
कनाडा की राजनीति में ट्रूडो का टाइम अप हो गया है. लेकिन क्या कनाडा की पालिटिक्स से खालिस्तानियों का प्रभाव खत्म होगा? ये एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब पंजाब और कनाडा की राजनीति को फॉलो करने वाला हर व्यक्ति जानना चाह रहा है. जस्टिन ट्रूडो ने बतौर पीएम भारत-कनाडा संबंधों की न सिर्फ उपेक्षा की है बल्कि उसे अपूरणीय क्षति भी पहुंचाया है. ऐसे में क्या ट्रूडो की पार्टी लिबरल पार्टी का नया नेता जो कनाडा का पीएम भी बनेगा दोनों देशों के संबंधों पर भरोसे का मरहम लगाएगा?
भारत विरोध ट्रूडो खानदान के राजनीति की यूएसपी रही है. खानदान इसलिए क्योंकि ट्रूडो के पिता पियरे ट्रूडो भी भारत को लेकर कमोबेश उसी राह पर थे जिस रास्ते पर आज जस्टिन ट्रूडो हैं.
विशेषज्ञ तो ये भी कहते हैं कि भारत-कनाडा के रिश्तों में गिरावट का दौर तब शुरू हुआ जब पियरे कनाडा के पीएम बने.
जून 2023 में जब भारत के भगोड़े और खालिस्तान समर्थक हरदीप सिंह निज्जर की बंदूकधारियों ने कनाडा के वैंकूवर के पास हत्या कर दी तो ट्रूडो ने इस हमले का आरोप भारत पर लगाया वो भी कनाडा की संसद में जाकर, लेकिन अपने दावे को दम देने के लिए उनके पास कोई सबूत नहीं था. वे मीडिया के साथ, अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सिर्फ जुबानी जमा खर्च करते गये और दोनों देशों के रिश्ते गर्त में गिरते गए.
तो क्या कनाडा में नया पीएम बनने के बाद दोनों देशों के रिश्तों सुधार होगा.
आजतक ने ठीक यही सवाल पूर्व राजनयिक दीपक वोहरा से पूछा. इसके जवाब में दीपक वोहरा कहते हैं, "बड़ी मुश्किल से हमने कनाडा के साथ संबंधों को सुधारा था, ट्रूडो ने एक साल के अंदर 50 साल की मेहनत पर पानी फेर दिया. मुझे लगता है कि जो भी सरकार आएगी उस पर हम आसानी से भरोसा नहीं करेंगे.समय लगेगा संबंधों को सुधरने में."
"अगर अगली सरकार को बहुमत नहीं मिलती है और इसे भी खालिस्तानियों को सपोर्ट लेना पड़ता है तो हम क्या करेंगे?"
दीपक वोहरा ने कहा कि कनाडा हमसे हमारा मार्केट चाहता है. उसके पेंशन फंड के पैसे हमारे बाजारों में लगे हैं उससे उन्हें अच्छा रिटर्न मिलता है. कनाडा हमारी मदद करने के लिए हमारा मार्केट नहीं चाहता है. कनाडा को हमें देने के लिए कुछ नहीं है लेकिन वो अपने आप को बड़ा खिलाड़ी समझता है.
दोनों देशों के संबंधों के भविष्य पर दीपक वोहरा ने कहा,"अगर कनाडा का नया नेता ये रियलिटी चेक कर ले कि जी-7 में उनकी एंट्री बड़ी मुश्किल से हुई है और वो कोई बड़ी आर्थिक ताकत नहीं है तो धीरे-धीरे संबंध पटरी पर आएंगे."
क्या कनाडा को लेकर और खालिस्तानियों के सवाल पर भारत राहत की सांस ले सकता है, इसके जवाब में उन्होंने कहा, "अगर अगली सरकार को बहुमत नहीं मिलती है और इसे भी खालिस्तानियों को सपोर्ट लेना पड़ता है तो हम क्या करेंगे?
दीपक वोहरा एक सवाल के साथ ही अपने जवाब का अंत करते हैं. लेकिन ये जवाब कहता है कि भारत और कनाडा के हैप्पी डेज अभी दूर हैं.
दरअसल हाल में कनाडा की राजनीति काफी अस्थिर रही है. इस अस्थिर राजनीतिक परिदृश्य में सिख अहम भूमिका निभाते हैं. 2019 में कनाडा में हुए आम चुनावों में 338 सदस्यों वाले हाउस ऑफ कॉमंस में 18 सिख सांसद चुनकर आए थे. हालांकि कनाडा की कुल जनसंख्या में सिखों की हिस्सेदारी मात्र 2 प्रतिशत है. लेकिन उनका प्रभुत्व तगड़ा है. पंजाबी कनाडा में अंग्रेजी और फ्रेंच के बाद तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है.
