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Independence day: चर्चिल की चालें, फिरंगियों के फिकरे...सबको करारा जवाब हैं भारत के ये 75 साल!

15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ और लोकतंत्र का रास्ता चुना तो उस समय यूरोप के कई राजनेता, नौकरशाह और पत्रकार ये मानने के लिए तैयार ही नहीं थे कि भारत में लोकतंत्र का प्रयोग कभी सफल हो पाएगा. इनका मानना था कि कई जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र में बंटे इस नये और खंडित राष्ट्र में जनतंत्र सफल हो ही नहीं पाएगा. ब्रिटेन के PM रहे विंस्टन चर्चिल नस्लीय नफरत में सराबोर होकर इस बात का बढ़ चढ़कर ढिंढोरा पीटते थे. आज 75 सालों के बाद हम गर्व से कह सकते हैं कि भारत ने इन साम्राज्यवादियों की भविष्यवाणियों को झूठा साबित किया है.

भारत आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है. (फोटो- PTI) भारत आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है. (फोटो- PTI)
पन्ना लाल
  • नई दिल्ली,
  • 15 अगस्त 2022,
  • अपडेटेड 10:04 AM IST

15 अगस्त 1947 को जवाहर लाल नेहरू ने नियति के साथ जो साक्षात्कार किया था, उस दौर के 75 साल गुजर चुके हैं. आज हिन्दुस्तान 15 अगस्त 2022 को अपनी स्वतंत्रता के 75 साल पूरे होने का जश्न मना रहा है. ये जश्न जवाब है उन आशंकाओं का, उन ईर्ष्याओं का, उन उपेक्षओं का जो 1947 में हमारे तरुण भारत को लेकर जाहिर की गई थीं. साम्राज्यवादी दंभ और White Man's Burden के 'बोझ' में दबा यूरोपियन इंटेलिजेंशिया कहता था कि असमानताओं, अनपढ़ों, भिन्नताओं का ये देश आजाद होकर आखिर कितने दिन तक टिक पाएगा? उनकी समझ कहती थी कि एक दिन ये मुल्क अपने ही बोझ तले ढह जाएगा, बिखर जाएगा. 

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यूरोप के इन साम्राज्यवादियों ने तो भारत को एक भौगोलिक और सांस्कृतिक इकाई मानने से इनकार कर दिया था. अमेरिकी राजनीति विज्ञानी रॉबर्ट डल ने तो यहां तक कहा था कि भारत की स्थिति को देखते हुए यह कहना असंभव लगता है कि यह देश अपनी लोकतांत्रिक संस्थाओं को आगे बढ़ा पाएगा. कट्टर साम्राज्यवादी और ब्रिटेन के वार प्राइम मिनिस्टर विंस्टन चर्चिल तो भारत की आजादी के नाम से ही चिढ़ते थे. वे कहा करते थे कि स्वतंत्रता के बाद भारत की सत्ता दुष्टों, बदमाशो और लुटेरों के हाथों में चली जाएगी. 

पिछले 100 सालों में दुनिया का इतिहास भी कुछ ऐसा ही कहता है. कई देश थे जिनका दुनिया से नामोनिशान मिट गया. जैसे यूगोस्लाविया. 1990 में यूगोस्लाविया के टूटने के बाद उससे कई देश वजूद में आए. इसमें क्रोएशिया, सर्बिया, मोंटेनेग्रो, मैसेडोनिया, बोस्निया और हर्ज़ेगोविना शामिल हैं. 1990 में ही USSR जैसे भारी-भारकम मुल्क का पतन हो गया और 15 नए राष्ट्रों का जन्म हुआ. भारत के समकक्ष कई नवोदित राष्ट्र थे. जैसे चीन और पाकिस्तान. चीन में लोकतंत्र है नहीं और भारत के साथ स्वतंत्र होने वाले पाकिस्तान लोकतंत्र और सैन्य शासन के साथ प्रयोग जारी है. वेनेजुएला और श्रीलंका अभूतपूर्व आर्थिक कुप्रबंधन और संकट से जूझ रहे हैं.

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इसके अलावा सीरिया, लीबिया, इराक, यमन और अफगानिस्तान जैसे देश हैं जो गृहयुद्ध की आग में जल रहे हैं और यहां नाम मात्र की सरकारें हैं. 

