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पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कहना है कि अगर हिंसा प्रभावित बांग्लादेश के लोग बंगाल के दरवाजे पर आएंगे तो वह उन्हें शरण देंगी. उन्होंने इसके लिए यूनाटेड नेशन समझौते का भी हवाला दिया, जिसमें सिग्नेटरी देशों से शरणार्थियों को शरण देने की बात कही गई है.
ममता का कहना है कि बांग्लादेश में हिंसा के मुद्दे पर वह कुछ नहीं बोलेंगी, क्योंकि यह केंद्र सरकार का काम है - लेकिन वहां के मजबूर लोग अगर आएंगे तो उन्हें शरण दिया जाएगा. आइए इस रिपोर्ट में जानते हैं कि क्या ममता बनर्जी अपने लेवल पर बांग्लादेश के संभावित शरणार्थियों को शरण दे सकती हैं?
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दरअसल, ममता बनर्जी जिस यूनाइटेड नेशन समझौते का हवाला दे रही हैं, उसमें भारत एक सिग्नेटरी नहीं है. मसलन, इस प्रस्ताव पर भारत के हस्ताक्षर नहीं हैं और ऐसे में भारत यूएन के इस प्रस्ताव के तहत किसी को भी नागरिकता नहीं देता है. भारत में शरणार्थियों पर अपने नियम-कानून हैं, जिसके तहत किसी को शरण देने का प्रावधान है. किसी विदेशी नागरिक को शरणार्थी स्टेटस देने का अधिकार राज्यों को नहीं है.
शरणार्थियों पर क्या है भारत का स्टैंड?
लोकसभा में सांसद सुगाता रॉय के एक सवाल पर गृह मंत्रालय ने 16 मार्च 2021 को अपने जवाब में कहा था कि भारत शरणार्थियों की स्थिति से संबंधित 1951 के यूएन समझौते और उस पर 1967 के प्रोटोकॉल पर सिग्नेटरी नहीं है. मंत्रालय का कहना था कि सभी विदेशी नागरिक (शरण चाहने वालों सहित) को फॉरेनर्स एक्ट-1946, रजिस्ट्रेशन ऑफ फॉरेनर्स एक्ट-1939, पासपोर्ट (एंट्री इंटू इंडिया) एक्ट-1920 और सिटिजनशिप एक्ट-1955 के तहत शासित किया जाता है.
गृह मंत्रालय ने अपने जवाब में कहा था, "हालांकि, केंद्र सरकार द्वारा 2011 में एक SoP जारी की गई थी, जिसमें 2019 में संशोधन भी किया गया था और इसी एसओपी के तहत देश की कानून प्रवर्तन एजेंसियां शरणार्थियों के साथ डील करती हैं. मंत्रालय ने दोहराया था कि राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों के पास भारतीय नियमों की तरह किसी भी विदेशी को "शरणार्थी" का दर्जा देने का कोई अधिकार नहीं है.
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क्या है शरणार्थियों को लेकर यूएन समझौता?
यूनाइटेड नेशन ने यूरोप के शरणार्थियों के लिए 1951 में एक प्रस्ताव पास किया था, जिसे 1954 में लागू किया गया. इसके बाद 1967 में इसमें एक संशोधन भी किया गया था और दुनियाभर में इसे लागू किया था, जिसपर दर्जनों देशों ने सहमति दी थी. यह एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है और इसके तहत वैश्विक स्तर पर शरणार्थियों की सुरक्षा और उनके अधिकार सुनिश्चित किए जाते हैं.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के साधन के रूप में 1951 का समझौता मूल रूप से 1 जनवरी 1951 से पहले और यूरोप के भीतर होने वाली घटनाओं से भागने वाले लोगों तक ही सीमित था. 1967 के प्रोटोकॉल में इन सीमाओं को हटा दिया गया था और इसमें वैश्विक स्तर पर शरणार्थियों को कवर किया गया. इस समझौते के तहत शरणार्थियों के अधिकार भी तय किए गए, जिसके तहत वे किसी भी सिग्नेटरी देश में शरण ले सकते हैं.