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...तब स्तन ढंकने के लिए टैक्स चुकाती थीं दलित महिलाएं, पढ़ें-200 साल पुरानी कुप्रथा और उससे मुक्ति की कहानी

आज हमें इस बात की आजादी है कि हम अपने शरीर को कैसे ढकें, किस तरह के कपड़े पहनें? लेकिन अगर इतिहास के पन्नों को पलटें तो केरल के तटवर्ती इलाकों में एक ऐसा वक्त था जब निचली जाति की महिलाओं को ये हक नहीं था, वे अपने कमर से ऊपर का हिस्सा नहीं ढक सकती थीं. उन्हें स्तन तक ढंकने के लिए टैक्स देना पड़ता था, इसे ब्रेस्ट टैक्स या स्तन कर के नाम से जाना जाता है. केरल और तमिलनाडु इस कुरीति से मुक्ति की 200वीं वर्षगांठ मना रहे हैं.

केरल में स्तन ढंकने के लिए चुकाना पड़ता था टैक्स (फाइल फोटो) केरल में स्तन ढंकने के लिए चुकाना पड़ता था टैक्स (फाइल फोटो)
पन्ना लाल
  • नई दिल्ली,
  • 06 मार्च 2023,
  • अपडेटेड 9:49 PM IST

कोई बहुत ज्यादा समय नहीं गुजरा, 150-200 वर्ष पहले की बात है. केरल का समाज सामंतवाद की चक्की में बुरी तरह पिस रहा था. केरल तब त्रावणकोर की रियासत का हिस्सा था. समाज में जातियां खानों की तरह बंटी हुई थी. जातिवाद और अमीरी-गरीबी का विभाजन बड़ा क्रूर और वीभत्स था. त्रावणकोर का राजा निचली जातियों के लोगों पर बड़ी सख्ती और क्रूरता से टैक्स पर टैक्स लादे जा रहा था. 

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इस टैक्स की तफ्सीलात सुन आप हैरान रह जाएंगे. मूंछ रखने पर टैक्स, मछली का जाल रखने पर टैक्स, आभूषण पहनने पर टैक्स, नौकर या दास रखने पर टैक्स और तो और स्तन ढंकने पर भी टैक्स. निचली जाति की महिलाओं द्वारा चुकाये जाने वाले इस कर का नाम था ब्रेस्ट टैक्स यानी की स्तन कर. जी हां- ठीक सुना आपने मात्र 200 साल पहले भारत में गरीब और  निचली जाति की महिलाओं को अपने स्तन का ऊपरी हिस्सा ढंकने की मनाही थी. 

वो जमाना, जब स्तन ढंकने के लिए पड़ता था चुकाना...

अगर इन महिलाओं को अपना वक्ष ढंकना ही था तो इसके लिए उन्हें राजा को कर चुकाना पड़ा था. इस कर का नाम मलयालम में था मुलक्करम यानी की स्तन कर. राजा की ओर से नियुक्त टैक्स कलेक्टर बाकायदा दलितों के घर आकर इस कर की वसूली करता था. ये बात 19वीं सदी की है. 

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इस स्तन कर को लेकर न जाने कितनी किंवदंतियां हैं, जो समय के साथ पूर्वाग्रहों और श्रुति परंपरा में पककर कहानियों में ढलती गईं. लोककथाओं के अनुसार स्तन के आकार, उसमें आकर्षकता का पुट के आधार पर टैक्स की रकम तय की जाती थी. हालांकि औपचारिक इतिहास में इसे लेकर परस्पर विरोधी विचार मिलते हैं. 

स्तन ढंकने के लिए लगाए इसी टैक्स के खिलाफ क्रांतियों के देश भारत में 1822 में एक क्रांति हुई जब गरीब महिलाओं ने इस शासनादेश के खिलाफ बगावत कर दिया. इसके बाद एक के बाद एक कुल तीन विद्रोह हुए. पहला 1822 से 1823 दूसरा 1827 से 1829 और तीसरा 1858 से 1859. इस क्रांति की नायिका थी नांगेली नाम की एक साधारण महिला. इस प्रथा के खिलाफ विद्रोह जताने के लिए नांगेली ने जो किया वो स्तब्ध कर देने वाला है. क्रोध से तपती नांगेली ने अपना स्तन ढंकने के लिए टैक्स मांगने वाले राजा से खतरनाक प्रतिशोध लिया. मगर कैसे? ऐसे- नांगेली ने टैक्स वसूलने आए अधिकारी को अपना ही स्तन काटकर भेंट कर दिया. केले के लहलहाते हरे पत्ते में. नांगेली के वक्ष से फूटता खून का फव्वारा और सामने हतप्रभ, सांप सूंघ गया अधिकारी.  