लेकिन 'कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी' लिखने वाले अल्लामा इकबाल ही जानते थे कि भारत किस स्टील का बना हुआ है. ये देश गिरता, लड़खड़ाता, चोटिल होता मगर हर बार उठ खड़ा होता रहा, आगे बढ़ता ही रहा. आज पराधीनता की बेड़ियों के टूटने के 75 साल बाद हमारी भौगोलिक सीमाएं अक्षुण्ण हैं. भारत दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से है. हमारी सेना सुरक्षा से जुड़ी हर चुनौती को रौंदने को तैयार है. 140 करोड़ वाले देश के हिन्दुस्तानियों ने इंडिया की तबाही की भविष्यवाणी करने वाले विध्नसंतोषियों को गलत साबित कर दिया है. आखिर कौन थे ये लोग जिन्हें लगता था कि स्वाधीन भारत ज्यादा दिन तक टिक नहीं पाएगा. 

ब्रिटेन इतना शक्तिहीन नहीं कि भूखे-नंगे भारतीय को कुचल न सके: विंस्टन चर्चिल

दुनिया में कद्दावर स्टेट्समैन की ख्याति पाने वाले विंस्टन चर्चिल घोर साम्राज्यवादी शख्स थे. गोरों को उच्च नस्ल मानना और भारतीयों को हेय दृष्टि से देखना इनकी घोषित नीति थी. चर्चिल तब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे जब ये देश दूसरे विश्व युद्ध में फंसा था. विंस्टन चर्चिल हमेशा भारत की आजादी के विरोधी रहे. भारत पर शासन करना वे ब्रिटेन का जन्मजात अधिकार समझते थे. जब ब्रिटिश संसद में भारत की आजादी पर चर्चा होती तो चर्चिल बिना किसी संकोच के कहते, "मैं ब्रिटेन का प्रधानमंत्री इसलिए नहीं बना हूं कि भारत को स्वाधीनता देकर ब्रिटिश साम्राज्य का दिवाला निकाल दूं, भारत सदियों से ब्रिटेन का गुलाम रहा है, इसके निवासियों को आजादी के सपने देखने का कोई अधिकार नहीं है, ब्रिटिश साम्राज्य इतना शक्तिविहीन नहीं हो गया है कि वह भूखे, नंगे, भारतवासियों को कुचल न सके."

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1945 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल

आज के समय में किसी राष्ट्राध्यक्ष द्वारा ऐसी बात कहने की कल्पना ही अभद्र और असभ्य लगती है. 

भारत को आजादी देने के लिए ब्रिटेन की संसद ने जब भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 पारित किया तो चर्चिल उस वक्त विपक्ष में थे. उन्होंने भारत को आजादी देने का ब्रिटिश संसद में निर्लज्जता से विरोध किया. उन्होंने कहा, "Power will go to the hands of rascals, rogues, freebooters; all Indian leaders will be of low caliber & men of straw. They will have sweet tongues & silly hearts. They will fight amongst themselves for power & India will be lost in political squabbles. A day would come when even air & water would be taxed in India."

यानी कि चर्चिल के शब्दों में आजादी के बाद भारत में सत्ता दुष्टों, बदमाशों और लुटेरों के हाथों में चली जाएगी. इस देश के सभी नेता ओछी क्षमता वाले और भूसा किस्म के व्यक्ति होंगे. उनकी भाषा मीठी होगी लेकिन दिल बेवकूफियों से भरा होगा. वे सत्ता के लिए एक दूसरे से लड़ेंगे और इन राजनीतिक लड़ाइयों में भारत पूरी तरह से खत्म हो जाएगा. एक दिन आएगा जब भारत देश में हवा और पानी पर भी टैक्स लगा दिया जाएगा.

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साम्राज्यवादी दर्प में डूबे दूसरे विश्वयुद्ध के इस विजेता को वल्लभ भाई पटेल ने निर्मम प्रत्युतर दिया था. उन्होंने चर्चिल को 'एक संकोचहीन साम्राज्यवादी जो साम्राज्यवाद के अंतिम दौर पर खड़ा है', करार दिया था. पटेल ने कहा था कि चर्चिल नीचे से उठा शख्स है, जिसके लिए कारण, कल्पना या बुद्धिमता से ज्यादा जिद और मूर्खता अधिक महत्व रखती है.

