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'बंदूक के सामने कैसे टिकते, भागकर बचाई जान', राहत शिविर में मणिपुर हिंसा के पीड़ितों का छलका दर्द

पूर्वोत्तर राज्य में मैतेई और कुकी समुदायों के बीच जातीय संघर्ष में अब तक 150 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है. तीन हजार ज्यादा लोग बुरी तरह घायल हुए हैं. करीब 50 हजार लोग अपना घर-बार छोड़कर रिलीफ कैम्प में रहने को मजबूर हैं. मणिपुर में मैतेई समुदाय की आबादी 53 फीसदी से ज्यादा है. ये गैर-जनजाति समुदाय है, जिनमें ज्यादातर हिंदू हैं. वहीं, कुकी और नगा की आबादी 40 फीसदी के आसपास है.

राहत शिविरों में छलका पीड़ितों का दर्द राहत शिविरों में छलका पीड़ितों का दर्द
ऋत्तिक मंडल
  • इंफाल,
  • 23 जुलाई 2023,
  • अपडेटेड 11:45 PM IST

3 मई को बहुसंख्यक मैतेई और कुकी समुदाय के बीच हुई झड़प के बाद से मणिपुर हिंसा की आग में सुलग रहा है. अब तक 150 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है. वहीं सैकड़ों लोग घायल हुए हैं. इतना ही नहीं, सैकड़ों लोग अपने घरों को छोड़ने को मजबूर हुए हैं, जो सरकार के राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं. उनके घरों को जला दिया गया है.  आजतक की टीम ने ऐसे ही पीड़ितों से बात करने के लिए इंफाल में एक राहत शिविर का दौरा किया. यहां चुराचांदपुर और सीमावर्ती शहर मोरे से मैतेई लोगों को शिफ्ट किया गया है.

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यहां एक कॉलेज को राहत शिविर में तब्दील किया गया है. इसमें कई परिवार के दर्जनों लोग रह रहे हैं. यहां सरकार की तरफ से इनके लिए खाने-पीने की व्यवस्था के साथ-साथ बच्चों की पढ़ाई की भी व्यवस्था की गई है. शिविर में रह रहे लोग अपने-अपने घर वापस लौटने की आस में बैठे हैं और सरकार से जल्द स्थिति काबू कर हालात सामान्य करने की अपील कर रहे हैं.

इस शिविर में रह रहे 900 लोग 

हेमा बती भी उन 900 लोगों में से एक हैं, जिनका घर जला दिया गया और यहां शिविर में रहने को मजबूर हैं. उनके दो बच्चे हैं और पति की 10 साल पहले मृत्यु हो चुकी है. वह भारत-म्यांमार के सीमावर्ती शहर मोरे की रहने वाली हैं. जब वह अपने बच्चों के साथ अपने गांव से भागी तो दूसरे समुदाय के गुंडों ने उन पर हमला कर दिया था, जिसमें वह गंभीर रूप से घायल हो गई थीं. अब दो महीने से अधिक समय हो गया है और इस राहत शिविर का एक कमरा ही उनका घर बन गया है. वह इस छोटे से घुटन भरे कमरे को दूसरों के साथ शेयर करती हैं. उनका एक हाथ आंशिक रूप से लकवाग्रस्त हो गया, वह इसके लिए जातीय संघर्ष को जिम्मेदार मानती हैं.

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घर में लगी आग बुझाने पहुंची तो लाठी-डंडों से हुआ हमला

राजधानी इम्फाल से 107 किमी दूर स्थित कस्बे मोरे की रहने वाली हेमा 3 मई के दिन हो याद करते हुए कहती हैं कि उनके घर को आग लगा दी गई थी. जब वह आग बुझाने के लिए पानी लेकर पहुंची तो कुकी समुयाद के दंगाइयों ने उन पर लाठी-डंडों से हमला कर दिया. इसमें उनका हाथ भी टूट गया. इसके चलते उन्हें एक महीने तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा था. वहां हालत बहुत खराब हैं. हम लोगों के घरों को जला दिया गया. बंदूक के सामने हम लोग कैसे टिक पाते. छिप-छिपाकर जान बचाकर भागकर यहां आए हैं. वहां बम भी चलाए गए हैं. 

हेमा से अगला कमरा रोनिता चानू (20) और उसके भाई का आश्रय है. उसकी आंखों में सपने हैं, कई साल पहले अपने माता-पिता को खो चुकी रोनिता अपने भाई के साथ मोरे स्थित अपने घर वापस जाने की उम्मीद कर रही है. घरों को आग लगाए जाने और हमले के बाद वह किसी तरह से वहां से भागी. इस दौरान वह अपने तीन पालतू कुत्तों में एक को ही साथ ला सकी. 