आंदोलन की 200वीं वर्षगांठ मना रहे स्टालिन और विजयन

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इतिहासकारों ने इस आंदोलन को नाम दिया Thol Seelai Porattam यानि की अपर क्लोथ रिवोल्ट. इसे चन्नार लहाला अथवा चन्नार क्रांति भी कहा जाता है. जिसका अर्थ था शरीर के ऊपरी हिस्से पर कपड़े पहनने का अधिकार. इसी क्रांति की 200वीं वर्षगांठ मनाने के लिए आज कन्याकुमारी के नगरकोलि में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन और केरल के सीएम पी विजयन एक मंच पर जमा हो रहे हैं. इन दोनों ही मुख्यमंत्रियों की राजनीतिक विचारधारा इस आंदोलन को सेलिब्रेट करने के लिए बेहद मुफीद है. 

शरीर के ऊपरी हिस्से पर कपड़े पहनने का अधिकार

18वीं 19वीं सदी में केरल में नम्बूदरी, नायर और वेल्लार जातियां श्रेष्ठ और उच्च जातियों में गिनी जाती थीं. जबकि शानार जिसे बाद में नाडार कहा जाने लगा, एडवा, पुलस्य जैसी जातियों की गिनती निचले क्रम में होती थी. 

केरल की एक महिला (फाइल फोटो)

यहां यह बताना बेहद जरूरी है कि उस समय केरल में महिला हो या पुरुष, उच्च वर्ण हो या निम्न, सभी मुंडू (धोती) पहनते थे.  इस वस्त्र से कमर से नीचे का हिस्सा ढंका जाता था. जबकि महिला हो या पुरुष कमर से ऊपर बिना कपड़े के रहते थे. बता थे कि उमस से जूझ रहे ट्रॉपिकल केरल के लिए पोशाक का ये तरीका एक भौगोलिक जरूरत था. 

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रानियां और राजकुमारियां भी कमर से ऊपर अनावृत रहती थीं 

केरल में उच्च वर्ग की महिलाएं भी अपने शरीर का ऊपरी हिस्सा नहीं ढंकती थी इसके समर्थन में कई ऐतिहासिक दस्तावेज मिलते हैं. केरल के इतिहासकार मनु एस पिल्लै कहते हैं कि केरल वो जगह थी जहां 16वीं सदी में केरल व्यापार करने आए पुर्तगाली व्यापरियों ने कमर से ऊपर बिना कपड़े के राजकुमारियों को व्यापार की संधियों पर बातचीत करते हुए और युद्ध में कमर से अनावृत सैनिकों का नेतृत्व करते हुए देखा था. 

इसी केरल में जब 17वीं सदी में इटली के एक व्यापारी ने एक राजसभा में शाही महिलाओं को कमर से ऊपर बिना कपड़े के देखा तो उसके आश्चर्य की सीमा नहीं रही. मनु एस पिल्लै कहते हैं कि तत्कालीन राजा दो राजकुमारियां इस इटली के व्यापारी को पूरे कपड़े में देखकर हैरान थीं कि आखिर इस उष्णकटिबंधीय गर्मी में ये मनुष्य इतने कपड़े क्यों पहना है? 

बिना कपड़ों का वक्ष, सम्मान देने का तरीका था

कहा जाता है कि 18वीं-19वीं सदी में छाती का खुला रखना समाज के कुलीनों का सम्मान देने का एक तरीका था. तत्कालीन केरल में इसे हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता था. इतिहासकार मनु एस पिल्लै ने कोचिन की रानी की एक तस्वीर ट्वीटर पर शेयर किया है जिसमें उनके स्तन खुले नजर आ रहे हैं. एक दूसरी तस्वीर में ब्राह्मण परिवार की स्त्रियां भी कमर से ऊपर बिना कपड़ों के नजर आ रही हैं. 

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लेकिन समय गुजरते गुजरते सहज दिखने वाली इस प्रथा में जातिगत अहंकार आ गया. दलित और निचले तबके की महिलाओं पर ये प्रथा थोप दी गई. अग्रेजों के आने के बाद विक्टोरियन मौरैलिटी का कॉन्सेप्ट आया और महिलाओं के खुले सीने को एक अलग नजर से देखा जाने लगा. इसे लेकर इस समाज में अकुलाहट बढ़ने लगी. 

हालांकि इससे पहले यहां ये बताना जरूरी है कि केरल में स्तनों का नहीं ढंकना सवर्णों के प्रति प्रतिष्ठा और आदर जताने का जरिया था. नायर जाति की औरतें नम्बूदरी ब्राह्मणों के सामने स्तन नहीं ढंकती थीं, नम्बूदरी ब्राह्मण स्त्रियां देवताओं की मूर्तियों के सामने स्तन को बिना कपड़ों के रखती थीं. इधर नीची जाति की नाडार (शनार) महिलाओं के स्तन ढंकने पर पूरा प्रतिबंध था. 

