
इंदिरा गांधी... ये भारत के इतिहास का वो नाम है, जिसे सत्ता से हटाने का जिम्मेदार एक बहुत बड़ा तूफान था. आपने 'परफेक्ट स्टॉर्म' का नाम सुना होगा. कहा जाता है कि जब सारी कंडीशंस परफेक्ट हों तो एक गजब का तूफान आता है. अब ये तूफान भारत में कब और कैसे आया, आज हम इस बारे में बात करेंगे. क्योंकि इसी तूफान का सबसे ज्वलंत रूप था आपातकाल. वही आपातकाल जिसे भारत के इतिहास का काला अध्याय भी कहते हैं. ज़हन में आपातकाल का नाम आते ही चीख चिल्लाहट के साथ पीछे से ज़ोर ज़ोर से एक नारा गूंजता और फिर खामोश होता दिखता है- 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है', 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.'
देश में एक साथ कई चीज़ें हो रही थीं. एक को संभालो तो दूसरी हाथ से फिसल जाए, दूसरी को संभालो तो तीसरी फिसल जाए और तीसरी को संभालो तो चौथी... एक तरफ गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन चल रहा था, दूसरी तरफ बिहार में छात्र प्रदर्शन कर रहे थे, तभी जय प्रकाश नारायण बिहार प्रदर्शन से जुड़ गए और देशभर में इस क्रांति को आग की तरह फैला दिया. इतना सब हो रहा था, कि सभी रेल कर्मियों की हड़ताल होने लगी, इसी वक्त इलाहाबाद हाई कोर्ट ने राजनायारण मामले में अपना फैसला सुना दिया. सरकार के लिए इधर उधर सब तरफ से संकट के बादल घिर आए. इस तूफान के केंद्र में थीं इंदिरा. हर तरफ से कुर्सी खिंचती नज़र आ रही थी. एक हाथ से बचाएं, तो दूसरा खींचने को आतुर था.
25 तारीख की वो काली रात
यूं तो तमाम संकटों की शुरुआत पहले ही हो गई थी, लेकिन उस सबसे थ्रिलर सीन की बात करते हैं, जो जून महीने की 25 तारीख की काली रात को शुरू हुआ. तब देश को आपातकाल और सेंसरशिप के हवाले कर दिया गया. नागरिकों से उनके अधिकार छीन लिए गए. राजनीतिक विरोधियों को उनके घर या दूसरे ठिकानों से खदेड़कर जेलों में ठूंसा गया. अभिव्यक्ति व्यक्त करना अब अपराध हो गया. हर तरफ सेंसरशिप का ताला जड़ दिया गया. अब पत्र पत्रिकाओं में केवल वही छपता जो उस समय की सरकार चाहती थी. आकाशवाणी की वाणी में भी खौफ था. प्रकाशन प्रसारण से पहले कंटेंट सरकारी अधिकारी के पास भेजा जाता और उसे सेंसर करवाना पड़ता.
इस कहानी का हीरो वो था, जिसके आगे कोई भी हीरो धूल फांकता दिखे. यानी लोकनायक जय प्रकाश नारायण. 72 साल के बुजुर्ग समाजवादी, सर्वोदयी नेता नारायण के पीछे देशभर के क्रोधित छात्र और युवा हिंसक और अनुशासित तरीके से लामबंद होने लगे थे. इनके गुस्से से लाल होने के पीछे का कारण था महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी का उनके चरम पर पहुंचना. गुजरात और बिहार की सीमा को लांघकर कब ये क्रांति देश की राजधानी दिल्ली तक पहुंच गई पता ही नहीं चला, मानो जंगल की कोई आग हो जो फैलती जा रही थी. क्रांति ने राज्यों की कांग्रेस सरकारों के साथ साथ केंद्र में मौजूद सर्वशक्तिमान इंदिरा गांधी की सरकार को भी अंदर तक झकझोर कर रख दिया.
सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला
अभी सरकार इस सदमे को दूर से देख इससे उबरने के तरीके ही तलाश रही थी, तभी इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा के एक फैसला पर 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगा दी. 12 जून, 1975 के इस फैसले में इंदिरा गांधी के संसदीय चुनाव को अवैध घोषित कर दिया गया था. उन्होंने रायबरेली से इंदिरा के लोकसभा चुनाव को चुनौती देने वाली समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर ये फैसला सुनाया था. इंदिरा की लोकसभा सदस्यता तो रद्द की ही गई, साथ ही छह साल तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया. अब 24 जून को सुप्रीम कोर्ट ने इसी फैसला पर मुहर लगा दी थी. हालांकि इंदिरा को प्रधानमंत्री बने रहने की छूट दे दी. वो लोकसभा में जा तो सकती थीं. लेकिन वोट नहीं दे सकती थीं.
हाई कोर्ट में दायर अपनी याचिका में राजनारायण ने इंदिरा गांधी पर भ्रष्टाचार और सरकारी मशीनरी और संसाधनों के दुरुपयोग का आरोप लगाया. इस केस में शांतिभूषण, राजनारायण के वकील थे. उन्होंने कहा था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव प्रचार में सरकारी कर्मचारियों का इस्तेमाल किया है. शांतिभूषण ने इसके लिए प्रधानमंत्री के सचिव यशपाल कपूर का उदाहरण दिया था, जिन्होंने राष्ट्रपति से अपना इस्तीफा मंज़ूर होने से पहले ही इंदिरा गांधी के लिए काम करना शुरू कर दिया था. कोर्ट ने इसी आधार पर इंदिरा की सांसदी को खारिज कर दिया था.
कैसे शुरू हुआ था ये संकट?
थोड़ा पीछे चलते हैं, तो पता चलता है कि मार्च 1971 में हुए आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी को जबरदस्त जीत मिली थी. इसी चुनाव में इंदिरा गांधी लोकसभा की अपनी पुरानी सीट यानी उत्तर प्रदेश के रायबरेली से एक लाख से भी ज़्यादा वोटों से चुनी गईं. इसके बाद जनता को उनकी नई छवि से काफी उम्मीद हो चली थी सो उसने इंदिरा गांधी को एक बार फिर प्रचंड बहुमत से देश का नेतृत्व सौंप दिया. लेकिन मामला यहीं से शुरू हो गया. उनके प्रतिद्वंदी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी राजनारायण ने उनकी इस जीत को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दे दी. इतिहास के पन्नों पर यह मुकदमा ‘इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण’ के नाम से दर्ज हो गया. यही कहानी हमने आपको ऊपर बताई है.
यहां इंदिरा को बड़ा झटका लगा. फिर दिन आया 25 जून का. विपक्ष के सबसे बड़े नेता जय प्रकाश नारायण यानी 'जेपी' ने अनिश्चितकालीन देशव्यापी आंदोलन का आह्वान किया. उन्होंने दिल्ली के रामलीला मैदान में कवि रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर कविता की पंक्तियां कहीं- 'सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.' इसने युवाओं में जोश भर दिया. उन्होंने इंदिरा गांधी को स्वार्थी और महात्मा गांधी के आदर्शों से भटका हुआ बताते हुए उनसे इस्तीफे की मांग रख दी.
सेना-पुलिस सरकार से असहयोग करे- जेपी
जेपी ने कहा कि अब समय आ गया है कि देश की सेना और पुलिस अपनी ड्यूटी निभाते हुए सरकार से असहयोग करे. उन्होंने कोर्ट के इस फैसले का हवाला देते हुए जवानों से आह्वान किया कि वे सरकार के उन आदेशों की अवहेलना करें जो उनकी आत्मा को स्वीकार न हों. उस दौर के आलोचकों का मानना है कि इंदिरा को उस क्रांति जैसे माहौल में किसी पर भरोसा नहीं था और वो ख़ुद किसी भी क़ीमत पर प्रधानमंत्री पद की कुर्सी छोड़ने के लिए तैयार नहीं थीं. ऐसे में उन्होंने जेपी का बहाना लेते हुए देश में आपातकाल का फैसला ले लिया.
