Advertisement

हाथरस गैंगरेप केस पर SC में PIL, दोषी पुलिस-मेडिकल अधिकारियों पर कार्रवाई की मांग

हाथरस केस को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में दोषी पुलिस वालों और मेडिकल ऑफिसर्स के खिलाफ तत्काल सस्पेंड कर करवाई की भी मांग की गई है. याचिका में दिशा-निर्देश बनाने की भी मांग की गई ताकि भविष्य में किसी भी पीड़ित परिवार का कानून से भरोसा न उठे जैसा हाथरस के परिवार का उठा है.

सुप्रीम कोर्ट (फाइल-पीटीआई) सुप्रीम कोर्ट (फाइल-पीटीआई)
संजय शर्मा
  • नई दिल्ली,
  • 03 अक्टूबर 2020,
  • अपडेटेड 7:31 PM IST
  • सुषमा मौर्या ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की यह याचिका
  • इलाहाबाद हाईकोर्ट में भी हैबियस कॉर्पस याचिका दाखिल
  • HC में पीड़िता के परिजनों के नारको टेस्ट पर रोक की मांग

हाथरस गैंगरेप केस का मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है. देश की सबसे बड़ी अदालत में केस को लेकर एक जनहित याचिका दाखिल की गई है जिसमें सुप्रीम कोर्ट से मामले में संज्ञान लेने की मांग की गई है. साथ ही हाईकोर्ट की निगरानी में जांच की मांग की गई है ताकि एक भी दोषी बच न पाएं.

सुप्रीम कोर्ट में दाखिल याचिका में दोषी पुलिस वालों और मेडिकल ऑफिसर्स के खिलाफ तत्काल सस्पेंड कर करवाई की भी मांग की गई है. याचिका में दिशा-निर्देश बनाने की भी मांग की गई ताकि भविष्य में किसी भी पीड़ित परिवार का कानून से भरोसा न उठे जैसा हाथरस के परिवार का उठा है. सुषमा मौर्या की ओर से यह याचिका दाखिल की गई है. 

Advertisement

हाथरस मामले में ही साकेत गोखले ने भी इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दाखिल की है. याचिका में पीड़िता के परिजनों का नारको टेस्ट कराने के खिलाफ याचिका लगाई गई है.

यही नहीं द बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया ने भी इलाहाबाद हाईकोर्ट में हैबियस कॉर्पस याचिका दाखिल की. याचिका में आरोप लगाया गया है कि पीड़ित परिवार को प्रशासन ने हाउस अरेस्ट कर रखा है. ऐसे में पीड़ित परिवार को प्रशासन के हाउस अरेस्ट से मुक्त कराया जाए. साथ ही पीड़ित परिवार को सुरक्षा भी मुहैया कराई जाए.

नारको टेस्ट पहला मामला नहीं- विशेषज्ञ
अपराधिक कानून के विशेषज्ञ वकील सुशील टेकरीवाल का कहना है कि हाथरस कांड में पीड़ित परिवार का नारको टेस्ट कोई ऐसा पहला मौका नहीं है. पहले भी पीड़ित परिवारों के नारको टेस्ट कराए जाते रहे हैं.

उन्होंने कहा कि पीड़िता की पहचान सार्वजनिक करना भी अपराध है. आईपीसी की धारा 228 सी के मुताबिक ये दंडनीय अपराध भी है क्योंकि पहचान सार्वजनिक करना किसी भी पीड़ित के चरित्र और जीवन पर लांछन लगने के बराबर है. उन्होंने कहा कि पीड़िता के मौत से पहले के बयान को सुप्रीम कोर्ट ने भी 1958 के कुशल राव बनाम बॉम्बे स्टेट के मुकदमे में विस्तार से बताया. उस मुकदमे में कोर्ट ने गाइडलाइन जारी कर मृत्यु से ऐन पहले दिए गए बयान को प्राथमिकता और सत्यता का संदेह से परे का बयान माना.
 
वकील सुशील टेकरीवाल ने कहा कि कानून सबूत भी मांगता है. लिहाजा वैज्ञानिक सबूत को भी मान्यता मिलेगी. इस विषम परिस्थिति में जब पीड़िता का बयान और पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट बिल्कुल उलट है तो अदालत का विवेक ही तय करेगा कि आखिर सच्चाई क्या है.

Advertisement

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement