती देने वाली महिला की याचिका पर केंद्र को नोटिस जारी किया है. सरकार को 28 मई तक अपना जवाब दाखिल करना है, जब मामले की अगली सुनवाई होगी.

महिला ने याचिका में क्या कहा है?
महिला के द्वारा दायर की गई याचिका में कहा गया है कि अधिसूचना साफ तौर से भेदभावपूर्ण, मनमानी और अनुचित है और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है.

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याचिका में दावा किया गया है कि अधिसूचना चल रही तलाक की कार्यवाही के बीच याचिकाकर्ता के अपने मौजूदा सरनेम को अपने शादी से पहले वाले सरनेम में बदलने के अधिकार में बाधा पैदा कर रही है. महिला ने यह भी दावा किया है कि अधिसूचना लिंग के आधार पर पूर्वाग्रह दर्शाती है और विशेष रूप से महिलाओं पर अतिरिक्त और असंगत जरूरतें लागू करके ऐसा भेदभाव पैदा करती है, जो बिल्कुल भी स्वीकार करने लायक नहीं है. 

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महिला द्वारा दायर की गई याचिका में आगे कहा गया है कि यह विशेष रूप से महिलाओं के लिए अभिव्यक्ति की आजादी और व्यक्तिगत पहचान को अनुचित रूप से कम करता है क्योंकि इसमें पति से एनओसी या तलाक की एक प्रति को जरूरी बताया गया है. यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, क्योंकि व्यक्ति की पसंद का नाम उसकी आत्म-अभिव्यक्ति और पहचान का एक अहम पहलू होता है.

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सरनेम बदलने के पीछे की क्या है पूरी कहानी?
दिल्ली की एक चालीस वर्षीय महिला ने सितंबर 2014 में कानूनी तौर पर अपने पति का सरनेम अपनाया था. इस बदलाव को आधिकारिक तौर पर डॉक्यूमेंट किया गया और भारत के राजपत्र (The Gazette of India) में भी पब्लिश किया गया था. इसके बाद साल 2019 में महिला ने फिर से अपने नाम में बदलाव किया और अपने नाम में अपना सरनेम और पति का सरनेम दोनों जोड़ लिया. 

हालांकि, उस वक्त केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के प्रकाशन विभाग द्वारा एक अधिसूचना (Undated) जारी की गई थी. यह अधिसूचना विशेष रूप से शादी के पहले वाला सरनेम प्राप्त करने से संबंधित थी. इस अधिसूचना में कहा गया है कि अगर कोई विवाहित महिला अपना पहले वाला सरनेम वापस पाना चाहती है, तो उसे तलाक पेपर की एक कॉपी या अपने पति से एनओसी लेकर जमा करनी होगी. इसमें यह भी कहा गया है कि अगर मामला कोर्ट में है, तो आखिरी फैसला आने तक सरनेम बदलने की प्रक्रिया नहीं की जा सकती.

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पिछले साल अगस्त में महिला ने दिल्ली की एक कोर्ट में हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत तलाक की याचिका दायर की थी. वह मौजूदा वक्त में तलाक की प्रक्रिया फॉलो कर रही हैं और अब सभी सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक और अन्य उद्देश्यों के लिए अपने शादी से पहले वाले सरनेम को वापस पाना चाहती हैं. 

याचिकाकर्ता ने कोर्ट से कहा है कि 'शादी के पूरी तरह से टूटने के मद्देनजर' वो अब अपना नाम बदलना चाहती हैं और अपना पहले वाला सरनेम अपनाना चाहती हैं  लेकिन सरकारी अधिसूचना की वजह से वो ऐसा नहीं कर पा रही हैं. अधिसूचना को चुनौती देते हुए महिला ने 27 फरवरी को दिल्ली हाईकोर्ट में इसको रद्द करने का निर्देश देने की मांग की.
 

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