
दक्षिण भारत के अधिकतर राज्य संसदीय सीटों के लिए प्रस्तावित परिसीमन का विरोध कर रहे हैं. परिसीमन के तहत लोकसभा सीटों की संख्या बढ़ाई जानी है क्योंकि देश की जनसंख्या बढ़ने के चलते एक सांसद जितने लोगों को रिप्रजेंट कर सकता है उससे कहीं अधिक लोगों का प्रतिनिधित्व कर रहा है. लिहाजा परिसीमन कर जनसंख्या के आधार पर लोकसभा और राज्य विधान सभा में निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं का पुनः निर्धारण किया जाएगा. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिम ने इस पर कड़ा विरोध जताया है. आज जानेंगे कि आखिर परिसीमन है क्या, इसका आधार जनगणना ही क्यों है, इसकी परंपरा कब और कैसे शुरू हुई थी और परिसीमन को लेकर कानून क्या कहता है.
क्या है परिसीमन और इसका उद्देश्य क्या है?
बढ़ती जनसंख्या के आधार पर वक्त-वक्त पर निर्वाचन क्षेत्र की सीमाएं दोबारा निर्धारित करने की प्रक्रिया को परिसीमन कहते हैं. ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि हमारे लोकतंत्र में आबादी का सही प्रतिनिधित्व हो सके और सभी को समान अवसर मिल सकें. इसलिए लोकसभा या विधानसभा सीटों के क्षेत्र को दोबारा से परिभाषित या उनका पुनर्निधारण किया जाता है.
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इस पूरी प्रक्रिया के तीन मुख्य उदेश्य हैं-
1. चुनावी प्रक्रिया को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने के लिए परिसीमन जरूरी होता है. हर राज्य में समय के साथ जनसंख्या में बदलाव होते हैं, ऐसे में बढ़ती जनसंख्या के बाद भी सभी का समान प्रतिनिधित्व हो सके, इसलिए निर्वाचन क्षेत्र का पुनर्निधारण होता है.
2. बढ़ती जनसंख्या के मुताबिक निर्वाचन क्षेत्रों का सही तरीके से विभाजन हो सके, ये भी परिसीमन प्रक्रिया का अहम हिस्सा है. इसका उद्देश्य भी यही है कि हर वर्ग के नागरिक को प्रतिनिधित्व का समान अवसर मिले.
3. चुनाव के दौरान 'आरक्षित सीटों' की बात कई बार की जाती है. जब भी परिसीमन किया जाता है, तब अनुसूचित वर्ग के हितों को ध्यान में रखने के लिए आरक्षित सीटों का भी निर्धारण करना होता है.
परिसीमन का आधार जनगणना ही क्यों है?
भारत में परिसीमन की पूरी प्रक्रिया जनगणना के आंकड़ों पर आधारित होती है. यह इसलिए किया जाता है क्योंकि जनसंख्या में लगातार बदलाव होता रहता है और नए परिसीमन से यह सुनिश्चित किया जाता है कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की आबादी लगभग समान हो. जनगणना सरकार द्वारा अधिकृत और विस्तृत डेटा प्रदान करती है, जो सटीक परिसीमन के लिए आवश्यक होता है.
संविधान में प्रावधान किया गया है कि हर परिसीमन के लिए जनगणना के बाद नए आंकड़ों का उपयोग किया जाएगा. भारत में परिसीमन की यह परंपरा 1951 की पहली जनगणना से शुरू हुई, जब संविधान के तहत पहली बार परिसीमन आयोग गठित किया गया था.
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भारत में परिसीमन की परंपरा
परिसीमन का मुख्य उद्देश्य लोकसभा और विधानसभाओं में जनसंख्या के आधार पर संतुलित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है. यह प्रक्रिया भारत में आजादी के बाद से ही लागू है. भारत में परिसीमन की परंपरा की नींव संविधान सभा द्वारा रखी गई. जब भारत 1950 में गणराज्य बना, तब संविधान निर्माताओं ने तय किया कि लोकसभा और विधानसभा सीटों का निर्धारण जनसंख्या के अनुसार किया जाएगा. इसको संविधान के अनुच्छेद 82 और अनुच्छेद 170 में शामिल किया गया. इसके लिए एक विशेष निकाय परिसीमन आयोग (Delimitation Commission) गठित करने का भी प्रावधान किया गया.
भारत में पहला परिसीमन 1952 में किया गया, जो 1951 की जनगणना के आधार पर था. उस समय संसदीय और विधानसभा सीटों का निर्धारण इसी प्रक्रिया से हुआ. पहले आम चुनाव के समय लोकसभा सीटों की संख्या 489 थी. आखिरी बार 1971 की जनगणना के आधार पर 1976 में परिसीमन हुआ था, जिसके बाद सीटों की संख्या बढ़कर 543 हो गई. अनुच्छेद 82 के तहत अब तक चार परिसीमन आयोग गठित किए जा चुके हैं.
-पहला परिसीमन आयोग (1952)- 1951 की जनगणना के आधार पर
-दूसरा परिसीमन आयोग (1963)- 1961 की जनगणना के आधार पर
-तीसरा परिसीमन आयोग (1973)- 1971 की जनगणना के आधार पर
-चौथा परिसीमन आयोग (2002)- 2001 की जनगणना के आधार
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क्या कहता है संविधान का अनुच्छेद 82 और 170?
संविधान का अनुच्छेद 82 यह प्रावधान करता है कि हर जनगणना के बाद संसद परिसीमन आयोग का गठन करेगी. इस आयोग के मुख्यत: दो काम होते हैं-
पहला: लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं का पुनर्निर्धारण करना.
दूसरा: अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए आरक्षित सीटों का निर्धारण करना
वहीं संविधान का अनुच्छेद 170 राज्यों की विधानसभाओं की सीटों के निर्धारण से संबंधित है. किसी भी राज्य की विधानसभा में कम से कम 60 और अधिकतम 500 सीटें हो सकती हैं. हालांकि, छोटे राज्यों में 60 से कम सीटें भी हो सकती हैं.