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Mahakumbh-2025: पुरुष से स्त्री बन गए उस राजा की कहानी जिसके नाम पर इलावास कहलाया प्रयाग

प्राचीन काल में प्रयाग गंगा और यमुना के संगम क्षेत्र पर इसके किनारे फैला एक विस्तृत वन क्षेत्र था. इसे प्रयागवन के नाम से जाना जाता था. नगरीय सभ्यता इससे काफी दूर थी और इस दौरान यह ऋषियों के तपोवन के लिए सटीक जगह रही थी. लेखक गोविंद कुमार सक्सेना अपनी पुस्तक 'प्रयाग महाकुंभ' में लिखते हैं कि, 'प्रयाग वस्तुतः एक विस्तृत तपोभूमि ही थी. जिसमें अठ्ठासी हजार ऋषि मुनियों के आश्रम थे.

शिव-पार्वती से क्षमा याचना करता राजा ऐल जो काम्यक वन में प्रवेश करने से इला बन गया था. (Photo; AI) शिव-पार्वती से क्षमा याचना करता राजा ऐल जो काम्यक वन में प्रवेश करने से इला बन गया था. (Photo; AI)
विकास पोरवाल
  • नई दिल्ली,
  • 10 जनवरी 2025,
  • अपडेटेड 2:43 PM IST

महाकुंभ-2025 के आयोजन से विश्व पटल पर प्रसिद्ध हो रहे प्रयागराज की पहचान सदियों से वैदिक और पौराणिक भूमि की रही है. गंगा-यमुना को दोआब भूमि में बसे इस राज्य का जितना महत्व मुगल और ब्रिटिश राज में रहा है, उससे कहीं अधिक इसका महत्व पौराणिक आख्यानों में भी दर्ज किया गया है. प्रयागराज को कुछ साल पहले तक इलाहाबाद नाम से जानते थे. इसका प्राचीन नाम प्रयाग रहा है. इतिहास में इस शहर का नाम कड़ा भी रहा है. इसके अलावा पुराणों में इसका एक नाम 'इलावास' भी मिलता है. 
 
प्राचीन काल में वनक्षेत्र था प्रयाग
असल में प्राचीन काल में प्रयाग गंगा और यमुना के संगम क्षेत्र पर इसके किनारे फैला एक विस्तृत वन क्षेत्र था. इसे प्रयागवन के नाम से जाना जाता था. नगरीय सभ्यता इससे काफी दूर थी और इस दौरान यह ऋषियों के तपोवन के लिए सटीक जगह रही थी. लेखक गोविंद कुमार सक्सेना अपनी पुस्तक 'प्रयाग महाकुंभ' में लिखते हैं कि, 'प्रयाग वस्तुतः एक विस्तृत तपोभूमि ही थी. जिसमें अठ्ठासी हजार ऋषि मुनियों के आश्रम थे. प्रयाग मंडल का विस्तार ‘बीस कोस’ माना गया है, यमुनापार पनासा (पर्ण आश्रम) से गंगापार दुर्वासा आश्रम और श्रृंगवेरपुर तक का क्षेत्र प्रयाग की सीमा में आता है.' 

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इलावंशीय राजाओं के अधीन रहा था संगम तट
प्राचीन काल में इस क्षेत्र पर ‘इलावंशीय’ राजाओं का आधिपत्य था. अतः इसे इलावास के नाम से भी जाना जाता था. पौराणिक आख्यानों के अनुसार भारत के राजकुलों का इतिहास अयोध्या के सूर्यवंशी राजा ‘इक्ष्वाकु’ से शुरू होता है. इतिहास कारों का मानना है कि इक्ष्वाकु के समकालीन ‘ऐल’ जाति के लोग मध्य हिमालय क्षेत्र से अल्मोड़ा होते हुए प्रयाग आये थे, उनके राजा ‘इला’ ने प्रतिष्ठानपुर (झूंसी) को अपने राज्य में मिला लिया था. जल्दी ही अयोध्या, विदेह और वैशाली के राज्यों को छोड़कर पूरे उत्तर भारत में तथा दक्षिण में विदर्भ तक ‘इलावंशीय’ सम्राटों की सत्ता काबिज रही. 

कौन था राजा ऐल?
पौराणिक आख्यानों में राजा ऐल का नाम प्रमुखता से आता है. उसका एक नाम इला भी मिलता है. इला बाद उसके पुत्र ‘पुरुरवा’ ने राज संभाला. पुरुरवा के पुत्र आयु ने अपने राज्य का विस्तार चीन के यूनान प्रांत तक किया, ऐसा माना जाता है. आयु के परपोते सम्राट ‘ययाति’ पौराणिक काल के 6 प्रसिद्ध चक्रवर्तियों में से एक हुआ. उसकी छत्तीसवीं पीढ़ी के सम्राट दुष्यंत ने अपनी राजधानी प्रतिष्ठानपुर से लाकर ‘इलावास’ में स्थापित की. प्रतापी सम्राट भरत जिसके नाम पर हमारे देश का नाम भरत वर्ष पड़ा, इन्हीं दुष्यन्त के पुत्र थे. महाराज भरत ही ऋषि भारद्वाज को काशी से इलावास ले आए और उनकी सहायता से यहां सौ यज्ञों का आयोजन किया. 

