Advertisement

पाकिस्तान की अदालत ने खत्म किया राजद्रोह कानून... जानें-भारत में कहां तक पहुंची बात

पाकिस्तान और भारत, दोनों ही जगह पीनल कोड में धारा-124 A है जो राजद्रोह को अपराध बनाती है. पाकिस्तान की लाहौर हाईकोर्ट ने इस धारा को रद्द कर दिया है. भारत में भी धारा 124 A को रद्द करने की मांग उठती रहती है. हालांकि, बीते साल सरकार ने साफ कर दिया था कि वो इस कानून में आज की जरूरत के हिसाब से बदलाव करेगी.

अंग्रेजों ने असंतोष की आवाज दबाने के लिए राजद्रोह का कानून बनाया था. (फोटो क्रेडिट- Vani Gupta/aajtak.in) अंग्रेजों ने असंतोष की आवाज दबाने के लिए राजद्रोह का कानून बनाया था. (फोटो क्रेडिट- Vani Gupta/aajtak.in)
aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 01 अप्रैल 2023,
  • अपडेटेड 7:07 PM IST

अंग्रेजों के जमाने के राजद्रोह कानून को पाकिस्तान की एक अदालत ने रद्द कर दिया है. लाहौर हाईकोर्ट ने ये फैसला सुनाया है. जस्टिस शाहिद करीम ने पाकिस्तान पीनल कोड (PPC) की धारा 124-A के तहत राजद्रोह के अपराध को रद्द कर दिया. 

हारून फारूक नाम के व्यक्ति ने याचिका दायर कर इस धारा को रद्द करने की मांग की थी. उन्होंने याचिका में कहा था कि राजद्रोह का विवादित कानून मूल रूप से थॉमस मैकॉले ने तैयार किया था. पर बाद में 1860 में इंडियन पीनल कोड लागू होने पर इसे हटा दिया गया था. लेकिन 1870 में फिर से आईपीसी में संशोधन कर इस धारा को जोड़ा गया. उन्होंने कहा कि उस समय असंतोष की आवाज को दबाने के लिए कठोर कानून बनाए गए थे.

Advertisement

सुनवाई के दौरान दलीलें सुनने के बाद लाहौर हाईकोर्ट ने इस कानून को संविधान के तहत नागरिकों को मिले मौलिक अधिकारों का हनन बताते हुए रद्द कर दिया. 

याचिका में कहा गया था कि इस कानून का इस्तेमाल असहमति, अभिव्यक्ति की आजादी और आलोचना को दबाने के हथियार के रूप में किया जाता है. इसमें ये भी कहा गया था कि बीते कुछ सालों में कई राजनेताओं, पत्रकारों और एक्टिविस्ट के खिलाफ धारा 124-A के तहत केस दर्ज किया गया है. कुल मिलाकर याचिकाकर्ता ने धारा 124-A के दुरुपयोग की बात कही थी. 

क्या है धारा 124-A?

हालांकि, सिर्फ पाकिस्तान ही नहीं बल्कि भारत में भी राजद्रोह के कानून के दुरुपयोग की बात होती रहती है. पाकिस्तान की तरह ही भारत में भी इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) में धारा 124-A है, जो राजद्रोह को अपराध बनाती है. 

Advertisement

भारत और पाकिस्तान, दोनों ही जगह राजद्रोह का कानून बराबर है. दोनों में सजा भी बराबर है. भारतीय दंड संहिता की धारा 124-A में राजद्रोह या देशद्रोह का उल्लेख है. ये धारा कहती है, 'अगर कोई व्यक्ति बोलकर या लिखकर या इशारों से या फिर चिह्नों के जरिए या किसी और तरीके से घृणा या अवमानना या उत्तेजित करने की कोशिश करता है या असंतोष को भड़काने का प्रयास करता है तो वो राजद्रोह का दोषी माना जाएगा.'

अक्सर 'राजद्रोह' और 'देशद्रोह' को एक ही मान लिया जाता है, लेकिन जब सरकार की मानहानि या अवमानना होती है तो उसे 'राजद्रोह' कहा जाता है और जब देश की मानहानि या अवमानना होती है तो उसे 'देशद्रोह' कहा जाता है. अंग्रेजी में इसे Sedition कहते हैं. दोनों ही मामलों में धारा 124-A का इस्तेमाल होता है. 

ये राजद्रोह आया कहां से?

अंग्रेजी कानून में राजद्रोह करीब 850 साल पुराना है. 1275 में हुई वेस्टमिंस्टर की संविधि से इसका पता लगाया जा सकता है. ये वो समय था जब राजा ही सर्वेसर्वा हुआ करता था. तब राजद्रोह का पता लगाने के लिए न सिर्फ भाषण की सच्चाई बल्कि इरादे पर भी गौर किया जाता था. उस समय राजद्रोह का कानून सत्ता के सम्मान के खिलाफ बोलने वालों को रोकने के लिए बनाया गया था.