कई आलोचकों का मानना है कि इंदिरा के ख़िलाफ़ हाई कोर्ट में पहुंचने वाला मामला ही इस आपातकाल की जड़ था. वहीं कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि इंदिरा समझ चुकी थीं कि जेपी उनके लिए मुसीबत खड़ी कर सकते हैं. इससे पहले कि उनसे कुर्सी छिन जाए उन्होंने इस फैसले को रेडियो पर सुनाकर देश की आवाज़ों को हाहाकार का रूप दे दिया. जेपी ने अपने भाषण में कहा, 'मेरे मित्र बता रहे हैं कि मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है क्योंकि हमने सेना और पुलिस को सरकार के गलत आदेश नहीं मानने का आह्वान किया है. मगर मुझे इसका डर नहीं और मैं आज इस रैली में भी अपने उस आह्वान को फिर दोहराता हूं. ताकि कुछ दूर संसद में बैठे लोग भी सुन सकें. आज फिर मैं पुलिस कर्मियों और जवानों का आह्वान करता हूं कि इस सरकार का आदेश न मानें क्योंकि इसने शासन करने की अपनी वैधता को खो दिया है.'
रेडियो पर इंदिरा की आवाज़
इससे सरकार बुरी तरह थर्रा गई. अगला जो कदम उसने उठाया, उसने भारत वासियों के होश उड़ा दिए. मीडिया के पैर कांप उठे. देशभर में हाहाकार मच गया. जब 26 जून साल 1975, गुरुवार की सुबह लोगों की नींद खुली तो रेडियो पर आने वाली आवाज़ तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की थी. इस आवाज़ में एक ऐसा संदेश गूंजा जिसके बाद सुनने वाले नेताओं के चेहरों पर हवाइयां उड़ी हुईं थीं. संदेश में इंदिरा ने कहा, 'भाइयों, बहनों... राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. आपातकाल जरूरी हो गया था. एक ‘जना’ सेना को विद्रोह के लिए भड़का रहा है. इसलिए देश की एकता और अखंडता के लिए यह फैसला ज़रूरी हो गया था. लेकिन इससे सामान्य लोगों को डरने की जरूरत नहीं है.'
साल 1975 में आपातकाल का दौर देखने वाले बताते हैं कि रेडियो पर जैसे ही यह संदेश ख़त्म हुआ वैसे ही हाहाकार मचना शुरू हो गया. इस ऐलान के बाद देश में सरकार की आलोचना करने वालों को जेलों में ठूंसा जाने लगा. लिखने, बोलने यहां तक कि सरकार के खिलाफ होने वाले विचारों तक पर पाबंदी लगा दी गई.
आपातकाल के दिनों में इंडियन एक्सप्रेस अखबार में एक दिन संपादकीय की जगह खाली छोड़ दी गई थी. लिखने वाले ने कुछ नहीं लिख कर पढ़ने वाले को पढ़ा दिया था कि अब लिखने पर पहरा है. कुछ समझ नहीं आ रहा था. ये सब महज़ एक चुनाव की वजह से या फिर जेपी के सरकार के ख़िलाफ़ खड़े होने की वजह से हो रहा है?
आखिर कौन था वो 'जना'?
दरअसल इंदिरा के संबोधन में 'जना' कोई और नहीं बल्कि जय प्रकाश नारायण थे. लोकनायक कहे जाने वाले जय प्रकाश नारायण पूरे विपक्ष की अगुवाई कर रहे थे. वे मांग कर रहे थे कि बिहार की कांग्रेस सरकार इस्तीफा दे. इसके अलावा वे केंद्र सरकार पर भी हमलावर थे. उनकी रैली ने मानो कब्र में ठोकी गई आखिरी कील का काम किया और इंदिरा ने आपातकाल लगा दिया.
इंदिरा गांधी ने इस मामले में अपने छोटे बेटे संजय गांधी, तत्कालीन कानून मंत्री हरिराम गोखले और पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे जैसे खास सलाहकारों से मंत्रणा की. उन्होंने 'आंतरिक उपद्रव' की आशंका जताते हुए संविधान की धारा 352 का इस्तेमाल कर आधी रात को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को एक फरमान जारी कर कहा कि देश में 'आंतरिक आपातकाल' लागू कर दिया जाए.
इसके बाद जो हुआ वही इतिहास का काला दिन और काला अध्याय बन गया. ये भारत के इतिहास पर लगा वो काला दाग था, जो संविधान के आंसुओं का कारण बना. वो दाग जिसे कभी हटाया नहीं जा सकता. देश में 1977 को आम चुनाव हुए, जिसमें इंदिरा की कांग्रेस को बुरी हार का सामना करना पड़ा. जनता दल ने 542 में से 296 सीट हासिल कीं. जबकि इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस को 154 सीटें मिलीं. पार्टी को 198 सीटों का नुकसान हुआ.