15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता की घोषणा के समय जवाहरलाल नेहरू (photo-Getty image)

दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफेसर विपुल सिंह चर्चिल की थ्योरी को समझाते हुए कहते हैं, विंस्टन चर्चिल न केवल एक राष्ट्र के रूप में भारत के भविष्य के बारे में आशंकित थे, बल्कि यह भी सोचते थे कि गवर्नेंस की लोकतांत्रिक व्यवस्था, जिसे भारत ने अपनाया था वह गिर जाएगी. संभवत: लोकतंत्र के भारतीय संस्करण को लेकर चर्चिल की उपेक्षा यहां पाए जाने वाले जाति, धर्म, संस्कृति और भाषा के मामले में इतनी विविधता की वजह से थी. लेकिन भारत ने जिस तरह से संविधान के माध्यम से एक संघीय ढांचे का निर्माण किया. इस संरचना में अपनी बड़ी आबादी के विविध विचारों और इच्छाओं को समायोजित कर भारत को एकीकृत किया है, इस प्रयोग ने दुनिया को चौंका दिया है. 

आखिर क्या वजह रही कि भारत में लोकतंत्र सफल रहा? प्रोफेसर विपुल सिंह इसके दो कारण बताते हैं, " पहला, भारतवर्ष के रूप में भारत की व्यापक भौगोलिक धारणा, जो काफी पुरानी है और कई युद्धों के बावजूद समय की कसौटी पर खरी उतरी है.  दूसरा, प्राचीन काल से भारत ने सब कुछ समाहित करने की अद्भुत क्षमता विकसित की है और अभी भी त्योहारों और धार्मिक संस्कारों के माध्यम से अपनी संस्कृति को बनाए रखा है. 

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भारत: नया और खंडित राष्ट्र

दरअसल, 47 की स्वतंत्रता भारत के लिए कई विपदाएं लेकर आई थी. बंटवारे के बाद पाकिस्तान से 80 लाख हिन्दू और सिख शरणार्थी बनकर भारत आ चुके थे. इनके लिए भोजन और आवास मुहैया कराने की विकट समस्या थी. लगभग 500 रियासतें नवाबों और राजाओं के हाथों में थी. भारत की सुरक्षा की दृष्टि से देश में इनका विलय बेहद जरूरी था. इसके अलावा बंटवारे ने देश में धार्मिक विभाजन की खाई पैदा कर दी थी. कई जगह हिंसा हो रही थी. 

1947 में भारत के वायसराय लॉर्ड माउंटबेटेन भारत की आजादी के उत्सव में शामिल होते हुए, साथ में है पंडित नेहरू (फोटो-Getty)

इसके अलावा भारत की विविधता भी आजादी के बाद देश के लिए समस्या बन गई. जातियों का बंधन था, भाषाएं अलग थीं, खान-पान, वेशभूषा अलग थे. इनको एक सूत्र में पिरोना एक चुनौती से कम नहीं था. इतनी विविधिता को एक राष्ट्र-राज्य में समाहित करना अहम जिम्मेदारी थी. 1947 में भारत की आबादी लगभग 35 करोड़ थी. इनके लिए भोजन, रोजगार और वस्त्र की व्यवस्था भी भारत के सामने थी. एक नवजात राष्ट्र के रूप में भारत को एक ऐसी प्रणाली विकसित करनी थी, जिसमें सभी का प्रतिनिधित्व हो, सभी बातें सुनी जाती हो. समस्याओं के इस सतरंगी पैटर्न को देख यूरोपीय साम्राज्यवादी लहलहाते और बेधड़क कहते कि आजादी के बाद भारत टिक नहीं पाएगा. कुछ ऐसा ही मानना था ब्रिटिश लेखक रुडयार्ड किपलिंग का. 

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श्वेत नस्ल के बोझ के तले दबे रुडयार्ड किपलिंग

अंग्रेजी अदब की दुनिया में रुडयार्ज किपलिंग बड़ा नाम माना जाता है. वे शॉर्ट स्टोरी के दिग्गज माने जाते हैं. लेकिन साम्राज्यवादी जकड़न में ये ऐसे फंसे कि कभी ये स्वीकार कर ही नहीं सके कि ब्रिटिश कॉलोनियों को स्वतंत्र होने का भी अधिकार है. ब्रिटेन का ये लेखक अपनी रचनाओं में ब्रिटेन की गुलामी को जायज ठहराने लगा. औपनिवेशिक दासता को सही ठहराने के लिए उन्होंने एक कविता लिखी, जिसका शीर्षक था 'The White Man's Burden'. इस कविता में किपलिंग अमेरिका द्वारा फिलीपींस के कब्जे को सही ठहराते हैं. इस कविता का सीधा फलसफा ये है कि ये गोरों की जिम्मेदारी है कि वे दुनिया के बाकी नस्ल के लोगों को 'सभ्य और सुसंस्कृत' बनाएं.   

