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भारत में पहले भी लगता था इनहेरिटेंस टैक्स, जानिए 1985 में खत्म होने वाले इस कर सिस्टम की कहानी

सैम पित्रोदा की 'अमेरिका जैसा विरासत कर' वाले बयान पर सियासी घमासान मच गया है. हालांकि विरासत कर की अवधारणा भारत के लिए नई नहीं है. भाजपा और कांग्रेस दोनों ने अतीत में इस विचार पर विचार किया है और दोनों दलों के नेता इसके पक्षधर रहे हैं.

बीजेपी और कांग्रेस दोनों दलों के नेता रहे हैं विरासत कर कानून के पक्षधर बीजेपी और कांग्रेस दोनों दलों के नेता रहे हैं विरासत कर कानून के पक्षधर
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 25 अप्रैल 2024,
  • अपडेटेड 9:25 AM IST

सैम पित्रोदा द्वारा "अमेरिका जैसा विरासत कर" की वकालत करने के बाद भारत में चुनावी माहौल गर्म हो गया है.  कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने पित्रोदा के बयान पर सफाई देते हुए ट्वीट किया, "कांग्रेस की विरासत कर यानि इनहेरिटेंस टैक्स लगाने की कोई योजना नहीं है. हकीकत यह है कि राजीव गांधी ने 1985 में संपत्ति शुल्क समाप्त कर दिया था."

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गौर करने वाली बात ये है कि विरासत कर की अवधारणा भारत के लिए नई नहीं है. इस तरह के कर को कुछ कुछ देशों में संपत्ति शुल्क या "मृत्यु कर" के रूप में जाना जाता है. 1985 में खत्म किए जाने से पहले यह लगभग चार दशक तक भारत में बहुत प्रचलित था.

तब से, इस तरह के कर को वापस लाने का विचार पूर्ववर्ती कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार और बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार दोनों ने किया था. पूर्व वित्त मंत्री पी.चिदंबरम ने 2011-2013 के बीच कई मौकों पर सरकारी संसाधनों को बढ़ाने के लिए विरासत कर लगाने का उल्लेख किया. इसी तरह, एनडीए सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान, पूर्व वित्त राज्य मंत्री जयंत सिन्हा इस विचार के प्रबल समर्थक थे.

लेकिन आपका यह जानना जरूरी है कि विरासत कर या संपत्ति शुल्क क्या था? भारत में इसे कैसे लगाया गया और फिर इसे क्यों खत्म कर दिया गया? चलिए इसी को समझने की कोशिश करते हैं.

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1953-85 के बीच विरासत कर कैसे लगाया गया?

आर्थिक असमानता को कम करने के लिए संपत्ति शुल्क अधिनियम के तहत 1953 में विरासत कर पेश किया गया था. 953 में, सरकार ने पाया कि संपत्ति को लेकर भारी असमानताएं हैं और इस प्रकार ऐसे कर का विचार सामने आया. इसके अलावा, यह उन अति-अमीरों पर कर लगाने का भी एक साधन था जो अगली पीढ़ी के लिए बड़ी मात्रा में पैसा छोड़ देते थे.

सरल शब्दों में कहें तो किसी व्यक्ति की मृत्यु के समय उसके पास मौजूद संपत्ति के कुल मूल्य पर संपत्ति शुल्क लगाया जाता था. जब संपत्ति उत्तराधिकारियों को दी जाती थी तो उसे कर का भुगतान करना पड़ता था. यह शुल्क सभी अचल संपत्ति के साथ-साथ भारत या बाहर स्थित सभी चल संपत्ति पर लगाया गया था.

हालांकि, कर लोगों के बीच अलोकप्रिय हो गया था क्योंकि संपत्ति शुल्क की दरें उन संपत्तियों पर 85 प्रतिशत तक थीं जिनकी कीमत 20 लाख रुपये से अधिक थी. कर की शुरुआत कम से कम 1 लाख रुपये की संपत्तियों के साथ हुई  जिसके कर दी दर 7.5% थी. संपत्ति की कुल कीमत की गणना व्यक्ति की मृत्यु के समय बाजार मूल्य के अनुसार की जाती थी.

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विरासत कर क्यों समाप्त किया गया?

यह कानून देश के राजस्व को बढ़ाने और गंभीर आर्थिक असमानता को कम करने के लिए लाया गया था, लेकिन इसके लागू होने के 30 वर्षों के दौरान विपक्ष के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों ने भी इसकी तीखी आलोचना की. ऐसे कई कारक थे जिनके कारण अंततः 1985 में तत्कालीन वित्त मंत्री वीपी सिंह द्वारा कर को समाप्त कर दिया गया.

