
"अहिंसा हारने वालों के लिए है". अथवा, युद्ध के समय शांति की बातें लूजर करते हैं या फिर ये कहें कि शांति की अवधारणा का शरण कमजोर लेते हैं (Pacifism is for losers). जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के आखिरी दिन इस विषय पर एक गर्मजोशी और विचारों में उत्तेजना भर देने वाला डिबेट आयोजित किया गया.
इस बहस में दुनिया की कुछ नामी-गिरामी हस्तियों ने अपने-अपने पक्ष रखे. इनमें कीव में जन्मे लेखक यारोस्लाव ट्रोफिमोव, मानवविज्ञानी मुकुलिका बनर्जी और पूर्व राजनयिक मनप्रीत वोहरा ने पक्ष में और लेखक सलील त्रिपाठी, पत्रकार जॉर्जिना गॉडविन और इजरायली पत्रकार गिदोन लेवी ने विरोध में तर्क दिए.
दोनों ही ओर के विचारों और तर्कों में महात्मा गांधी प्रमुखता से छाये रहे. "अहिंसा हारने वालों के लिए है" का समर्थन करने वाले और इसका विरोध करने वाले दोनों ही पक्षों ने महात्मा गांधी के वाक्यों, उनके जीवन की घटनाओं से अपने तर्क को सही ठहराने की कोशिश की.
एंथ्रोपोलॉजिस्ट मुकुलिका बनर्जी ने अपने बयान की शुरुआत "अहिंसा" शब्द के आसपास के भ्रम को दूर करने का प्रयास करते हुए की और तर्क दिया कि यह गांधी, मार्टिन लूथर किंग और नेल्सन मंडेला द्वारा अपनाए गए सविनय अवज्ञा से अलग है.
उन्होंने कहा, "आप सविनय अवज्ञा का उपयोग उस संदर्भ में कर सकते हैं जिसमें दुश्मन के पास न्याय की भावना होती है, सच्चाई की भावना होती है, और आप दुश्मन के कर्मों का पर्दाफाश करते हुए उसके नैतिक मूल्य को झकझोरने की कोशिश कर सकते हैं, यदि दुश्मन प्रतिक्रिया देता है, तो सविनय अवज्ञा का सकारात्मक परिणाम होता है.
उन्होंने कहा कि Pacifism की धारणा "कमजोरी का संकेत" है, क्योंकि यह दुश्मन को शांत करने और समझौता करने का मौका देने की कोशिश है. मुकुलिका बनर्जी ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन का उदाहरण दिया, जो मानते थे कि हिटलर म्यूनिख समझौते के बाद पोलैंड पर आक्रमण नहीं करेगा, लेकिन उसकी ये धारणा धराशायी हो गई और ये आक्रमण द्वितीय विश्व युद्ध का कारण बना.
बता दें कि Pacifism का अर्थ यह विश्वास है कि युद्ध सदैव अनुचित होते हैं और उस में कभी शामिल नहीं होना चाहिए. एक तरह से ये शांतिवाद की कामना है.
पत्रकार जॉर्जिना गॉडविन ने इस मोशन के विरुद्ध अपने विचार रखे. उन्होंने कहा कि 'अहिंसा बहादुरों के लिए है और ये लंबी अवधि में फलीभूत होने वाली विचारधारा है. इजरायली पत्रकार गिदोन लेवी ने पैसिफिज्म का समर्थन किया और गांधी को उद्धृत करते हुए कहा कि 'अहिंसा बलवानों का हथियार' है.
गॉडविन ने कहा कि पैसिफिज्म की विचारधारा को बहिष्कार, रैलियों, ऑनलाइन अभियान के माध्यम से सक्रिय और संगठित किया जा सकता है. उन्होंने कहा कि आज के अधिकांश सामाजिक परिवर्तन इन अहिंसात्मक तरीकों से हासिल कये गये हैं. उन्होंने दक्षिण अफ्रीका का उदाहरण दिया और कहा कि वहां रंगभेद की नीति का अंत बहिष्कार और प्रतिबंधों से हुआ.
पत्रकार गिदोन लेवी ने कहा कि रियल लूजर तो वे हैं जो हमें युद्ध से युद्ध तक ले जाते हैं.