Advertisement

1606 में राजा के फैसले में 'राजद्रोह' को 'अपराध' माना गया था. इसमें तर्क दिया था कि 'सरकार की सच्ची आलोचना में सरकार को बदनाम करने और अस्थिर करने की ज्यादा क्षमता होती है. इसलिए इस पर रोक जरूरी है.' 1868 में यूके की एक अदालत ने राजद्रोह को अपराध के तौर पर परिभाषित किया था.

1860 में भारत में जब इंडियन पीनल कोड (आईपीसी) आई, तब उसमें राजद्रोह का कानून नहीं था. मैकॉले के 1837 के पीनल कोड के ड्राफ्ट में धारा 113 का जिक्र था. यही बाद में धारा 124-A बना. भारत में 1870 में संशोधन कर आईपीसी में धारा 124-A को जोड़ा गया था.

2018 में लॉ कमिशन के एक दस्तावेज में बताया गया था कि 1870 में राजद्रोह कानून को आईपीसी में इसलिए जोड़ा गया था, ताकि सरकार के खिलाफ उठ रही असंतोष की आवाजों को दबाया जा सके. हालांकि, लोग सरकार के खिलाफ अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र थे, लेकिन तब तक ही जब तक वो कानून का पालन कर रहे हैं.

इसके अलावा 1911 में सीडिशियस मीटिंग्स एक्ट भी लाया गया था जो ऐसी पब्लिक मीटिंग को करने से रोकता था, जिससे राजद्रोह या असंतोष को भड़काने या अशांति पैदा करने की संभावना हो. इस कानून को 2018 में सरकार ने निरस्त कर दिया था.

Advertisement

आजादी की लड़ाई और राजद्रोह 

अक्सर ऐसा दावा किया जाता रहा है कि ब्रिटिश शासन ने अपने खिलाफ उठ रही आवाजों को दबाने के लिए 124-A का इस्तेमाल किया था.

1892 में जोगेंद्र चंद्र बोस मामले में अदालत ने राजद्रोह और आलोचना का अंतर बताया था. बोस एक समाचार पत्र निकालते थे और उन पर ब्रिटिश सरकार की आलोचना करने के लिए राजद्रोह का आरोप लगाया गया था.

इस मामले में कहा गया था कि आईपीसी की धारा 124-A इंग्लैंड के राजद्रोह के कानून से अलग है. इंग्लैंड में सरकार के खिलाफ कुछ भी भावना व्यक्त करने पर देशद्रोह लगता है, जबकि भारत में सिर्फ उसी मामले में ये धारा लग सकती है, जब किसी इरादे से सरकार के खिलाफ काम किया गया हो. उस समय कोर्ट ने कहा था कि धारा 124-A असंतोष को सजा देती है न कि अस्वीकृति को.

1898 में बाल गंगाधर तिलक के खिलाफ इस कानून का इस्तेमाल किया गया था. इस मामले में तब कोर्ट ने कहा था कि सरकार के खिलाफ विद्रोह और जबरन प्रतिरोध करने वालों पर धारा 124-A का इस्तेमाल होना चाहिए. कोर्ट ने इस मामले को खारिज कर दिया था. उसी साल एक और मामले में एक अदालत ने कहा था कि सरकार की अस्वीकृति का हर मामला 124-A के तहत नहीं आता है.

Advertisement

अदालतों की इस टिप्पणी के बाद 1898 में संशोधन किया गया और 'असंतोष' शब्द को और ज्यादा परिभाषित किया गया. इस संशोधन में असंतोष में 'विश्वासघात' और 'शत्रुता की भावना' को भी शामिल किया गया.

1922 में महात्मा गांधी को देशद्रोह के मामले में दोषी पाया गया था. इस कानून पर महात्मा गांधी ने कहा था कि नागरिकों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए इंडियन पीनल कोड में जोड़ा गया है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने ये बात बताई.

आजादी के बाद राजद्रोह

आजादी के बाद राजद्रोह कानून पर जमकर बहस हुई. सरदार वल्लभ भाई पटेल की कमेटी ने राजद्रोह को खत्म करने की बात कही थी. हालांकि, जब संविधान का प्रारूप तैयार हुआ, तो उसमें ये कानून रहा. 

