
पांच दशकों में पहली बार लोकसभा स्पीकर का चुनाव हुआ है. ओम बिरला स्पीकर चुन लिये गए हैं. इसके लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने-सामने आ गए. एनडीए उम्मीदवार ओम बिरला की जीत पक्की मानी जा रही थी लेकिन विपक्ष भी के. सुरेश को उतारकर बड़ा सियासी मैसेज दे दिया है. वो मैसेज ये है कि पिछले 10 साल की तरह इस बार सरकार की राह आसान नहीं होगी. इस जंग में जीत-हार कोई मायने नहीं रखता, बस हर पक्ष आयरिश स्विच गेम की तरह अपने सारे पत्ते इस्तेमाल कर लेना चाह रहा.
भारत की वर्तमान पीढ़ी ने चुनाव तो कई देखे होंगे लेकिन लोकतंत्र के केंद्र संसद के निचले सदन यानी लोकसभा में स्पीकर पद के लिए चुनाव होते इस देश ने इससे पहले सिर्फ दो बार देखा है. वो भी बहुत पहले यानी साल 1952 और 1976 में... तीसरी बार अब जंग छिड़ गई है. डिप्टी स्पीकर पद पाने की कांग्रेस की शर्त और संसद में बीजेपी के गुनागणित के बीच स्पीकर चुनाव को लेकर आम सहमति बनने की संभावना खत्म हुई तो चुनाव की नौबत आ गई. इस चुनाव में एनडीए के ओम बिरला एक तरफ थे तो दूसरी ओर कांग्रेस की ओर से के. सुरेश मैदान में उतरे. ये जंग दरअसल आयरिश स्विच गेम की तरह हो गया है जिसका नतीजा सबको पता है लेकिन अपने सारे कार्ड इस्तेमाल करना हर पक्ष चाह रहा है.
क्योंकि, सियासत में हमेशा आपका सिक्का न सिर्फ चलता रहे बल्कि आपका सितारा चमकता भी रहे इसके लिए जरूरी है कि आप न सिर्फ अपने दोस्तों बल्कि अपने विरोधी खेमे की नब्ज पर भी पकड़ बनाकर रखें. अमेरिका में राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी के नाना जॉन फिज्जेराल्ड के लिए इस टर्म का इस्तेमाल किया जाता था. उनके बारे में कहा जाता था कि वह तो उड़ती चिड़िया से भी अपने लिए वोट डलवा लें. सीनेटर और मेयर का पद उनकी जेब में माना जाता था.
स्पीकर चुनाव का नंबरगेम!
लोकसभा में अगर नंबरगेम की बात करें तो इस बार तस्वीर 2014 और 2019 के मुकाबले काफी अलग है. एनडीए की अगुवाई कर रही बीजेपी 240 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी तो है, लेकिन दो चुनाव बाद पार्टी पूर्ण बहुमत के लिए जरूरी 272 के जादुई आकंड़े से पीछे रह गई. लेकिन, चुनाव पूर्व किया गया गठबंधन काम आया और लोकसभा में एनडीए का संख्याबल 293 है जो कि बहुमत और स्पीकर चुनाव जीतने के लिए जरूरी 272 सीटों से 21 अधिक है.
दूसरी ओर, विपक्ष की बात करें तो कांग्रेस को भी 99 सीटों पर जीत मिली थी, लेकिन राहुल गांधी दो सीट से जीते थे और वायनाड से इस्तीफा दे चुके हैं. इस लिहाज से सांसदों की संख्या 98 रह गई है. लेकिन कांग्रेस की अगुवाई वाले इंडिया ब्लॉक के सदन में कुल 233 सांसद हैं. सात निर्दलीय समेत 16 अन्य भी चुनाव जीतकर संसद पहुंचे हैं लेकिन उनका रोल किसी का पलड़ा भारी कर सके ऐसी नौबत नहीं दिख रही. अब जब इस नंबरगेम के बावजूद इंडिया ब्लॉक ने उम्मीदवार उतारा है तो रणनीति साफ दिख रही है कि मैसेज बड़ा देना है.
के. सुरेश के नामांकन के समय इंडिया ब्लॉक के सहयोगी डीएमके, शिवसेना (उद्धव), एनसीपी(शरद पवार) और अन्य प्रमुख दलों के नेता मौजूद थे लेकिन पहले राय न लेने को लेकर टीएमसी नाराज हो गई और टीएमसी सांसदों ने नामांकन पत्र पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया. हालांकि बाद में राहुल का फोन आने के बाद ममता इंडिया ब्लॉक के कैंडिडेट को समर्थन करने को तैयार हो गई थी. इधर के. सुरेश से जब सवाल हुआ कि नंबरगेम पक्ष में न होने के बावजूद उम्मीदवार क्यों उतारा? तो के. सुरेश बोले- 'हारें या जीतें पता नहीं, लेकिन लड़ेंगे...'.
आयरिश स्विच गेम का जिक्र क्यों?
दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में संसद के अंदर नंबरगेम की ये जीत-हार दोनों पक्षों के लिए अहम है, खासकर सियासी मैसेज देने के लिए. ये जंग कुछ खास है क्योंकि इसका नतीजा भी सबको पता है और खेल के मोहरे भी. यूरोपीय देश आयरलैंड में कार्ड गेम के एक खास लेकिन शातिर गुण का जिक्र होता है 'आयरिश स्विच'. इसे राजनीति के लिए जरूरी माना जाता है. ये शब्द उस हालात के लिए इस्तेमाल होता है जब ''आप किसी से बात करते रहिए, किसी और का हाथ अपने हाथ में लिए हुए और किसी तीसरे पर नजर बनाए रखते हुए''.
