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कर्नाटक में 2013 से 2018 तक कांग्रेस की सरकार थी. 2018 में चुनाव हुए, सिद्धारमैया के नेतृत्व में वापसी चाहती कांग्रेस ने एक नया क्षेत्रीय मुद्दा उछाला, ताकि बीजेपी के हाथ से बाजी निकल जाए. ये हुआ नहीं. कांग्रेस के लिए ये मुद्दा असरदार नहीं रहा. बीजेपी सत्ता में आई. अब 2023 है. और बीजेपी 2018 की कांग्रेस के रास्ते पर है. उसे लगता है कि गवर्नेंस और एंटी इनकंबेंसी जैसे मुद्दे जो उसके खिलाफ हैं- लिंगायत आरक्षण के जरिये काटे जा सकते हैं. क्या होगा ये तो आगे की चीज़ है लेकिन कर्नाटक में लिंगायत आरक्षण का फैसला आने से अब और समुदायों से भी मांग उठने लगी है. 29 दिसम्बर को बीजेपी की बोम्मई सरकार ने ऐलान किया कि लिंग्यायत और वोक्कालीगास ओबीसी कैटेगरी में आएंगे और उन्हें 6 प्रतिशत और दस प्रतिशत आरक्षण केंद्र के कोटे से दिया जाएगा. इसे सकारात्मक तौर पर देख रही बीजेपी के लिए निराशा तब हुई जब पँचमसाली लिंगायत समुदाय ने सरकार के इस फैसले को ठुकरा दिया, उनकी मांग 15 परसेंट आरक्षण की थी.
सवाल ये है कि लिंगायत आरक्षण के सहारे सत्ता में वापसी चाहती बीजेपी के लिए ये आइडिया लैंड कराना मुश्किल क्यों हो गया है? कहीं इस मुद्दे को कुरेद कर बीजेपी ने अपने ही लिए मुसीबत तो नहीं खड़ी कर ली है? 'आज का दिन' में सुनने के लिए क्लिक करें.
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ओल्ड पेंशन स्कीम ऐसा मुद्दा है जो इन दिनों तकरीबन हर राज्य में धीमे ही सही छाया हुआ है. अलग अलग विधानसभा चुनावों में पार्टियां इसका वादा भी करती हैं. हिमाचल प्रदेश में कुछ दिन पहले हुए चुनावों में कांग्रेस ने इस स्कीम का वादा किया था, पार्टी सत्ता में आई और अब बीते शनिवार को उन्होंने इसे लागू करने का ऐलान कर दिया. लेकिन बात इतनी ही नहीं है. इसके लागू होने के बाद खजाने पर पडने वाले बोझ की भी बात समझनी जरूरी है. मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने कहा है कि प्रदेश सरकार इस साल ओपीएस पर करीब 900 करोड़ रुपए खर्च करेगी. मुख्यमंत्री का दावा तो है कि सरकारी खजाने में इसके लिए पर्याप्त धन मौजूद है लेकिन इस दावे में कितना सच है ये भी समझना ज़रूरी है. एक छोटा राज्य होने के बावजूद हिमाचल प्रदेश में कर्मचारियों का अनुपात कई राज्यों की तुलना में अधिक है. अब लाखों मौजूदा कर्मचारियों समेत पुराने कर्मचारी जो अब तक नई पेंशन स्कीम के तहत वेतन पा रहे थे, इसके दायरे में आ जाएंगे. तो मुख्यमंत्री का ये दावा कितना सही दिखाई देता है, हिमाचल की मौजूदा इकोनॉमी को देखते हुए या फिर राजनीतिक दबाव के कारण ही ये फैसला लिया गया? 'आज का दिन' में सुनने के लिए क्लिक करें.
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इजरायल में बेंजामिन नेतन्याहू ने अभी 29 दिसम्बर को ही बतौर प्रधानमंत्री अपना छठा कार्यकाल शुरू किया है. उनके प्रधानमंत्री बनते ही इस बात की चर्चा शुरू हो गई थी कि उनकी कोर राइट विंगर सरकार इजराइल को एक दूसरे दिशा में ले जा सकती है. जो कि अब दिखने लगा है. दरअसल बीते दिन इजराइल की नेतन्याहू सरकार ने ज्यूडिशियल सिस्टम के ओवरहॉलिंग के नाम पर एक बिल पेश किया. लेकिन उस बिल के आने के बाद ही इजराइल में विरोध शुरू हो गया. इजराइल के चीफ जस्टिस ने सबसे पहले इसके विरोध में बयान दिया. उसके बाद हजारों की संख्या में लोग सड़कों पर उतर आए. और प्रोटेस्ट जारी है. नई नवेली सरकार बनाने वाले बेंजामिन नेतन्याहू की मुसीबत इससे और बढ़ गई है. तो ये पूरा मुद्दा क्या है और इस बिल के विरोध में प्रदर्शन करने वाले लोगों की मांग क्या है? 'आज का दिन' में सुनने के लिए क्लिक करें.