
देश दुखी है, आंखे नम हैं. क्योंकि भारत ने अपने एक रत्न और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को सदा-सदा के लिए खो दिया है. लंबी बीमारी के बाद उन्होंने सोमवार शाम 5.46 पर दिल्ली के आर.आर अस्पताल में अंतिम सांस ली. पिछले साल की ही तो बात है जब इस राजनीतिक पुरोधा को भारत रत्न से नवाजा गया. वो तस्वीरें आज अनायास की जेहन में घूम रही हैं. उन्हें सवोच्च नागरिक सम्मान ही नहीं मिला, वो देश के सर्वोच्च पद पर भी रहे.
साल 2012 से 2017 तक वे देश के राष्ट्रपति रहे. इस दौरान देश बड़े राजनीतिक बदलाव से गुजरा, नरेंद्र मोदी उस यूपीए को हराकर प्रधानमंत्री बने जिस यूपीए में प्रणब दा कभी कैबिनेट मंत्री रहे, लेकिन एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि वो सरकार से किसी भी मामले में उलझे हों.
ये उनकी सुलझी शख्सियत ही थी जो उन्हें हर पार्टी में सम्मान दिलाती रही. ऐसी कोई पार्टी नहीं जिसमें उन्हें चाहने वाले न रहे हों. लेकिन विडंबना देखिए कोरोना नाम की आफत ने उन्हें आखिरी समय में घेर लिया. वो भर्ती तो ब्रेन ट्यूमर की वजह से हुए थे, लेकिन तब पता चला कि उन्हें कोरोना भी है. बुजर्ग अवस्था में इस महामारी ने उनके अंगों को बुरी तरह प्रभावित किया. 12 अगस्त से ही वो वेंटिलेटर पर थे. लड़े, खूब लड़े, योद्धा थे, योद्धा की तरह लड़े. लेकिन बीमारी और उम्र के हाथों आखिरी बाजी जीत नहीं सके. देश उनकी नीतियों और नीयत को सराहता रहा है, देश उन्हें चाहता रहेगा.
25 जुलाई 2012 को प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली
आर्थिक जगत से लेकर राजनीति तक की गहरी समझ, कांग्रेस के सबसे पुराने क्षत्रपों में से एक और देश के सर्वोच्च पद तक पहुंचने वाले भारत रत्न प्रणब दा का जीवन अपने आप में संपूर्ण राजनीतिशास्त्र था. उनके जीवन में सीखने के लिए एक नहीं कई अध्याय हैं.
राष्ट्रपति के तौर पर प्रणब दा का कार्यकाल हमेशा याद रखा जाएगा. अपने कार्यकाल में उन्होंने लीक से हटकर कई फैसले लिए. प्रणब दा को तुरंत फैसला लेने के लिए भी याद किया जाएगा. मुंबई बम धमाकों के दोषी याकूब मेनन की फांसी की सजा इसका सबूत है.
पंडित जवाहर लाल नेहरू के विचारों से प्रभावित प्रणब दा को ये गंवारा नहीं हुआ कि उनको महामहिम कहा जाए. राष्ट्रपति हिंदुस्तान का पहला नागरिक होता है लेकिन होता तो नागरिक ही है ना. इसी समतावादी सोच को लेकर 25 जुलाई 2012 को प्रणब मुखर्जी ने भारतीय गणतंत्र के तेरहवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली कि राष्ट्रपति भी नागरिक होते हैं, महामहिम नहीं.
करीब 45 साल तक संसदीय राजनीति के हर दांव पेच को भी बारीकी से समझने वाले प्रणब दा जब राष्ट्रपति बने तो सवाल उठा कि क्या राष्ट्रपति भवन अपनी गरिमा के दायरे में रहेगी या राजनीति की गहमागहमी दिखेगी. लेकिन प्रणब दा ने बता दिया कि बिना विवादों में फंसे संविधान को संरक्षण कैसे दिया जाता है.
