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15 दल, सबका एजेंडा अलग, सीटों के फॉर्मूले पर भी पेच... नीतीश के विपक्षी महाजुटान के बारे में जानें सबकुछ

सीएम नीतीश कुमार विपक्षी दलों को एकजुट करने के लिए पटना में बड़ी मीटिंग करने जा रहे हैं. इस महाबैठक में 15 विपक्षी दल शामिल हो रहे हैं, जबकि जदयू और राजद मेजबान की भूमिका में हैं. मीटिंग का एजेंडा साफ है कि 2024 के चुनाव में बीजेपी को हराने के लिए सभी गैर विपक्षी दल एक साथ आएं, लेकिन क्या ऐसा हो पाना इतना सरल है?

नीतीश कुमार पटना में विपक्षी दलों की बड़ी बैठक आयोजित कर रहे हैं (फाइल फोटो) नीतीश कुमार पटना में विपक्षी दलों की बड़ी बैठक आयोजित कर रहे हैं (फाइल फोटो)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 23 जून 2023,
  • अपडेटेड 11:55 AM IST

बीते तकरीबन दो महीने से सीएम नीतीश देशभर की यात्रा कर चुके हैं. इस यात्रा का मकसद बताते हुए वह साफ कहते हैं कि बीजेपी के विजय रथ को रोकना है तो विपक्षी दलों को साथ आना होगा. इसके लिए वो बड़े राजनीतिक दलों के साथ-साथ छोटे क्षेत्रीय दलों को एक मंच पर लाने का प्रयास कर रहे हैं. इन यात्राओं और मुलाकातों में नीतीश कुमार ने जो मेहनत की है, शुक्रवार को दिन में 11 बजे के बाद उसीका लिटमस टेस्ट है. कई दौर की रोक और टोक के बाद पटना में प्रस्तावित विपक्षी दलों की बड़ी बैठक आज होने जा रही है. इसका एजेंडा क्या है, इनमें कौन शामिल होंगे, सहमति बनेगी या टकराव होंगे और किसे क्या हासिल होगा. बैठक एक और सवाल कई हैं. इन्हीं सवालो और इनके जवाब पर डालते हैं एक नजर... 

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15 दलों की लिस्ट
विपक्ष की बैठक के लिए आज पटना में गैर बीजेपी दलों का महाजुटान होने जा रहा है. अब तक की सामने आई लिस्ट के मुताबिक इस बैठक में 17 दलों के नेताओं के शामिल होने की बात है. यानि की जदयू और राजद के अलावा 15 दल और शामिल हो रहे हैं. विपक्षी महाजुटान से पहले कुछ नेताओं की ओर से जिस तरह के बयान सामने आए हैं, उसके बाद सवाल ये है कि क्या एकजुटता के एजेंडे पर हो रही ये बैठक 'ऑफिशियल एजेंडे' तक सीमित रह पाएगी? बैठक में कांग्रेस की ओर से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और कांग्रेस के ही पूर्व सांसद राहुल गांधी शामिल होंगे. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार, नेशनल कांफ्रेन्स नेता फारुक अब्दुल्ला, पीडीपी सुप्रीमो महबूबा मुफ्ती समेत लेफ्ट के कई नेता जैसे सीताराम येचुरी और डी राजा भी इस बैठक में शामिल होंगे.

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विपक्ष के ये नेता बैठक में होंगे शामिल

 जेडीयू  नीतीश कुमार
 आरजेडी  तेजस्वी यादव
 कांग्रेस  राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे
 तृणमूल कांग्रेस  ममता बनर्जी
 राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी  शरद पवार
 शिवसेना यूबीटी  उद्धव ठाकरे
 आम आदमी पार्टी  अरविंद केजरीवाल, संजय सिंह
 समाजवादी पार्टी  अखिलेश यादव
 झारखंड मुक्ति मोर्चा  हेमंत सोरेन
 डीएमके  एमके स्टालिन
 नेशनल कॉन्फ्रेंस  उमर अब्दुल्ला
 पीडीपी  महबूबा मुफ्ती
 भाकपा  डी राजा
 भाकपा माले  दीपांकर भट्टाचार्य
 माकपा  सीताराम येचुरी

नेताओं की लिस्ट
इस महाजुटान में राहुल गांधी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, शरद पवार, एमके स्टालिन, फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, उद्धव ठाकरे, नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, सीताराम येचुरी, डी राजा एक साथ दिखाई देंगे. जेडीयू की ओर से नीतीश कुमार और आरजेडी के तेजस्वी यादव भी विपक्षी महाजुटान में बतौर मेजबान मौजूद होंगे.