तीन में से सिर्फ एक ही डॉग को लेकर आ सकी रोनिता

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रोनिता ने बताया कि वह पढ़ाई कर रही थी लेकिन अब सब कुछ छूट गया है. 3 मई को हम यहां आए थे. इस कमरे में 5 परिवार के 21 लोग रहते हैं. यहां पर दवाई और खाने की व्यवस्था की गई है. छोटे बच्चों को पढ़ाया भी जा रहा है. मेरे घर पर तीन डॉग थे. उस दिन अचानक घरों में आग लगाई जाने लगी, हम घबरा गए और दौड़े तो सिर्फ एक ही डॉग को अपने साथ ला सके. उन्होंने कहा कि हमें हमारी घरों की बहुत याद आती है और हम जल्द से जल्द घर जाना चाहते हैं. सरकार से गुहार है कि हमारे घर जाने की व्यवस्था कराएं और स्थिति काबू कराएं.
 
'मैतेई के लिए अस्थायी आश्रय में पुनर्वास समाधान नहीं'

सात महीने के बच्चे की मां नगनथोइबी मई के महीने में चुराचांदपुर से यहां भागकर आई थीं. वह अपने परिवार के साथ 11 मई को इंफाल कैंप में पहुंचीं. तब से इस कैंप का कमरा नंबर 12 ही उनका घर बन गया है. घटनाओं को याद करते हुए वह रो पड़ीं और कहा कि मैतेई के लिए अस्थायी आश्रय में पुनर्वास समाधान नहीं है. सरकार को जल्द कदम उठाकर हमें हमारे घर भेजना होगा.

50 हजार लोग राहत शिविर में रहने को मजबूर 

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बता दें कि पूर्वोत्तर राज्य में मैतेई और कुकी समुदायों के बीच जातीय संघर्ष में अब तक 150 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है. तीन हजार ज्यादा लोग बुरी तरह घायल हुए हैं. करीब 50 हजार लोग अपना घर-बार छोड़कर रिलीफ कैम्प में रहने को मजबूर हैं. मणिपुर की आबादी में मैतेई समुदाय की संख्या लगभग 53 प्रतिशत है और वे ज्यादातर इंफाल घाटी में रहते हैं. आदिवासी समुदाय के नागा और कुकी की 40 प्रतिशत आबादी हैं. ये समुदाय पहाड़ी जिलों में रहता है. अब दोनों समुदाय अपने यहां रहने वाले दूसरे समुदाय के लोगों पर हमले कर रहे हैं.

क्यों भड़की थी मणिपुर में हिंसा? 

मणिपुर में तीन मई को कुकी समुदाय की ओर से निकाले गए 'आदिवासी एकता मार्च' के दौरान हिंसा भड़की थी. इस दौरान कुकी और मैतेई समुदाय के बीच हिंसक झड़प हो गई थी. तब से ही वहां हालात तनावपूर्ण बने हुए हैं. जानकारों का मानना है कि बातचीत से ही इस हिंसा को शांत किया जा सकता है, लेकिन समस्या ये है कि बातचीत को कोई तैयार हो नहीं रहा है.

मैतेई क्यों मांग रहे जनजाति का दर्जा? 

- मणिपुर में मैतेई समुदाय की आबादी 53 फीसदी से ज्यादा है. ये गैर-जनजाति समुदाय है, जिनमें ज्यादातर हिंदू हैं. वहीं, कुकी और नगा की आबादी 40 फीसदी के आसपास है. 

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- राज्य में इतनी बड़ी आबादी होने के बावजूद मैतेई समुदाय सिर्फ घाटी में ही बस सकते हैं. मणिपुर का 90 फीसदी से ज्यादा इलाकी पहाड़ी है. सिर्फ 10 फीसदी ही घाटी है. पहाड़ी इलाकों पर नगा और कुकी समुदाय का तो घाटी में मैतेई का दबदबा है. 

- मणिपुर में एक कानून है. इसके तहत, घाटी में बसे मैतेई समुदाय के लोग पहाड़ी इलाकों में न बस सकते हैं और न जमीन खरीद सकते हैं. लेकिन पहाड़ी इलाकों में बसे जनजाति समुदाय के कुकी और नगा घाटी में बस भी सकते हैं और जमीन भी खरीद सकते हैं. 

- पूरा मसला इस बात पर है कि 53 फीसदी से ज्यादा आबादी सिर्फ 10 फीसदी इलाके में रह सकती है, लेकिन 40 फीसदी आबादी का दबदबा 90 फीसदी से ज्यादा इलाके पर है.

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