लेखक सलील त्रिपाठी Pacifism is for losers की अवधारणा को गलत ठहराया और पैनल को गांधी के दांडी मार्च की याद दिलाई, जिस यात्रा में ब्रिटेन के अथाह साम्राज्य को एक चुटकी नमक में डुबोने की कोशिश की गई थी. उन्होंने कहा, "जैसे ही कई लोग धरासना के नमक कारखाने की ओर बढ़े, उन्हें ब्रिटिश द्वारा बुरी तरह पीटा गया.ये शांतिवाद, अहिंसा और साहस था. ये कायरता नहीं थी और वह हारने वालों के लिए नहीं थी.
पुस्तक "द गुजराती" के लेखक सलिल त्रिपाठी ने कहा कि यह वही धारणा है जो "समझदार इजरायली" अब महसूस कर रहे हैं और जो "स्मार्ट जर्मन" ने 1945 में महसूस किया कि उन्होंने क्या किया था.
इस बीच, पूर्व राजदूत मनप्रीत वोहरा ने तर्क दिया कि गांधी भी आज खुद को अहिंसावादी कहलाना पसंद नहीं करते. उन्होंने कहा कि किसी को भारत की स्वतंत्रता पर द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव को कम करके नहीं आंकना चाहिए.
"यह इतिहास और घटनाओं की एक बहुत ही अधूरी समझ होगी यदि हम कहें कि आजादी की लड़ाई में गांधी का योगदान बहुत बड़ा था और भारत को स्वतंत्रता मिलने का एकमात्र कारण था, जैसे कि विश्व युद्ध का भारत को और दूसरे देशों को आजादी मिलने से कोई लेना-देना ही नहीं था," वोहरा ने कहा.
दीपक वोहरा ने पूछा- हिंसा ने कभी अपने आप में सफलता पाई है और हम कितने समय तक इंतजार कर सकते हैं? क्या हम पूरी तरह से हार मान सकते हैं?"
जैसे-जैसे बहस तेज हुई, पैसिफिज्म के सपोर्ट और विरोध में रोचक तर्क देखने-सुनने को मिले.
लेखक सलिल त्रिपाठी ने कहा, "अगर सिद्धांत के तौर पर देखा जाए तो ऐसा समय आ सकता है जब आत्मरक्षा के लिए हथियार उठाना पड़े. गांधी भी इस बात से सहमत होंगे कि ऐसे समय होते हैं जब आपको हथियार उठाने पड़ते हैं लेकिन यह कभी भी पहला उपाय नहीं होना चाहिए और इसे कभी भी गुस्से में या शक्ति दिखाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए."
गांधी के पोते और पूर्व राजनयिक गोपालकृष्ण गांधी ने कहा कि उनके दादा युद्ध के खिलाफ नहीं थे बल्कि "घृणा और अनावश्यक हिंसा के युद्ध के खिलाफ" थे.
गोपालकृष्ण गांधी ने कहा, "उन्हें (गांधी) हर वक्ता द्वारा इस तरह से बोला और चर्चा किया जा रहा है जैसे कि वह ट्रम्प और पुतिन और हमास के खिलाफ हैं. वह दक्षिण अफ्रीका में दो बार लड़ाई में ट्रेंड किये गये थे. एक बार विश्व युद्ध में, दूसरी बार जुलु विद्रोह के दमन के दौरान.
गोपालकृष्ण गांधी ने कहा कि वह वर्दी में होने पर गर्व महसूस करते थे, भले ही वह गैर-लड़ाकू थे."
गांधी जी के पोते गोपालकृष्ण गांधी ने कहा कि बापू उस घृणा, द्वेष और अनावश्यक हिंसा के खिलाफ थे जो युद्ध की वजह से आती है. उन्होंने कश्मीर पर आक्रमण के खिलाफ भारत के सशस्त्र प्रतिरोध का पूर्ण समर्थन किया. मुझे पता है कि वह युद्ध के एकदम खिलाफ नहीं थे, वे सशस्त्र प्रतिरोध के खिलाफ भी नहीं थे. वह अनावश्यक हिंसा और घृणा के खिलाफ थे.