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पुराण कथाओं में है इसका जिक्र
इस पूरी वंश परंपरा और साम्राज्य विस्तार की कहानी में राजा एल का नाम आना बेहद दिलचस्प है. क्योंकि उनके जीवन की ही एक कथा से प्रयाग के संगम क्षेत्र के नगरीय हिस्से के इलावास नाम मिला था. इसे ही कहीं-कहीं इलावर्त भी कहा जाता है. राजा एल एक सूर्यवंशी राजा था, लेकिन वह चंद्रवंशी राजाओं का पूर्वज भी है. ऐसा कैसे, इसी सवाल का जवाब पुराण कथाओं में मिलता है. 

विष्णु पुराण और भागवत पुराण में इसका विस्तार से वर्णन है. पौराणिक संदर्भों में क्षत्रिय परंपरा में दो वंश सबसे प्रमुख रहे हैं. एक सूर्य देव का सूर्य वंश और दूसरा चंद्रवंश. सूर्यवंश में इक्ष्वाकु, सगर, रघु, दशरथ और खुद श्रीराम जन्मे थे. वहीं, चंद्रवंश में पुरुरवा, आयु, ययाति, शांतनु और भीष्म जैसे प्रतापी राजा हुए हैं. खुद श्रीकृष्ण का यदुवंश भी चंद्रवंश की ही एक शाखा से निकला है. 

ऐसे हुई थी चंद्रवंश की शुरुआत
चंद्रवंश की शुरुआत कैसे हुई, यह कथा बहुत रोचक है. एक बार देवी पार्वती के कहने पर भगवान शिव ने बहुत ही सुंदर और रमणीक 'काम्यक वन' की रचना की. बता दें कि आगे चलकर यही काम्यक वन महाभारत में भी मिलता है, जहां पांडवों ने अपने वनवास के दिन बिताए थे. यह वन मायावी था और देवी पार्वती के कहने पर भगवान शिव ने इसे बेहद गुप्त रखा था. पार्वती ने इस वन को एक श्राप से भी बांध रखा था. उन्होंने इस श्राप में कहा था कि, अगर कोई भी इस वन में उनकी इच्छा के विरुद्ध प्रवेश करेगा तो वह स्त्री हो जाएगा. इसके बाद देवी पार्वती और भगवान शिव इस वन में एकल विहार के लिए चले गए. 

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शिव-पार्वती के काम्यक वन में प्रवेश कर गया राजा ऐल
उधर, वैवस्वत मनु का पुत्र एल, किसी शत्रु राजा का पीछा करते हुए नगर से दूर वन में निकल आया. वह शत्रु राजा तो नहीं मिला, लेकिन उसे खोजता हुआ एल गलती से शिव-पार्वती के मायावी काम्यक वन में प्रवेश कर गया. वन में प्रवेश करते ही वह पार्वती के श्राप से शापित हो गया और स्त्री बन गया. अपना ये रूप देखकर उसे बहुत दुख भी हुआ और आश्चर्य भी. उसने बार-बार देवी पार्वती से माफी मांगी कि वह गलती से इस वन में प्रवेश कर गया था, लेकिन अब वह श्रापित हो चुका था इसलिए इसे बदला नहीं जा सकता था. तब देवी पार्वती ने कहा कि, भले ही यह श्राप बदला नहीं जा सकता,  लेकिन इसकी अवधि कम की जा सकती थी. देवी पार्वती ने उसके स्त्री बने रहने की अवधि सिर्फ दो वर्ष कर दी. 

इस तरह ऐल से इला बन गया राजा
इस दौरान एल का नाम इला हो गया. इधर, इला रूप में ही उसका चंद्रमा के पुत्र बुध से विवाह हुआ. इला और बुध के पुत्र का नाम पुरुरवा हुआ, जिसने चंद्रवंश की स्थापना की. पुरुरवा एक पराक्रमी राजा के तौर पर पौराणिक इतिहास में पहचाना जाता है. पुरुरवा के साथ स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी ने विवाह किया था. इन दोनों की कथा का क्षेत्र प्रयाग का ही माना जाता है. लेखक डॉ. राजेंद्र त्रिपाठी 'रसराज' अपनी पुस्तक 'प्रयागराज कुंभ कथा' में भी लिखते हैं कि पुरुरवा प्रयाग के संगम तट पर स्थित प्रतिष्ठानपुर (आज का झूंसी) का राजा हुआ करता था. बाद में यही नगरी  नहुष, ययाति, पुरु, दुष्यंत और भरत के भी शासन के केंद्र में रही. इन चंद्रवंशी राजाओं, जिन्हें इलावंशी भी कहा जाता है, उनके शासन का केंद्र होने के कारण यह स्थल 'इलावास' नाम से भी प्रसिद्ध हुआ है.

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