हर गेम में पावर कार्ड जरूरी...
सियासत का पावर बैलेंस रूल आयरिश स्विच गेम में दिखता है. यह एक कार्ड गेम है. इसमें खिलाड़ियों को शुरू में समान संख्या में कार्ड बांटे जाते हैं. अक्सर प्रति व्यक्ति 7. इसमें सभी कार्डों का समान मूल्य होता है लेकिन कुछ कार्डों को 'पावर' या 'ट्रिक' कार्ड के रूप में जाना जाता है क्योंकि उनके खेले जाने से गेमप्ले पर सीधा प्रभाव पड़ता है. भारत हो या अमेरिका या कोई और देश... हर जगह सियासत में 'पावर कार्ड' को सबसे जरूरी माना जाता है यानी ऐसा ट्रंप कार्ड जो एक बार में विरोधी को चारों खाने चित कर दे.
इस खुली जंग की जरूरत क्यों आई?
लगातार दो बार के प्रचंड जीत के बाद 10 साल से अपने दम पर देश की सत्ता में काबिज बीजेपी को इस बार स्पष्ट बहुमत मिलने की बजाय एनडीए को मिले बहुमत ने गठबंधन की सियासत को फिर से फ्रंट पर ला दिया है. सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपने अपने गठबंधन के खेमों को संजोने में जुट गए हैं. गठबंधन के दम पर तीसरी बार सत्ता में आई बीजेपी किसी भी कीमत पर विपक्ष को नया मंच नहीं देना चाहती, यहां तक कि डिप्टी स्पीकर पद के लिए भी. तो वहीं कांग्रेस भी हर मंच का इस्तेमाल कर ये बताना चाहती है कि उसका नंबरगेम इस बार पिछले दो कार्यकाल की तरह कमजोर नहीं है और ना ही विपक्षी खेमा इस बार पहले की तरह बंटा हुआ है.
परंपरा का मसला क्यों उठ रहा?
सोमवार शाम जब रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे को स्पीकर चुनाव के लिए समर्थन मांगने के लिए फोन किया तो कांग्रेस ने साफ शर्त रख दी कि अगर स्पीकर चुनाव के लिए समर्थन चाहिए तो डिप्टी स्पीकर का पद विपक्ष को देना होगा. कांग्रेस ने बीजेपी को 2014 के पहले की संसदीय परंपरा की याद भी दिलाई जिसमें चुनाव की नौबत नहीं आती थी और स्पीकर पद सत्ता पक्ष को और डिप्टी स्पीकर का पद विपक्ष को देकर आम सहमति से चुनाव हुआ करता था. हालांकि, 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद परंपरा भी बदली और गणित भी. 2014 में डिप्टी स्पीकर का पद मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को न देकर बीजेपी ने एआईएडीएमके के थंबीदुरई पर दांव खेला था और 2019 के चुनाव के बाद यानी पिछली लोकसभा के कार्यकाल में डिप्टी स्पीकर का पद रिक्त ही रहा.
जंग छोटी लेकिन मायने बड़े...
कांग्रेस जानती थी कि स्पीकर चुनाव में जेडीयू और टीडीपी के समर्थन के बूते बीजेपी अपना उम्मीदवार आराम से जीता ले जाएगी लेकिन कांग्रेस के लिए ये लड़ाई नंबरगेम में सत्ता पक्ष को हराने की नहीं, बल्कि विपक्षी एकता और बदली हुई स्थिति का एहसास कराना था. शह-मात के इस खेल में कौन हावी रहेगा, जंग अब इस बात की है. इसलिए हर कोई आयरिश स्विच गेम की तरह अपना हर कार्ड इस्तेमाल कर लेना चाहता है. क्योंकि हर जंग जीतने के लिए ही नहीं बल्कि कुछ जंग नई परिपाटी शुरू करने के लिए भी लड़ी जाती है, कुछ जंग दूरगामी संदेश देने के लिए भी लड़ी जाती है.
वैसे भी कहा जाता है कि राजनीति में चाल बदलती रहनी चाहिए, हवा का रुख देखकर. सियासत में हर चाल के पीछे कोई न कोई रणनीति होती है. अब स्पीकर चुनाव को लेकर जंग छिड़ गई है तो उसके अपने नफा नुकसान होंगे हर दल के लिए. लेकिन आदर्श स्थिति तो तब होती जब लोकतंत्र के सबसे संसदीय पद के लिए इस जंग की नौबत ही नहीं आती.
आज से करीब 2000 साल पहले चाइनीज दार्शनिक सन त्जु ने अपनी किताब 'द आर्ट ऑफ वॉर' में लिखा कि सबसे बड़ी जीत वह है जिसके लिए किसी लड़ाई की आवश्यकता ही नहीं हो...'. सन त्जु की यह बात हर क्षेत्र में सदियों से लागू है. चाहे वो युद्ध का मैदान हो, सियासत का अखाड़ा हो या रोजमर्रा की जीवन. यहां बीस वही पड़ता है जो गेम के रूल में फिट होता रहे. यानी अपने दांव से अपना मैसेज देने और अपना पावर बैलेंस साधने में जिसकी गोटी फिट हो वही असली विजेता...