किपलिंग का जन्म 1865 में पराधीन भारत के तहत बॉम्बे प्रेसीडेंसी में हुआ था. वे भारत की संस्कृति और व्यवहारों को अच्छे से समझते थे. बावजूद इसके जब 1891 में उनसे भारत में स्वराज (Self-government) की संभावनाओं के बारे में पूछा गया तो उन्होंने हैरानी जताते हुए कहा था, " नहीं...नहीं. ये 4000 साल पुराने रीति रिवाजों वाले लोग हैं, इस प्रणाली को सीखने के लिहाज से ये बहुत पुराने लोग हैं, इन्हें तो कानून और प्रशासन ही चाहिए न, इसे देने के लिए हमलोग तो वहां हैं ही." अंग्रेज इसी तर्क का हवाला देकर अक्सर भारत पर अपनी थोपी गई गुलामी को सही ठहराते हैं. बिना इन सवालों के जवाब दिए कि भारत को अंग्रेजों ने क्यों लूटा, बंगाल के अकाल में 30 लाख लोग कैसे विलखते हुए मर गए? 

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ब्रिटिश साम्राज्यवाद का निर्विवाद प्रवक्ता: जॉन स्टूअर्ट मिल

रुडयार्ड किपलिंग की कतार में ही एक और नौकरशाह है, जिसे लगता था कि भारतीय बर्बर और असभ्य हैं. ऐसे लोगों के बीच लोकतंत्र पनप ही नहीं पाएगा और इन्हें सभ्य बनाने की जिम्मेदारी अंग्रेजों की है. नाम था जॉन स्टूअर्ट मिल. जेएस मिल को ब्रिटिश साम्राज्यवाद का निर्विवाद प्रवक्ता कहा जाता है. उन्होंने लगभग अपनी आधी जिंदगी ईस्ट इंडिया कंपनी के मुलाजिम के तौर पर गुजारी. मिल ब्रिटेन और कंपनी को उन ताकतों के रूप में देखते थे जो दुनिया में उदार मूल्यों का प्रसार कर रहे थे. मिल मानते थे कि भारत रिप्रजेंटेटिव सिस्टम ऑफ गवर्नमेंट के लिए तैयार नहीं है. जेएस मिल कहते थे, "भारत में किसी भी उपनिवेश की तुलना में कहीं अधिक खतरा है, यहां मंत्रिस्तरीय सत्ता का भ्रष्ट दुरुपयोग हो सकता है, क्योंकि भारत को किसी भी उपनिवेश की तुलना में कम समझा जाता है, क्योंकि इसके लोग अपनी आवाज ऊपर तक पहुंचाने में कम सक्षम हैं." मिल की आलोचना चाहे जिस संदर्भ में हो, लेकिन भारत में आज वास्तविकता क्या है?

भारत में अनुदार लोकतंत्र के लक्षण

दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में पॉलिटिकल साइंस पढ़ाने वाले डीपी नंदा 75 साल में भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं की कामयाबी की बात तो स्वीकार करते हैं लेकिन उनकी चिंता भारत के एक अनुदार (Illiberal) समाज में तब्दील होने को लेकर है. देशबंधु कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर डीपी नंदा कहते हैं कि इसमें कोई शक नहीं है कि पिछले 75 सालों में भारत के लोकतंत्र ने प्रगति की है. समाज के गरीबों, हाशिये पर मौजूद तबके और धार्मिक अल्पसंख्यकों ने वोट के जरिए अपनी आवाज को सत्ता के शीर्ष प्रतिष्ठानों तक पहुंचाया है. वे मुखर हुए हैं, उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व बढ़ा है. 

हैदराबाद में अमृत महोत्सव के मौके पर कार्यक्रम प्रस्तुत करते कलाकार (फोटो- पीटीआई)

लेकिन प्रोफेसर नंदा की चिंता भारतीय लोकतंत्र की आंतरिक सेहत को लेकर है. वे कहते हैं कि भारत में कहीं न कहीं अभिव्यक्ति की आजादी, धार्मिक स्वतंत्रता, विभिन्न समूहों द्वारा स्वयं को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता पर पहरा बिठाया जाने लगा है. वे इसे भारत जैसे एक गतिशील लोकतंत्र का स्वस्थ लक्षण नहीं मानते हैं और इसे लेकर चिंता जाहिर करते हैं. प्रोफेसर नंदा का कहना है कि स्वस्थ लोकतंत्र में सिर्फ सरकारों को ही उदार नहीं होना पड़ेगा, बल्कि समाज को भी उदार होना पड़ेगा, उनका कहना है कि भारत का समाज अनुदार लोकतंत्र के लक्षण दिखा रहा है. वे इस ट्रेंड को भारत के लिए चिंताजनक मानते हैं.    