केरल की श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय में जेंडर इकॉलॉजी और दलित स्टडीज पढ़ाने वाली प्रोफेसर डॉ. शीबा केएम ने बीबीसी से बातचीत में कहा था कि ऊंची जाति की स्त्रियों को भी मंदिर में अपने सीने का कपड़ा हटा देना होता था. 

उच्च वर्ग की स्त्रियां कंधे पर शॉल रखती थीं

इतिहास पढ़ने पर पता चलता है कि उच्च वर्ग की स्त्रियां शॉल से अपने स्तनों को ढंकती थी. इस कैटेगरी में नायर औरतें आती थीं. लेकिन नम्बूदरी ब्राह्मण पुरुषों के सामने उन्हें ये कपड़ा भी हटाना पड़ता था. लेकिन इस आवरण का मॉडेस्टी से कोई लेना देना नहीं था. बता दें कि हम उस समय के केरल की बात कर रहे हैं जब केरल में बहुपति प्रथा प्रचलन में था. महिलाएं समाज में मजबूत स्थिति में थी और वे एक पुरुष को ठुकराकर आसानी से दूसरे मर्द से विवाह कर सकती थी. उस जमाने जो चलन में था उसका सार ये था कि कोई भी शालीन महिला अपने स्तन नहीं ढंकती हैं. 

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ये शॉल उच्च वर्ग की महिलाओं के लिए प्रतिष्ठा का प्रतीक था. निचली जाति की महिलाओं को इसका अधिकार नहीं था. लेकिन जब भारत में अंग्रेजों के साथ साथ क्रिश्चयन मिशनरियां आई तो निचली जाति के कई समूह क्रिश्चयन बन गए. स्तन न ढंकने को अंग्रेज मिशनरी 'सामाजिक बुराई' बताने लगे. इतिहासकार पिल्लै कहते हैं कि अंग्रेजों के साथ विक्टोरियन (पश्चिमी सभ्यता) पितृसत्तात्मक सोच साथ आई. महिलाओं को बताया गया कि वस्त्रहीन शरीर अपमान की निशानी है. 

पहली बार महिलाओं ने पहना ब्लाउज

अब ये चेतना आते ही नाडार और एडवा समुदाय की महिलाओं ने इस परंपरा का विरोध शुरू कर दिया. वे भी कुलीन वर्ग की महिलाओं की तरह अपने कंधे पर शॉल रखने लगीं. परिणामस्वरूप त्रावणकोर रियासत में कई जगह दंगे भड़क गए. लोगों का गुस्सा शांत कराने के लिए त्रावणकोर के राजा ने एक आदेश जारी किया और निचले तबके की महिलाओं को ब्लाउज पहनने की अनुमति दी गई. लेकिन संभ्रातों की प्रतिष्ठा का प्रतीक शॉल से उन्हें अपना शरीर ढंकने की इजाजत अबतक नहीं थी. 

जब स्त्रियों को मिला स्तन ढंकने का अधिकार

इसी दौरान शुरू हुआ अपर क्लोथ रिवोल्ट का पहला चरण. जो 1822 से 23 तक चला. आंदोलन का दूसरा उग्र रूप 1827 से 29 के बीच देखने को मिला. अबतक धर्मांतरित क्रिश्चयन महिलाओं की तरह निचली जाति की हिन्दू स्त्रियों को भी ब्लाउज पहनने की इजाजत दे दी गई. लेकिन अभी तक निम्न वर्ग की हिन्दू और क्रिश्चयन महिलाओं को उच्च वर्ग की महिलाओं की तरह कंधे पर शॉल रखने की इजाजत नहीं थी. 

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इस आंदोलन का तीसरा और आखिरी चरण 1858 से 59 के बीच हुआ जब धर्म और वर्ग से परे सभी स्त्रियों को अपनी पसंद के अनुसार अपने स्तनों को ढंकने का अनुसार मिला. अब वे उच्च वर्ग की महिलाओं की तरह कंधे पर शॉल भी रख सकती थीं. इस दौरान कन्याकुमारी, तिरुनेलवेली जिले में भयानक दंगे और हिंसा हुई. इस संघर्ष को आंदोलन का रूप देने में नाडार जाति का महिलाओं का संघर्ष सबसे प्रमुख रहा. 

