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'एक देश-एक चुनाव' के सामने अब कौन से पड़ाव? समझें- संसद के विशेष बहुमत, राज्यों और JPC का क्या रोल

129वां संविधान संशोधन विधेयक 'एक राष्ट्र एक चुनाव' लागू करने के उद्देश्य से लाया गया है. यह बिल न सिर्फ संसद में, बल्कि सुप्रीम कोर्ट में भी संवैधानिक और कानूनी परीक्षा से गुजरेगा. इस बिल की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि यह संवैधानिक ढांचे, संघीय ढांचे और लोकतंत्र के सिद्धांतों पर कितना खरा उतरता है.

129वां संविधान संशोधन बिल 'वन नेशन, वन इलेक्शन' लागू करने का आधार रखता है. (प्रतीकात्मक तस्वीर) 129वां संविधान संशोधन बिल 'वन नेशन, वन इलेक्शन' लागू करने का आधार रखता है. (प्रतीकात्मक तस्वीर)
नलिनी शर्मा
  • नई दिल्ली,
  • 17 दिसंबर 2024,
  • अपडेटेड 7:17 AM IST

संविधान (129वां संशोधन) विधेयक, 2024 'वन नेशन, वन इलेक्शन' (ONOE) लागू करने के उद्देश्य से लाया गया है. इसका मकसद लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ कराना है. यह बिल पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनी उच्च स्तरीय समिति की सिफारिशों पर आधारित है. इसका लक्ष्य चुनावी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना, बार-बार चुनावों के कारण होने वाले वित्तीय और प्रशासनिक बोझ को कम करना और बेहतर शासन सुनिश्चित करना है.  

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इस बिल के तहत संविधान के कई प्रावधानों में बदलाव का प्रस्ताव है, जैसे अनुच्छेद 83 (संसद का कार्यकाल), अनुच्छेद 172 (राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल), और संविधान में एक नया अनुच्छेद 82A जोड़ने का प्रस्ताव भी है, जो पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की अनुमति देगा.  

ONOE बिल पर चर्चा क्यों हो रही?
  
यह बिल भारत के संघीय ढांचे, संविधान के मूल ढांचे, और लोकतंत्र के सिद्धांतों को लेकर बड़े पैमाने पर कानूनी और संवैधानिक बहस छेड़ चुका है. आलोचकों का कहना है कि राज्य विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा के साथ कराने से राज्यों की स्वायत्तता पर असर पड़ेगा और सत्ता के केंद्रीकरण की स्थिति बनेगी. कानूनी विशेषज्ञ यह भी देख रहे हैं कि क्या यह प्रस्ताव संविधान की बुनियादी विशेषताओं, जैसे संघीय ढांचा और लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व, को प्रभावित करता है.  

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ONOE बिल के मुख्य बिंदु क्या हैं?
  
129वां संविधान संशोधन बिल संविधान में एक नए अनुच्छेद 82A को जोड़ने का प्रस्ताव करता है, जो लोकसभा और राज्यों के चुनाव एक साथ कराने की नींव रखता है. अभी तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं. नए प्रावधान के तहत राष्ट्रपति एक निर्धारित तिथि घोषित करेंगे, जो लोकसभा की पहली बैठक के साथ मेल खाएगी. इस तिथि के बाद लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल 5 साल का होगा.  

यदि किसी राज्य विधानसभा या लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होने से पहले भंग कर दिया जाता है, तो नए चुनाव होंगे. लेकिन नई सरकार का कार्यकाल मूल 5 साल के शेष समय तक ही सीमित रहेगा. यह प्रावधान सुनिश्चित करता है कि चुनावों की समय-सारिणी पर कोई असर न पड़े और चुनाव प्रक्रिया व्यवस्थित बनी रहे. इस बदलाव को लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 83, अनुच्छेद 172, और अनुच्छेद 327 में संशोधन का प्रस्ताव दिया गया है.  

बिल के फायदे क्या बताए जा रहे हैं? 
  
सरकार का तर्क है कि यह बिल भारत की वर्तमान चुनावी प्रणाली की समस्याओं को हल करेगा. बार-बार चुनाव कराने से प्रशासन और राजनीतिक दल लगातार चुनावी मोड में रहते हैं, जिससे नीति-निर्माण और दीर्घकालिक योजनाओं पर ध्यान देना मुश्किल हो जाता है. इसके अलावा, बार-बार होने वाले चुनाव प्रशासनिक खर्च बढ़ाते हैं. एक साथ चुनाव से निर्वाचन आयोग और अन्य प्रशासनिक तंत्र के संसाधनों का बेहतर उपयोग हो सकेगा. मतदाताओं के लिए भी यह प्रक्रिया सरल होगी, क्योंकि उन्हें बार-बार मतदान केंद्र जाने की जरूरत नहीं होगी.  

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बिल पास करने की संवैधानिक प्रक्रिया
  
संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत यह बिल पास किया जाएगा. इसके लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी. वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा कहते हैं, 'बिल को संसद के दोनों सदनों में पेश किया जाएगा और वहां उपस्थित और मतदान करने वाले दो-तिहाई सदस्यों की सहमति से पास किया जाएगा.'  

राज्यों की मंजूरी का सवाल
  
अनुच्छेद 368(2) के दूसरे प्रावधान के अनुसार, कुछ संवैधानिक संशोधनों के लिए राज्य विधानसभाओं की मंजूरी भी जरूरी होती है. यह तब होता है जब-  

- संविधान के संघीय ढांचे में बदलाव हो.  
- संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व में बदलाव हो.  
- सातवीं अनुसूची (संघ, राज्य, और समवर्ती सूची) से जुड़े प्रावधान बदले जाएं.  

वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी का कहना है, 'जब राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल और चुनाव प्रक्रिया में बदलाव हो रहा है, तो राज्यों की सहमति के बिना यह नहीं हो सकता. हालांकि, वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा का मानना है कि राज्यों की मंजूरी जरूरी नहीं है, क्योंकि इस बिल में सातवीं अनुसूची में किसी प्रविष्टि में बदलाव का प्रस्ताव नहीं है.'  

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JPC की भूमिका क्या होगी?
  
सरकार ने इस बिल को संयुक्त संसदीय समिति (JPC) के पास भेजा है. JPC का काम है इस पर व्यापक विचार-विमर्श करना, विभिन्न पक्षकारों और विशेषज्ञों से चर्चा करना और अपनी सिफारिशें सरकार को देना. वरिष्ठ अधिवक्ता संजय घोष कहते हैं, 'JPC की जिम्मेदारी है कि वह व्यापक परामर्श करे और भारत के लोगों की राय को समझे.'  

आलोचना और संघीय ढांचे की चिंताएं
  
आलोचकों का कहना है कि यह बिल संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है. राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को लोकसभा के साथ मिलाना राज्यों की स्वायत्तता को खत्म करता है. वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा, 'आप सीधे तौर पर राज्य और स्थानीय निकाय चुनावों को प्रभावित कर रहे हैं. यह राज्यों की मंजूरी के बिना नहीं हो सकता.'  

वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे का कहना है, 'जबकि संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत जरूरी है, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम जैसे अन्य कानूनों में बदलाव साधारण बहुमत से किया जा सकता है.' यह बिल न सिर्फ संसद में, बल्कि सुप्रीम कोर्ट में भी संवैधानिक और कानूनी परीक्षा से गुजरेगा. इस बिल की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि यह संवैधानिक ढांचे, संघीय ढांचे और लोकतंत्र के सिद्धांतों पर कितना खरा उतरता है.

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