28 लोगों की फांसी की सजा को बरकरार रखा
अपने कार्यकाल में प्रणब मुखर्जी ने लीक से हट कर कई फैसले लिए. जो समाज के लिए खतरा और मानवता के लिए अभिशाप थे, उनपर कोई भी दया प्रणब दा ने नहीं दिखाई. कहां तो राष्ट्रपति के पास भेजी गई दया याचिकाएं लंबे समय तक धूल फांकती रहती थी और कहां प्रणब दा आ गए जिनको तुरंत फैसला लेने के लिए याद किया जाएगा. मुंबई बम धमाकों के दोषी याकूब मेनन की फांसी की सजा इसका सबूत है.
सिर्फ याकूब मेनन ही क्यों, चाहे मुंबई हमले का दोषी अजमल कसाब हो या संसद हमले का दोषी अफजल गुरू, इन दोनों की फांसी की सजा पर मुहर लगाने में प्रणब मुखर्जी ने बिल्कुल देर नहीं लगाई.
प्रणब मुखर्जी ने हत्या और बलात्कार के दोषी पाए गए 28 लोगों की फांसी की सजा को बरकरार रखा. अपने कार्यकाल में उन्होंने चार लोगों को क्षमादान भी दिया. तब ये चुटकी ली जाने लगी थी कि दुर्दांत अपराधी भी यही चाहता था कि उसकी दया याचिका की फाइल प्रणब दा तक न पहुंचे. लेकिन उनके व्यक्तित्व का सबसे अहम पहलू था 2014 में आई मोदी सरकार के साथ बेहतर तालमेल.
कहां इंदिरा गांधी से लेकर सोनिया गांधी की कांग्रेस में अहम भूमिका निभाते हुए राष्ट्रपति पद तक पहुंचे प्रणब मुखर्जी और कहां नेहरू गांधी परिवार के विरोध की बुनियाद पर मील का पत्थर गाड़ने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. लेकिन राजनीतिक असहमति को संवैधानिक मर्यादा के रास्ते में पत्थर नहीं बनने दिया. मोदी सरकार से अच्छे संबंध बनाने में प्रणब दा सफल रहे.
भूमि कानून पर आए अध्यादेश को प्रणब दा ने पास कर दिया
राष्ट्र के संवैधानिक प्रमुख के रूप में उन्होंने प्रदेश के राज्यपालों के सम्मेलन बुलाए और कई बार वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए भी उनसे जुड़े. अलग अलग सवालों पर सभी पार्टियों के सांसद उनसे मिलते रहे और सभी पार्टियों के नेताओं के लिए भी उन्होंने राष्ट्रपति भवन के दरवाजे खुले रखे.
देश के संवैधानिक मुखिया के रूप में प्रणब मुखर्जी की भूमिका हमेशा सवालों से परे रही लेकिन कुछ सवाल भी उठे. उत्तराखंड में बिना राज्यपाल की सही संस्तुति के राष्ट्रपति शासन लागू करने पर बवाल मचा जिसको बाद में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने ही हटाने का फैसला सुनाया. अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल की भूमिका पर सवाल किए बगैर राष्ट्रपति शासन लागू करने पर भी सवाल उठे. साथ ही विपक्ष उस समय बहुत नाराज हुआ जब भूमि कानून पर आए अध्यादेश को प्रणब दा ने पास कर दिया.
वैसे संविधान के मर्मज्ञ मानते हैं कि राष्ट्रपति के रूप में अध्यादेश को मानना उनकी संवैधानिक मजबूरी थी. इस दौरान सियासत की आपाधापी के बीच उनका बेहद भावुक और मानवीय पक्ष भी सामने आया. एक बार शिक्षक दिवस पर राष्ट्रपति भवन परिसर में ही बने स्कूल में वो छात्रों को पढ़ाने के लिए पहुंच गए.
राष्ट्रपति बनने से पहले वो इंदिरा गांधी और मनमोहन सिंह की सरकार में वित्त मंत्री भी रहे. संयोग देखिए कि उनके ही हाथों जीएसटी कानून को संसद के सेंट्रल हॉल में आधी रात को अमलीजामा पहनाया गया. प्रणब दा ने संवैधानिक मर्यादाओं की एक लक्ष्मण रेखा खींच दी थी जिसके उल्लंघन से लोकतंत्र का अपहरण हो सकता है. वो मर्यादाएं आने वाले लंबे समय तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को रास्ता दिखाती रहेंगी.
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