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कुछ कहानियों के किरदार इतने प्रभावी होते हैं कि उनका जिक्र होते ही हम असल तस्वीर को भी उन्हीं कल्पनाओं की नजर से देखने लगते हैं. ऐसा ही एक रोल है ओटीटी सीरीज मिर्जापुर के कालीन भईया का. पंकज त्रिपाठी के मजबूत अभिनय ने यूपी के इस शहर और कालीन की ऐसी छवि गढ़ी है कि अब शायद इस शहर की असल तस्वीर उसमें धुंधली नजर आती है. लेकिन सच तो ये भी है कि कहानियां कितनी भी रोमांचकारी क्यों न हों उनकी चमक हकीकत से हमेशा फीकी ही होती है.
सीरीज देखने पर एक बात तो साफ है कि मिर्जापुर और कालीन भईया दोनों के लिए व्यापार बड़ा है. लेकिन सीरीज और असल मिर्जापुर को देखने से पता चलता है कि पुराने जमाने के मिर्जापुर में कट्टों और ड्रग्स का व्यापार तो नहीं था लेकिन कालीन का धंधा इस शहर की पहचान थी. दरअसल, उत्तर प्रदेश का मिर्जापुर-भदोही बेल्ट कभी एशिया के सबसे बड़े कालीन-उत्पादन क्षेत्र का हिस्सा था. जटिल रूप से बुने गए अधिकांश उत्पाद अमेरिका और यूरोप में निर्यात किए जाते थे.
भईया नहीं लेकिन 'कालीन' हमेशा से मिर्जापुर की पहचान
मिर्जापुर के रहने वाले पूर्व पत्रकार राजेंद्र श्रीवास्तव ने आजतक से कहा कि भदोही और मिर्जापुर लंबे समय से कालीन-बुनाई का केंद्र रहा है. दोनों शहरों के हर मोहल्ले में घरों में कालीन-बुनाई की व्यवस्था थी.50 साल पहले के अपने अनुभव को याद करते हुए वो बताते हैं कि इन छोटी कालीन-बुनाई इकाइयों द्वारा बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मिलता था. लेकिन धीरे-धीरे तस्वीर बदल गई.
वो बताते हैं कि उत्तर प्रदेश का कभी मजबूत कालीन उद्योग अब जर्जर होता नजर आ रहा है. मशीन-निर्मित कालीन, बाल श्रम पर प्रतिबंध, वैश्विक आर्थिक मंदी और कारीगरों के प्रवासन सहित कई कारकों ने इसे बहुत बड़ा झटका दिया है. लेकिन अभी भी मिर्जापुर के कुछ कालीन 'भाई' समाज के ताने-बाने में बुनी गई सदियों पुरानी परंपरा को जारी रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
बहुत पुराना है कालीन का इतिहास
स्थानीय किवदंतियों के अनुसार, उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर और भदोही में कालीन उद्योग की जड़ें 16वीं शताब्दी में मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल से जुड़ी हैं. कई लोग कहते हैं कि फारसी कालीन बुनकरों का एक समूह, जो मुगल दरबार की ओर जा रहा था उस पर डकैतों ने हमला कर दिया था.लेकिन स्थानीय ग्रामीणों द्वारा बचाए जाने और आश्रय पाने के बाद बुनकरों ने इस क्षेत्र को अपना घर बना लिया. यह वह समय था जब हस्तनिर्मित कालीनों का ईरान एक बड़ा केंद्र था. फारस (आधुनिक ईरान) में कालीन बुनाई लगभग 500 ईसा पूर्व की है.
लोग बताते हैं कि फारसी कारीगरों ने यहां के लोगों को बुनकरी की बारीकियां सिखाईं. इससे मिर्जापुर-भदोही के कालीन उद्योग की शुरुआत हुई, जो बाद में उत्तर प्रदेश के कई निकटवर्ती जिलों - वाराणसी, गाजीपुर, सोनभद्र, कौशांबी, इलाहाबाद, जौनपुर और चंदौली तक फैल गया.