एजेंडा क्या है?
जैसा कि शुरू से एक एजेंडा है कि केंद्र की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के खिलाफ विपक्षी दलों को कैसे एकजुट किया जा सकता है? इस महाजुटान में इसी बात पर चर्चा होनी है. बैठक से पहले आयोजक जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) ने ये साफ कह दिया है कि अभी बस इस बात पर चर्चा होगी कि सभी दल कैसे साथ आ सकते हैं. नीतीश कुमार के संबोधन से बैठक की शुरुआत होगी. नीतीश विपक्षी एकजुटता की भूमिका प्रस्तुत करेंगे और इसके बाद विपक्षी एकजुटता की राह कैसे तैयार की जा सकती है, इस पर राहुल गांधी अपनी बात रखेंगे.

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केजरीवाल समेत कई नेताओं का अलग एजेंडा
हालांकि प्राथिमक मुद्दा तो बीजेपी और एनडीए के खिलाफ एकजुटता ही है, लेकिन सिर्फ ऐसा ही हो यह मुश्किल लग रहा है. दिल्ली सीएम अरविंद केजरीवाल अभी 'अध्यादेश दुख' से पीड़ित हैं. वह पहले ही अल्टीमेटम दे चुके हैं कि विपक्षी एकता से पहले सभी दल अध्यादेश के खिलाफ एकजुट हों. इसलिए इस दौरान वह अध्यादेश वाले एजेंडे पर चर्चा चाहेंगे. इधर, कांग्रेस इसे यूपीए के विस्तार की कवायद के तौर पर देख रही है तो यह बैठक कांग्रेस के नजरिए से बैठक विस्तार नीति की तरह ट्रीट की जा सकती है. समाजवादी पार्टी (सपा) का एजेंडा यूपी में गठबंधन का नेतृत्व है.टीएमसी का एजेंडा स्पष्ट है, भले ही पार्टी इस बैठक में लेफ्ट के साथ शामिल हो रही है लेकिन फिलहाल बंगाल में ये साथ संभव नहीं है. नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी जैसे दलों का एजेंडा जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 के साथ ही पुरानी स्थिति बहाल कराना है. एनसीपी का एजेंडा केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग है तो वहीं शिवसेना यूबीटी का एजेंडा फिलहाल अपना वजूद बचाए रखना. 

पार्टी  एजेंडा
आम आदमी पार्टी अध्यादेश पर हो बात
कांग्रेस यूपीए का विस्तार
समाजवादी पार्टी यूपी में गठबंधन नेतृत्व
टीएमसी बंगाल में लेफ्ट का साथ नहीं
नेशनल कॉन्फ्रेंस अनुच्छेद 370 की बहाली
पीडीपी अनुच्छेद 370 की बहाली
एनसीपी केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग
शिवसेना (UBT) अपना वजूद बचाए रखना

जो दल नहीं आए उनसे क्या नुकसान
विपक्षी एकता की कवायद के लिए हो रही इस बैठक में आने से कई पार्टी प्रमुखों और नेताओं ने इनकार भी कर दिया है. इनमें से तेलंगाना सीएम केसीआर, ओडिशा सीएम नवीन पटनायक, आंध्र प्रदेश के सीएम जगन मोहन रेड्डी और जेडीएस नेता कुमारस्वामी शामिल हैं. इन्होंने स्पष्ट रूप से बैठक में शामिल होने से इनकार कर दिया है और इससे दूरी बनाई है. इन दलों के न आने से विपक्ष की एकता को अपने अलग ही नुकसान उठाने पड़ सकते हैं. 

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1. बैठक में एच. डी. कुमारस्वामी और उनकी पार्टी जेडीएस नहीं शामिल हो रही है. कर्नाटक में जेडीएस की अच्छी पकड़ है, लेकिन इस बार हुए विधानसभा चुनावों में उसकी सीटें कम हो गईं. उसे 19 सीटों मिली यानी उसे 13.3 फीसदी वोट मिले. जबकि 2018 में उसे 37 सीटें मिली थीं. इससे पहले 2013 में 40 सीटें, 2008 में 28 सीटें और 2004 में 58 सीटें मिली थीं यानी 1999 में गठित हुई पार्टी लगातार अपना जनाधार खो रही है. वहीं लोकसभा में मौजूदा समय में जेडीएस का केवल एक सांसद ही है. कांग्रेस और बाकी दल मजबूत हो रहे हैं यानी जेडीएस के किंगमेकर राज्य में उसके रिश्ते कांग्रेस से सही नहीं हैं. एचडी देवगौड़ा वोक्कालिगा समुदाय से आते हैं. यह समुदाय उनका कोर वोटबैंक भी है. प्रदेश में इस समुदाय के लोगों की आबादी करीब 12 फीसदी है. इन सबके बीच चर्चा है कि जेडीएस बीजेपी के संपर्क में है. उसने लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी से चार सीटों की मांग की है.