भारत के लिए दिक्कत की बात यह है कि कनाडा में जिंदगी गुजार रहे सिखों में से कुछ खालिस्तान की मांग का मुद्दा उठाते रहते हैं. इन्हें आईएसआई समेत दूसरी एजेंसियों की शह भी मिलती रहती है. यही नहीं वोट बैंक की राजनीति के मद्देनजर कनाडा के राजनीतिक दल भी इन्हें सपोर्ट करते हैं.
ट्रूडो इसी राह पर थे और वोट के लिए वे कट्टरपंथी सिख नेता और न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के चीफ जगमीत सिंह के समर्थन से सरकार चला रहे थे. दरअसल 2019 के चुनाव में ट्रूडो को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था और उन्हें जगमीत सिंह का समर्थन लेना पड़ा था. लेकिन जगमीत सिंह खालिस्तानी के एजेंडे को हवा देते हैं और भारत विरोधी बयान देते रहते हैं. हाल ही में वे कनाडा में भारतीय राजनयिकों पर प्रतिबंध की मांग कर रहे थे.
हालांकि जब ट्रूडो को जगमीत सिंह के सपोर्ट की जरूरत थी तो उन्होंने लिबरल पार्टी के नेता को दो टूक सुना दी. जगमीत सिंह ने कहा कि लिबरल्स एक और मौके के हकदार नहीं हैं. उन्होंने लोगों को निराश किया है और आवास, किराने का सामान और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर फेल रहे हैं.
कनाडा के खालिस्तानी तत्वों की अब इस देश में उभर रहे नए राजनीतिक समीकरण पर नजर है.
कनाडा से भारत के रिश्तों पर दुनिया भर के थिंक टैंक की नजर है.
वॉशिंगटन डीसी के विल्सन सेंटर थिंक टैंक में साउथ एशिया इंस्टीट्यूट के निदेशक माइकल कुगेलमैन कनाडा के घटनाक्रम को भारत के लिए सकारात्मक नजरिये से देखते हैं. उन्होंने एक्स पर लिखा, "ट्रूडो का इस्तीफा भारत-कनाडा के बिगड़ते संबंधों को स्थिर करने का मौका दे सकता है."
उन्होंने कहा कि हाल के वर्षों में कनाडा एकमात्र पश्चिमी देश है, जिसके भारत के साथ संबंध लगातार खराब हुए हैं.
नई दिल्ली स्थित ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के अध्ययन और विदेश नीति विभाग के उपाध्यक्ष प्रोफेसर हर्ष वी पंत भी कनाडा में इस राजनीतिक बदलाव पर ज्यादा आशावान नहीं हैं.
बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने कहा कि 'जब नया प्रशासन आएगा, वो नई शुरुआत करेगा.नए प्रधानमंत्री और नए प्रशासन से एक नई उम्मीद तो रहती है. लेकिन यह ज़रूर है कि लिबरल पार्टी की भी अपनी चुनौतियां हैं.'
कनाडा में खालिस्तानी तत्वों पर एक्शन और भारत विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने के सवाल पर हर्ष वी पंत कहते हैं, "अक्टूबर में चुनाव होने हैं. लिबरल पार्टी की जो सीटें हैं, उसमें भी कई ऐसे नेता हैं, जो सिख कम्युनिटी से आते हैं. और जो रेडिकल सिख कम्युनिटी बिहेवियर को सपोर्ट करते रहे हैं. तो मुझे लगता है कि कोई इतनी बड़ी उम्मीद करना जल्दबाजी होगी."
"लिबरल पार्टी की जो सीटें हैं, उसमें भी कई ऐसे नेता हैं, जो सिख कम्युनिटी से आते हैं. और जो रेडिकल सिख कम्युनिटी बिहेवियर को सपोर्ट करते रहे हैं. तो मुझे लगता है कि कोई इतनी बड़ी उम्मीद करना जल्दबाजी होगी."
उन्होंने कहा कि जब तक नए चुनाव नहीं होते, तब तक भारत के लिए यह समस्या बनी रहेगी. क्योंकि लिबरल पार्टी को तो अपनी सीटों को बनाकर रखना पड़ेगा, फिर चाहे ट्रूडो लीड करे या कोई और.
भारत के पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल साफ दोनों देशों के संबंधों में किसी किस्म की गर्माहट से फिलहाल साफ मना करते हैं. उन्होंने एक्स पर लिखा, "ट्रूडो ने अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी है. अच्छा हुआ. उन्होंने अपनी गैरजिम्मेदार नीतियों से भारत-कनाडा संबंधों को नुकसान पहुंचाया. लेकिन कनाडा की सिख चरमपंथी समस्या खत्म नहीं होगी, क्योंकि इन तत्वों ने कनाडा की राजनीतिक व्यवस्था में गहरी पैठ बना ली है."
कनाडा भारत के संबंध किस ओर करवट लेंगे. कनाडा में खालिस्तानियों पर कोई कार्रवाई होगी या नहीं. इसका जवाब में बनन वाले राजनीतिक समीकरणों से ही मिल पाएगा.