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100 दिनों में दिखे किसान आंदोलन के रंग, मौसम की रंगत-फोकस भी बदला!

सिंघु और टीकरी बॉर्डर पर किसानों के जमावड़े के कुछ दिनों बाद यूपी बॉर्डर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का जमघट लगना शुरू हुआ. हालांकि नवंबर के आखिर और दिसंबर की शुरुआत में तो यूपी बॉर्डर सिर्फ नाम भर को था कि किसान वहां भी जमा हैं.

किसानों का आंदोलन नवंबर के अंतिम हफ्ते में शुरू हुआ था (पीटीआई) किसानों का आंदोलन नवंबर के अंतिम हफ्ते में शुरू हुआ था (पीटीआई)
संजय शर्मा
  • नई दिल्ली,
  • 06 मार्च 2021,
  • अपडेटेड 12:30 AM IST
  • 25 नवंबर को आंदोलन के लिए किसानों का आना शुरू हुआ
  • 100 दिन बाद भी किसानों का आंदोलन जारी, दायरा भी बढ़ा
  • नेता राकैश टिकैत के आंसुओं ने बदल दी आंदोलन की दिशा

किसान पिछले 100 दिनों से दिल्ली की सरहद पर डटे हैं. इन 100 दिनों में मौका, मौसम और माहौल के साथ फोकस भी बदला. गम, गुस्सा और गणित सभी में कभी तोला कभी माशा और कभी रत्ती का बदलाव दिखा.

जब 25 नवंबर को आंदोलन के लिए किसानों का आना शुरू हुआ था तो दिल्ली और एनसीआर में गुलाबी सर्दी दस्तक दे रही थी. फोकस सिंघु बॉर्डर पर ही था. एक और जमावड़ा टीकरी बॉर्डर पर भी लगा, लेकिन सिंघु बॉर्डर पर पुलिस किसान टकराव इस कदर हुआ कि देश-दुनिया में पानीपत और हल्दीघाटी या तराइन की तरह सिंघु बॉर्डर का नाम लोगों को रट गया.

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छिटपुट झड़प टिकरी पर भी होती रही. लेकिन सिक्का तो सिंघु का ही चला. किसान पूरे लाव लश्कर और इंतजाम के साथ आ डटे. सर्दी का पूरा इंतजाम लेकर इस भरोसे के साथ कि सर्दी निपटते निपटते सरकार के कश ढीले पड़ जाएंगे. जीत का परचम लहराते हुए सभी ट्रैक्टर अपने अपने गांव खेड़े तक लौटेंगे.

11 दौर के बाद वार्ता रुकी

कड़ाके की सर्दियों में खुले आसमान के नीचे टेंट लगाए किसानों ने ठंड, बारिश और तूफान से मुकाबला करते हुए अलाव, मशाल और टायर बहुत कुछ जलाया. आंदोलन खिंचने लगा.

सरकार के साथ बातचीत के 11 दौर में भी पंजाब और हरियाणा के किसान ही हावी रहे. वही मुद्दे और रणनीति तय करते रहे.

इसी बीच गणतंत्र दिवस आया. ट्रैक्टर मार्च की आड़ में जो हंगामा बरपा उससे तो गणतंत्र भी कांप गया. दुनिया भर में किरकिरी हुई सो अलग. आंदोलनकारी किसानों को भी इस घटना पर जवाब देना भारी पड़ गया. यानी सीधे चुभते सवालों पर किसान नेता बंगले झांकते नजर आए.

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सिंघु और टिकरी बॉर्डर पर किसानों के जमावड़े के कुछ दिनों बाद यूपी बॉर्डर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का जमघट लगना शुरू हुआ. हालांकि नवंबर के आखिर और दिसंबर की शुरुआत में तो यूपी बॉर्डर सिर्फ नाम भर को था कि किसान वहां भी जमा हैं.

यूपी के किसान के उग्र तेवर

26 जनवरी को पहली बार यूपी के किसान भी उग्र तेवरों में दिखे. ट्रैक्टरों से दिल्ली पुलिस की बसों को धकियाते रोड डिवाइडर धवस्त करते तय मार्ग को धता बताते किसान दिल्ली में ऐसे घुसे जैसे उफनते बाढ़ का पानी.

इस मामले में यूपी बॉर्डर के किसानों ने भी अपना मुकाम बना लिया. वर्ना तो हरियाणा और पंजाब के किसान तो यूपी के किसानों को काचा भाट (कच्चा पत्थर) ही मानते थे. यूपी के जाट, का भाट, जब तोले तो घाट ही घाट! लेकिन इस बार यूपी के किसानों ने ये बात उलट दी.

सरकार ने शिकंजा कसा और टीकरी, सिंघु बॉर्डर के इलाकों में इंटरनेट बंद कर दिया. पंजाब हरियाणा के आधुनिक किसानों की नई पीढ़ी की तो मानो जिंदगी बेरंग और बोर हो गई. वो तो अपना लाव लश्कर लेकर कूच कर गए. लेकिन एक तबका जिनको 'अपनी जमीन बचाने की फ़िक्र' थी वो डटे रहे.

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अब बात करें फोकस शिफ्ट होने की. तो जिस रात यूपी बॉर्डर पर भारतीय किसान यूनियन के प्रमुख राकेश टिकैत की गिरफ्तारी की सनसनीखेज तैयारियां चल रही थीं और सारा मीडिया जगत दिल्ली के उत्तर पश्चिम सीमांत से पूर्वी सरहद पर आ जमा था. तभी माहौल बदला और राकेश टिकैत ने गिरफ्तारी देने से मना कर दिया.

आंसू बना टर्निंग पॉइंट

किसानों के हक की लड़ाई के लिए सब कुछ न्यौछावर करने की बात और आंसुओं की बाढ़ के साथ उनके बयान आए बस वही टर्निंग पॉइंट बन गया. आंदोलन उसी वक्त शिफ्ट हो गया. आंसुओं की बाढ़ से सहानुभूति की भाप उठना शुरू हो गई. अक्रोशित किसानों ने नए सिरे से प्रशासन को भी गोला लाठी लगा दी.

अब प्रशासन के लिए किसानों को हिलाना भी मुश्किल हो गया. यानी टिकैत रातो-रात टिक गए. गांव-गांव से उनके पीने के लिए घड़े लेकर चल पड़े लोग लुगाई!

इसके बाद ट्रैक्टर पर सवार टिकैत, हाईवे पर फूलों के बिरवे लगाते टिकैत, मंचों से गरजते टिकैत और हाईवे पर हल चलाने को तैयार टिकैत यानी कई अलग अलग रूपों में नजर आने लगे. सिंघु बॉर्डर पर भले पुलिस की पक्की बैरिकेडिंग हो लेकिन किसानों की तरफ से पक्की रणनीति और बयान टिकैत ही देने लगे. 

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चक्का जाम में यूपी, दिल्ली और उत्तराखंड को छूट रहेगी ये बयान भी टिकैत ने अपने बूते ही दे दिया. इस पर अन्य किसान संगठन काफी असहज हुए लेकिन अब कुछ किया भी नहीं जा सकता था. आंदोलन की कमान हाथ से निकल चुकी थी.

आंदोलन का फोकस मौसम की तरह बदल गया. कड़कड़ाती सर्दी की जगह कड़क धूप और शीतलहर की जगह तपती लू के थपेड़े आने लगे! आंदोलन का फोकस भी अब पश्चिम से पूरब की ओर आ गया.

 

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