2. उधर जगन मोहन रेड्डी की YSR कांग्रेस ने भी बैठक में आने से इनकार किया है. आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी की सरकार है. 2019 में हुए विधानसभा चुनाव में उनके नेतृत्व में पार्टी ने 175 सीटों में से 151 सीटें जीत हासिल थी. उनकी पार्टी 84 नई सीटों पर कब्जा किया था यानी मौजूदा समय में प्रदेश में उनकी मजबूत पकड़ है. वहीं क्षेत्रीय पार्टियों में तुलना की जाए तो लोकसभा में उनके 22 सांसद हैं यानी विपक्षी दलों के साथ न आने पर विपक्षी को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है. जगन मोहन रेड्डी की राजनीति ताकत के कारण ही बीजेपी उन पर नजर गड़ाए हुए हैं. वैसे जगन भी बीजेपी ने नजदीकी बनाए रखने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं दे रहे हैं. ऐसे में भले ही वह एनडीए में शामिल न हों, लेकिन कई मुद्दों पर मोदी सरकार का समर्थन करते रहे हैं. वह ऐसे विपक्षी मुद्दों पर भी किनारा करते रहे हैं, जिनके साथ कांग्रेस खड़ी होती रही है. विपक्ष की एकता को यह बड़ा झटका होगा. 

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3. अब बात करें, नवीन पटनायक के बीजू जनता दल की तो उन्होंने भी पटना आने से सिरे से मना कर दिया है. ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजद प्रमुख नवीन पटनायक की पूरी राजनीति कांग्रेस के खिलाफ रही है. अगर पटनायक की राजनीतिक ताकत की बात की जाए तो लोकसभा में उनके 12 सांसद हैं. क्षेत्रीय दलों में अगर तुलना की जाए तो यह संख्या काफी ज्यादा है. वहीं मौजूदा समय में राज्य की 146 विधानसभा सीटों में से नवीन पटनायक की पार्टी 112 सीट पर कब्जा कर रखा है. यानी केंद्र और राज्य दोनों की जगहों पर पटनायक मजबूत स्थिति में हैं. ऐसे में बीजद का विपक्ष के साथ न होना लोकसभा चुनाव में नुकसान पहुंचा सकता है.

4. के चंद्र शेखर राव यानी बीआरएस का न आना भी एकजुट विपक्ष दलों के लिए बड़ा खतरा ही है. तेलंगाना की 119 विधानसभा सीटों में 88 पर बीआरएस का कब्जा है. इससे पहले उसकी राज्य में 63 सीटें थी. यानी केसीआर की राजनीतिक ताकत बढ़ी है. वहीं लोकसभा में भी टीआरएस के 9 सांसद हैं यानी टीआरएस का सपोर्ट किसी भी दल के मायने रखता है.

जो आए हैं उनमें विपक्षी एकता को लेकर कैसे बनेगी सहमति? 
जेडीयू की ओर से बैठक के एजेंडे को लेकर जो जानकारी दी गई है, उसके मुताबिक केवल इस बात पर चर्चा होगी कि विपक्षी दलों को कैसे साथ लाया जा सकता है? एकजुटता के लिए बीच का रास्ता कैसे निकले? सीट बंटवारे से लेकर नेतृत्व के मसले तक, कई सारे पेंच हैं और बैठक में शामिल होने जा रहा हर दल इस बात को समझ भी रहा है. नेशनल कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला ये कह भी चुके हैं कि पहले एकजुटता तो बने, बाकी मुद्दों पर हम बाद में बात कर लेंगे. यही वजह है कि इन मुद्दों को फिलहाल बाद में विचार के लिए छोड़ दिया गया है. नीतीश कुमार ये कह चुके हैं कि उनकी मंशा एक बनाम एक की रणनीति पर चलने की है जिससे वोटों का बंटवारा रोका जा सके. बड़ा सवाल ये है कि ये कैसे संभव होगा. इस बैठक के लिए कहा जा रहा है कि, विचारों का मिलना महत्वपूर्ण है. फिलहाल बैठक को लेकर जो तस्वीर सामने है, उसमें चुनाव रणनीति, नेतृत्व और सीट बंटवारे पर चर्चा होती नहीं नजर आ रही.