कानून में विभिन्न प्रकार की संपत्ति का मूल्यांकन करने के लिए अलग-अलग नियम थे, जिससे यह एक जटिल कानून बन गया. इसके परिणामस्वरूप संपत्ति के मूल्यांकन पर विवादों के बीच बड़ी संख्या में अदालती मुकदमेबाजी हुई.  एक ऑडिट से पता चला कि संपत्ति कर संग्रह केंद्र द्वारा एकत्र किए गए कुल प्रत्यक्ष कर की तुलना में बहुत ही कम था.

द इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1984-85 में एस्टेट ड्यूटी एक्ट के तहत कुल 20 करोड़ रुपये का टैक्स इकट्ठा हुआ था. हालांकि, कलेक्शन की लागत बहुत अधिक थी. कलेक्शन कम होता रहा क्योंकि लोगों ने कर का भुगतान करने से बचने के तरीके खोजने शुरू कर दिए. विरासत में मिली संपत्तियों को अवैध रूप से छिपाने के अलावा, बेनामी संपत्तियों को रखने की प्रथा ने भी जोर पकड़ लिया. इसके अलावा, आयकर के ऊपर एक अलग संपत्ति कर को दोहरे कराधान के रूप में देखा गया, जिससे लोगों के बीच नाराजगी पैदा हुई.

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जब कांग्रेस ने फिर से किया इस विरासत कर पर विचार

पिछले एक दशक से भी अधिक समय से राजनीतिक हलकों में विरासत कर (Inheritance Tax) को वापस लाने का विचारआते रहा है. इस तरह के कर को फिर से लगाने का विचार पहली बार गृह मंत्री पी चिदंबरम ने 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में योजना आयोग (अब नीति आयोग) की बैठक के दौरान किया था. यूपीए-1 सरकार के पहले चार वर्षों के दौरान चिदंबरम वित्त मंत्री थे.

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चिदंबरम ने कर संसाधन बढ़ाने और गिरते कर-जीडीपी अनुपात को सुधारने के लिए यह विचार रखा था. एक साल बाद, उन्होंने नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी के एक कार्यक्रम में इस मामले को फिर से उठाया. कुछ लोगों के हाथों में संपत्ति जमा होने पर चिंता जताते हुए चिदंबरम ने कहा कि विरासत कर लगाने का यह सही समय है. उन्होंने कहा, 'क्या हमने कुछ हाथों में जमा हो रही संपत्ति पर थोड़ा ध्यान दिया है? मैं अभी भी अंतर-पीढ़ीगत हिस्सेदारी और विरासत कर के बारे में बात करने में झिझक रहा हूं.'

इस पर 2013 में फिर विचार किया गया जब चिदंबरम ने यूपीए-2 सरकार का आखिरी पूर्ण बजट पेश किया. दरअसल चिदम्बरम को विश्वास था कि विरासत कर यूपीए के राजनीतिक उद्देश्य को पूरा करते हुए राजस्व बढ़ा सकता है. हालाँकि, कैबिनेट के साथ-साथ हितधारकों में से हर कोई विरासत कर के तर्क से आश्वस्त नहीं था यही वजह रही कि इसका जिक्र कभी बजट में नहीं हुआ.

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जब जेटली और जयंत सिन्हा ने किया था विरासत कर का समर्थन

 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की जीत के बाद मामला ठंडे बस्ते में चला गया. उसी वर्ष, तत्कालीन वित्त राज्य मंत्री, जयंत सिन्हा ने सार्वजनिक रूप से विरासत कर की शुरूआत की वकालत की थी. सिन्हा ने कहा था कि इस तरह के कर से वंशवादी व्यवसायियों को मिलने वाले कुछ फायदे खत्म हो जाएंगे और खेल का मैदान बराबर करने में मदद मिलेगी.

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2017 में ऐसी खबरें आई थीं कि सरकार इनहेरिटेंस टैक्स दोबारा लागू करने जा रही है. 2018 में भी, तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसकी वकालत करते हुए कहा था कि विकसित देशों में अस्पतालों और विश्वविद्यालयों को विरासत कर जैसे कारकों के कारण बड़ा अनुदान मिलता है..

जेटली ने आगे कहा कि अमेरिका और यूरोप के प्रमुख अस्पतालों द्वारा प्राप्त अनुदात अरबों डॉलर में था और यह उन लोगों और रोगियों द्वारा दिया गया था जो उनसे लाभान्वित हुए थे. मैं विश्लेषण कर रहा था कि यह स्थिति हमारे देश में क्यों नहीं है. और इसका एक कारण जो मुझे पता चला वह यह था कि वहां बड़ी संख्या में विरासत कर लगाया जाता है. चूंकि हमारे यहां विरासत कर नहीं है, इसलिए हमारी धर्मार्थ संस्थाएं नहीं हैं.

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