नांगेली: वो महिला जिसने स्तन काटकर स्तन कर चुकाया

शरीर को ढंकने का अधिकार पाने के लिए हुए इन अनूठे आंदोलन में जिस महिला का बलिदान रोंगटे खड़े कर देने वाला है उसका नाम है नांगेली. एझावा जाति की गरीब महिला नांगेली की जिंदगी एक तो वैसे ही मुश्किलों भरी थी. ऊपर से करों का भार. एक समय ऐसा आया जब नांगेली बागी हो चुकी थी. राजा के कर संग्राहक (प्रवथियार) उससे हर हाल में कर वसूलने के लिए आमदा थे. 

बता दें कि जिस मुलक्करम यानि कि स्तन कर का जिक्र हमने ऊपर किया है, ये वही कर था जिसे लेने के लिए नांगेली को तंग किया जा रहा था. तत्कालीन समय का असर कहें या फिर नांगेली की अपनी चेतना, वो अबतक अपना स्तन ढककर रखने लगी थी. और उसने कर चुकाने से भी मना कर दिया. आखिरकार एक दिन त्रावणकोर का टैक्स कलेक्टर उसके घर आ धमका. 

नांगेली के लिए अब पानी सिर से ऊपर जा चुका था. उसने ऐसा प्रतिशोध लेने की ठानी, जिसने त्रावणकोर रियासत की बुनियाद में जलजला ला दिया. बार बार कर की मांग से त्रस्त नांगेली अपने घर के अंदर गई और केले के पत्ते में एक के बाद एक उसने अपने दोनों स्तन काटकर अधिकारी के सामने रख दिया. ये देखकर अधिकारी पर मानो वज्रपात हो गया. 

महिलाओं के मुद्दे पर लिखने वाली लेखिका दीप्ति प्रिया मेहरोत्रा ने अपनी किताब 'हर स्टोरीज: इंडियन वूमन डाउन द एज' में इस घटना का वर्णन किया है. वो लिखती हैं, " नांगेली के पास केले के दो लम्बे हरे पत्ते तैयार थे. उसने अपनी हंसिया भी तेज कर ली थी. उसने अपना सारा जीवन खेतों में काम किया था, और वो हंसिया चलाने में निपुण थी. उसने अपना हथियार उठाया, और एक झटके में तेज गति से अपने एक स्तन को काट दिया. वह असहनीय पीड़ा से कराह उठी,  उसके स्तन से फव्वारे की तरह रक्त निकलने लगा. एक झटका और उसका दूसरा स्तन भी कट चुका था. वो मांस के दो टुकड़े को, जो कुछ देर पहले उसके सुंदर शरीर का हिस्सा थे, लेकर अधिकारियों के पास चली गई."

चेरथला गांव की रहने वाली नांगेली कुछ ही मिनटों में जमीन पर गिर गई और दम तोड़ दिया. इस घटना को देखकर टैक्स कलेक्टर अपने पूरे अमले सहित वहां से जान बचाकर भागा. इस घटना की खबर बिजली की गति से पूरे रियासत में फैल गई. विद्रोह की श्रृंखला शुरू हो गई. कई जगहों से जातीय हिंसा की खबरें आई. अगले ही दिन आखिरकार त्रावणकोर के राज श्रीमोलम थिरूनल ने मुनादी करवाई और मुलक्करम यानी कि ब्रेस्ट टैक्स को बंद करने की घोषणा कर दी. जिस स्थान पर नांगेली रहती थी उस जगह को मुलाचीपरम्बु (स्तन वाली स्त्रियों का स्थान) कहा जाने लगा.

इतिहासकार स्तन कर पर राजी नहीं दिखते हैं

जैसा कि इतिहास की घटनाओं के साथ होता है. इतिहासकार मनु एस पिल्लै तत्कालीन समाज में स्तन कर की बात से इनकार करते हैं. उनका कहना है कि यह त्रावणकोर रियासत की ओर से निचली जातियों से लिया जाने वाला टैक्स था. पुरुषों के लिए इसे तलक्करम या हेडटैक्स और महिलाओं के लिए मुलक्करम या ब्रेस्ट टैक्स या स्तन कर कहा जाता था. स्तन कर का स्तन ढंकने से कोई लेना देना नहीं है. 

कहा जाता है कि यूं तो 1859 में ईस्वी में त्रावणकोर के राजा ने नाडार महिलाओं को औपचारिक रूप से अपने शरीर के ऊपरी हिस्से को ढंकने का अधिकार दे दिया, लेकिन एक खास तरीके से. फिर भी कोचिन और मालाबार जैसे क्षेत्रों में 20वीं सदी में भी शरीर के ऊपरे हिस्से को खुला रखने की प्रथा जारी रही. धीरे धीरे शिक्षा के प्रसार और सामान्य चेतना विकसित होने पर ही इस प्रथा का अंत हुआ. 


 

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