एक कहानी ये भी मशहूर
भदोही स्थित कालीन निर्माता कुंदन आर्य उत्तर प्रदेश में उद्योग की इस कहानी का खंडन करते हैं.आर्य ने आजतक को बताया कि यह उद्योग तब इस शहर में मजबूत हुआ जब 1899 में एक ब्रिटिश महिला फारस से बुनकरों को लाईं और मिर्जापुर के खमरिया में ई हिल एंड कंपनी नामक पहली औपचारिक फैक्ट्री खोली गई.आर्य कहते हैं कि फारसी बुनकरों ने उन स्थानीय लोगों को कला सिखाई जो पहले से ही धातु नक्काशी से जुड़े हुए थे.
19वीं सदी में खूब चमका बिजनेस
19वीं सदी की शुरुआत में कालीन के बिजनेस में खासा इजाफा हुआ. खासकर 1857 के विद्रोह के बाद जब आगरा और दिल्ली से कई बुनकरों ने शांत मिर्जापुर की ओर रुख किया तो यहां कालीन का धंधा और मजबूत हो गया. धीरे-धीरे यह एशिया का सबसे बड़ा कालीन उत्पादक क्षेत्र बन गया. जानकारों का कहना है कि मिर्जापुर में कालीन उद्योग का एक प्रमुख केंद्र बनने के लिए सभी सामग्रियां मौजूद थीं. यहां किफायती और कुशल श्रम था. यह इलाका दिल्ली-कलकत्ता और इलाहाबाद के बीच स्थित था.20वीं सदी की शुरुआत तक मिर्जापुर-भदोही का कालीन उद्योग अपने स्वर्ण युग में पहुंच गया था.
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पीढ़ियों में ट्रांसफर होती रही बारीकियां
मिर्जापुर के विक्रम चंद्र जैन बताते हैं कि कालीन बनाने का ज्ञान और कौशल एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ट्रांसफर होता रहा. वो बताते हैं कि आज निराशाजनक दौर में भी भदोही और गोपीगंज (भदोही जिले में एक नगर पालिका) और उसके आसपास 400 से अधिक विनिर्माण इकाइयां हैं.
क्यों भदोही, मिर्जापुर के कालीन भाईयों की चमक फीकी पड़ी?
मिर्जापुर के कालीन उद्योग का पतन अचानक नहीं बल्कि धीरे-धीरे हुआ. एक नहीं बल्कि कई कारण थे जिन्होंने क्षेत्र के कालीन निर्माताओं के प्रभुत्व को हिलाने में भूमिका निभाई. विलेज वीवर्स के निदेशक विक्रम चंद्र जैन कहते हैं, 'चालीस साल पहले, मिर्जापुर में कम से कम 25,000 घर हुआ करते थे जिनमें करघे होते थे.लेकिन बाल श्रम को लेकर जब कई रिपोर्ट सामने आई तो इसने धंधे को काफी चोट पहुंचाई.
विक्रम बताते हैं कि भारत में अब हाथ से बुने कालीन की मांग भी कम हो गई है. कालीन भाईयों को अब विदेशी ग्राहकों पर निर्भर रहना पड़ता है. वहीं, सरकार की उपेक्षा के कारण भी इस उद्योग को झटका लगा है.विक्रम चंद्र जैन कहते हैं,कोविड से पहले, मिर्जापुर में लगभग 10,000 बुनकर थे. अब केवल लगभग 800 ही बचे हैं. वो बताते हैं कि कई कुशल कारीगरों ने इस व्यवसाय को छोड़ दिया है. कई बुनकरों को लगता है कि इस धंधे में अब मुनाफा नहीं है. उन्होंने मनरेगा और अन्य रोजगार के अवसर तलाश लिए हैं.