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15 दिन से मोर्चरी में रखा शव, दफनाने पर विवाद... सुप्रीम कोर्ट ने कहा- मामले को सौहार्दपूर्वक निपटाएं

छत्तीसगढ़ सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि अंतिम संस्कार ईसाई आदिवासियों के लिए निर्दिष्ट क्षेत्र में होना चाहिए, जो परिवार के छिंदवाड़ा गांव से लगभग 20-30 किलोमीटर दूर स्थित है. पीठ ने कहा, "शव 15 दिनों से मुर्दाघर में है, कृपया कोई समाधान निकालें. व्यक्ति को सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार करने दें. सौहार्दपूर्ण समाधान होना चाहिए."

सुप्रीम कोर्ट में शव दफनाने का मामला पहुंचा है सुप्रीम कोर्ट में शव दफनाने का मामला पहुंचा है
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 22 जनवरी 2025,
  • अपडेटेड 5:28 PM IST

छत्तीसगढ़ के एक गांव में शव दफनाने के विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि उसे एक सौहार्दपूर्ण समाधान और पादरी के सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार की उम्मीद है, जिसका शव 7 जनवरी से शवगृह में पड़ा हुआ है. साथ ही, उसने पादरी के बेटे की याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है.

जस्टिस बी वी नागरत्ना और सतीश चंद्र शर्मा की पीठ रमेश बघेल नामक व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उसके पिता को उसके गांव के कब्रिस्तान में ईसाईयों के लिए निर्दिष्ट क्षेत्र में दफनाने की उसकी याचिका का निपटारा कर दिया गया था.

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पीठ ने कहा, "शव 15 दिनों से मुर्दाघर में है, कृपया कोई समाधान निकालें. व्यक्ति को सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार करने दें. सौहार्दपूर्ण समाधान होना चाहिए."

छत्तीसगढ़ सरकार का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि अंतिम संस्कार ईसाई आदिवासियों के लिए निर्दिष्ट क्षेत्र में होना चाहिए, जो परिवार के छिंदवाड़ा गांव से लगभग 20-30 किलोमीटर दूर स्थित है.

बघेल की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता कोलिन गोंजाल्विस ने कहा कि राज्य का हलफनामा यह दावा करता है कि ईसाई आदिवासियों के लिए गांव से बाहर जाकर शव दफनाना एक परंपरा है, जो झूठ है. गोंजाल्विस ने गांव के राजस्व मानचित्रों को रिकॉर्ड में पेश किया और तर्क दिया कि ऐसे कई मामले हैं जिनमें समुदाय के सदस्यों को गांव में ही दफनाया गया.

पीठ ने हिंदू आदिवासियों की अचानक आपत्ति पर आश्चर्य व्यक्त किया, क्योंकि वर्षों से किसी ने दोनों समुदायों के लोगों को एक साथ दफनाने पर आपत्ति नहीं जताई. जब अदालत ने सुझाव दिया कि वैकल्पिक रूप से पादरी को उसकी निजी भूमि पर दफनाया जा सकता है, तो मेहता ने आपत्ति जताई और कहा कि दफन केवल निर्दिष्ट स्थान पर ही होना चाहिए जो 20-30 किलोमीटर दूर है.

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इसके बाद शीर्ष अदालत ने पक्षों की सुनवाई के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया.

शीर्ष अदालत ने पहले भी छत्तीसगढ़ के एक गांव में एक व्यक्ति द्वारा अपने पिता को ईसाई रीति-रिवाजों के अनुसार दफनाने के लिए अदालत का रुख करने पर दुख व्यक्त किया था, क्योंकि अधिकारी इस मुद्दे को सुलझाने में विफल रहे थे. बघेल के अनुसार, छिंदवाड़ा गांव में एक कब्रिस्तान था, जिसे ग्राम पंचायत ने शवों को दफनाने और दाह संस्कार के लिए मौखिक रूप से आवंटित किया था.

कब्रिस्तान में आदिवासियों को दफनाने, हिंदू धर्म के लोगों को दफनाने या दाह संस्कार करने और ईसाई समुदाय के लोगों के लिए अलग-अलग क्षेत्र निर्धारित किए गए थे. ईसाइयों के लिए निर्दिष्ट क्षेत्र में याचिकाकर्ता की चाची और दादा को इसी गांव के कब्रिस्तान में दफनाया गया था.

याचिका में कहा गया है कि याचिकाकर्ता और उसके परिवार के सदस्य व्यक्ति का अंतिम संस्कार करना चाहते थे और कब्रिस्तान में ईसाई व्यक्तियों के लिए निर्दिष्ट क्षेत्र में उसके पार्थिव शरीर को दफनाना चाहते थे.

याचिका में कहा गया, "यह सुनकर कुछ ग्रामीणों ने इसका आक्रामक रूप से विरोध किया और याचिकाकर्ता और उसके परिवार को इस भूमि पर याचिकाकर्ता के पिता को दफनाने पर गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी. वे याचिकाकर्ता के परिवार को याचिकाकर्ता के निजी स्वामित्व वाली भूमि पर शव को दफनाने की अनुमति भी नहीं दे रहे हैं."

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बघेल के अनुसार, ग्रामीणों ने कहा कि उनके गांव में एक ईसाई को दफनाया नहीं जा सकता, चाहे वह गांव का कब्रिस्तान हो या निजी भूमि. उन्होंने कहा, "जब ग्रामीण हिंसक हो गए, तो याचिकाकर्ता के परिवार ने पुलिस को सूचना दी, जिसके बाद 30-35 पुलिसकर्मी गांव पहुंचे. पुलिस ने परिवार पर शव को गांव से बाहर ले जाने का दबाव भी बनाया."

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