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टकराव के मुद्दे क्या हैं उनके बीच
इस विपक्षी एकता में जो दल आ भी गए हैं, उनके बीच भी टकराव के मुद्दे कोई कम नहीं हैं. कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच का टकराव किसी से छिपा नहीं है. दिल्ली और पंजाब में दोनों दल एक-दूसरे को घेरते ही रहते है और अभी हाल ही में केजरीवाल ने राजस्थान में कांग्रेस पर अशोक गहलोत और सचिन पायलट के मुद्दे पर निशाना साधा था. कांग्रेस ने केजरीवाल के अध्यादेश वाले मसले पर भी उनसे कुछ खुलकर नहीं कहा है. 

दूसरा विपक्षी एकता में टकराव का सबसे बड़ा मुद्दा है, सभी नेता खुद को महत्वपूर्ण मान रहे हैं और अपनी तवज्जो कम होते नहीं देखना नहीं चाह रहे हैं. इसकी गवाही पटना में बैठक से पहले लगे स्वागत पोस्टर भी दे रहे हैं. इन्हें अलग-अलग दलों ने बैठक से पहले लगाया है. 

पटना के इनकम टैक्स चौरहे पर आम आदमी पार्टी ने जो पोस्टर लगाया गया है, उसमें अरविंद केजरीवाल को देश का लाल लिखा गया है. सपा की तरफ से विपक्षी बैठक का अलग से पोस्टर लगाया गया है. इस पोस्टर में नीतीश और तेजस्वी के अलावा विपक्षी पार्टी के किसी और नेता का फोटो नहीं है. इस स्वागत पोस्टर में लिखा है कि अखिलेश यादव विपक्षी दलों से अपील कर रहे हैं कि- आओ मिल संकल्प करें, देश बीजेपी मुक्त करें. वह बेरोजगारी, दंगाई और महंगाई जैसे मुद्दों के खिलाफ सबको एकजुट करने की अपील कर रहे हैं. यानि प्रमुखता और महत्व टकराव का बड़ा मुद्दा हो सकता है. 

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सीटों के फॉर्मूले पर क्या पेच है?
विपक्ष की इस होने वाली एकता की राह में सबसे बड़ा रोड़ा सीटों का फॉर्मूला और उन पर फंसा पेंच. आखिर कौन किसके लिए अपनी सीट छोड़ेगा? कौन कम सीटें लेने पर राजी होगा और कौन इस पर कि सामने वाले को ज्यादा सीटें दी जाएं, कोई समस्या नहीं. बता दें कि विपक्ष 450 सीटों पर एक उम्मीदवार लड़ाने पर सहमति बनाने में जुटा है. कई राज्यों में इसी बात को लेकर पेंच फंस सकता है और विपक्षी एकता को झटका लग सकता है. यहां यह दीगर है कि विपक्षी एकता का जो झंडा बुलंदल किया जा रहा है, इसका सेंटर कांग्रेस ही है. ऐसे में सीटों का जो पेंच फंस रहा है, उसकी वजह भी कांग्रेस ही है. कई राज्यों में कांग्रेस छोटी पार्टियों को सीट देने को राजी नहीं है. 

दूसरा, सीएम ममता बनर्जी ने कुछ दिनों पहले एक फॉर्मूला दिया था. उन्होंने कहा कि हम उन राज्यों में कांग्रेस का समर्थन करेंगे जहां पर उसकी जड़ें मजबूत हैं. इसके बदले में कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों को उनके गढ़ में समर्थन देना चाहिए. ममता ने पारस्परिक गठबंधन की शर्त भी रखी थी. उन्होंने कहा कि यह नहीं हो सकता कि तृणमूल कांग्रेस कर्नाटक में आपको समर्थन दे और आप बंगाल में तृणमूल के ही खिलाफ लड़ें. अगर आप कुछ अच्छा हासिल करना चाहते हैं तो आपको कुछ क्षेत्रों में त्याग करना पड़ेगा. ममता बनर्जी के इस फॉर्मूले से कांग्रेस को 227 से ज्यादा सीटें नहीं मिलेंगी, और दूसरी बात ये कि इस फॉर्मूले की हिसाब से पश्चिम बंगाल, यूपी और बिहार कांग्रेस हाशिए पर हो जाएगा. क्या विपक्षी एकता के एवज में कांग्रेस ये स्वीकार करेगी? इसका जवाब न के अधिक करीब है.

जिन सात राज्यों में कांग्रेस का सीटों को लेकर पेंच फंस रहा है, उनमें दिल्ली- 7 सीट, पंजाब- 13 सीट, केरल- 20 सीट, महाराष्ट्र - 48 सीट, पश्चिम बंगाल- 42 सीट, तेलंगाना- 17 सीट, और उत्तर प्रदेश की 80 सीटें हैं यूपी की 80 सीटों पर भी सपा और कांग्रेस में सीट बंटवारे को लेकर अड़चन आ सकती है. 


 

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