कांग्रेस को सेफ्टी वॉल्व बनाने वाले लॉर्ड डफरिन

भारत में वायसराय रहे लॉर्ड डफरिन भी मानते थे कि भारतीय परिवेश लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए उपयुक्त नहीं है. बता दें कि वे 1884 से लेकर 1888 तक भारत में अंग्रेजों के वायसराय रहे. इसी दौर में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई थी. उन्होंने कांग्रेस की स्थापना में मदद की. क्योंकि उनका मत था कि कांग्रेस ब्रिटिश हुकुमत के लिए 'सेफ्टी वॉल्व' के रूप में काम करेगा. उनका विचार था कि भारत का पढ़ा-लिखा वर्ग कांग्रेस के मंच पर अपना असंतोष जाहिर कर सकेगा. फिर इस अंसतोष पर अंग्रेज अपनी प्रतिक्रिया दे सकेंगे. इस तरह से ब्रिटिश सरकार लंबे समय तक भारत पर शासन कर सकेगी और कांग्रेस अंग्रेजों के लिए सेफ्टी वॉल्व के रूप में काम करेगा. डफरिन कहते थे कि 'भारत ऐसा देश नहीं है, जिसमें यूरोप की तरह लोकतांत्रिक आंदोलन को लागू कर दिया जाए."

कलकत्ता की गलियों में अंग्रेजों से आजादी का जश्न मनाते लोग (फोटो-Getty)

लेकिन भारत ने डफरिन की आशंकाओं को भी गलत साबित किया. प्रोफेसर विपुल सिंह कहते हैं कि यह एक गलत धारणा है कि भारत ने आजादी के बाद ही पहली बार लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ कदमताल करना शुरू किया. ऐतिहासिक काल में सरकार का राजतंत्रीय स्वरूप होने के बावजूद सभा और समिति जैसे लोकतांत्रिक संगठन भारत में थे. ये संस्थाए समय-समय पर राजा की निरंकुश शक्ति पर अंकुश लगाती रहती थीं. यह भी एक कारण है कि भारत में सरकार की लोकतांत्रिक व्यवस्था इतनी सफल रही है.  

 ब्रिटिश नौकरशाह जॉन स्ट्रेची

गुलामी के दौरान ब्रिटिश नौकरशाह जॉन स्ट्रेची (1823-1907) को भी भारत की पहचान और इसके अभिमान से दिक्कत थी. सर की उपाधि का बोझ लेकर चलने वाले जॉन स्ट्रेची भारत में अपने जूनियरों को ट्रेनिंग देते वक्त कहते थे, "भारत के बारे में जानने वाली पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत कभी नहीं है और न ही था". स्ट्रेची का मानना था कि राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक रूप से एकीकृत भारत की कोई अवधारणा न रही है और न ही कभी रहेगी. 

इतिहासकार डेविड लुडेन

इतिहासकार डेविड लुडेन ने अपनी पुस्तक कॉन्टेस्टिंग द नेशन: रिलिजन, कम्युनिटी एंड द पॉलिटिक्स ऑफ डेमोक्रेसी इन इंडिया में लिखा है, 'भारतीय सभ्यता के लैंडस्केप का वर्णन करने के लिए हम जिस क्षेत्र का उपयोग करते हैं, वह राजनीतिक रूप से ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा परिभाषित किया गया था, भारत 1947 से पहले भौगोलिक, जनसांख्यिकीय या सांस्कृतिक अर्थों में आज जैसा है, वैसा कभी नहीं था.'

श्रेष्ठता के बोध में उन्मत इन अंग्रेजों ने भारत को लेकर जो भी भविष्यवाणियां की हों, वक्त के दौर और इतिहास के न्याय ने इन सभी धारणाओं को झूठ करार दिया है. भारत अतीत के साम्राज्यवादी अवशेषों से लगातार मुक्त होता रहा है. हमने अपनी पहचान कायम रखी है और दुनिया के साथ रेस भी लगा रहे हैं.  

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