1950 में रोमेश थापर केस में पहली बार राजद्रोह पर किसी अदालत ने बड़ा फैसला दिया. उस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब तक कोई भाषण या अभिव्यक्ति सुरक्षा के लिए खतरा या सरकार को उखाड़ फेंकने के मकसद से व्यक्त न की गई हो, तब तक अनुच्छेद 19(2) के तहत कोई भी कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध नहीं लगा सकता.

1951 में संसद में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भाषण देते हुए कहा था कि 'जितनी जल्दी हम इससे (धारा 124-A) छुटकारा पा लें, उतना ही बेहतर है.' उन्होंने ये भी कहा था कि 'ये बेहद आपत्तिजनक है और इसकी कोई जगह नहीं होनी चाहिए.' हालांकि, इसके बावजूद ये संविधान में बना रहा. ये बात कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में तब बताई थी, जब सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि नेहरू सरकार ने 124-A में बदलाव करने के लिए कुछ नहीं किया था, लेकिन मौजूदा सरकार ऐसा करने की कोशिश कर रही है.

Advertisement

1962 में केदार नाथ सिंह बनाम बिहार सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते हुआ कहा था कि हर नागरिक को सरकार की आलोचना करने का अधिकार है, बशर्ते वो अपनी बात से सरकार को अस्थिर करने या लोगों को हिंसा करने के लिए न उकसा रहा हो.

1995 में बलवंत सिंह बनाम पंजाब सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला दिया था. बलवंत सिंह पर एंटी इंडिया और खालिस्तान के समर्थन में नारे लगाने के आरोप में देशद्रोह का केस दर्ज किया गया था. कोर्ट ने इस केस को रद्द कर दिया था. कोर्ट ने कहा था कि चूंकि इन नारों से न हिंसा भड़की थी और न ही सार्वजनिक व्यवस्था पर कोई प्रभाव पड़ा था, इसलिए ऐसे नारे लगाना देशद्रोह नहीं है. कोर्ट ने कहा था कि आरोपी का इरादा लोगों को उकसाना या सार्वजनिक व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने का नहीं था.

कानून बदलने के लिए भारत में क्या-क्या हुआ?

2018 में लॉ कमीशन ने राजद्रोह कानून पर कंसल्टेशन पेपर जारी किया था. इसमें कहा गया था कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ये कानून जरूरी है, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ टूल की तरह इसका दुरुपयोग नहीं किया जाना चाहिए. इस रिपोर्ट में ये भी कहा था कि लोकतंत्र के लिए आलोचना और असहमति जरूरी है. हालांकि, इस रिपोर्ट के बाद लॉ कमीशन का कार्यकाल खत्म हो गया.

Advertisement

इससे पहले 1968 में लॉ कमीशन ने अपनी 39वीं रिपोर्ट में कहा था कि राजद्रोह जैसे अपराधों में सजा का प्रावधान होना चाहिए. ऐसे अपराधों में आजीवन कारावास की सजा हो सकती है या फिर कठोर कारावास की सजा दी जा सकती है, जो 3 साल से ज्यादा नहीं होनी चाहिए.

2017 में हेट स्पीच पर आई लॉ कमीशन की 267वीं रिपोर्ट में कहा गया था कि जब तक कोई अभिव्यक्ति राष्ट्र की अखंडता, संप्रभुता या सुरक्षा के लिए खतरा नहीं है, तब तक उसे राजद्रोह नहीं माना जाना चाहिए.

हालांकि, इन सिफारिशों को केंद्र सरकार ने कभी लागू नहीं किया. लेकिन अब सरकार कह रही है कि वो 124-A पर पुनर्विचार करने के लिए तैयार है. धारा 124-A में संशोधन और हटाने के लिए 2011 और 2015 में संसद में प्राइवेट बिल भी पेश हुए थे, जो बाद में संसद से निरस्त हो गए.

क्या भारत में कभी खत्म होगा ये कानून?

पाकिस्तान में लाहौर हाईकोर्ट ने इस कानून को रद्द कर दिया है. इतना ही नहीं, जिस ब्रिटेन से ये कानून हमारे संविधान में आया, वहां ये कानून 2009 में खत्म किया जा चुका है. तो सवाल उठता है कि क्या भारत में भी ये खत्म होगा?

राजद्रोह कानून के गलत इस्तेमाल को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं. जुलाई 2021 में चीफ जस्टिस रमणा ने कहा था कि 75 साल बाद भी इस कानून की जरूरत क्यों है? उस वक्त सीजेआई रमणा ने कहा था कि ये अंग्रेजों का बनाया कानून है, जिसे स्वतंत्रता की लड़ाई को दबाने के लिए लाया गया था. तब अटॉर्नी जरनल केके वेणुगोपाल ने कहा था कि इस कानून को निरस्त करने की बजाय गाइडलाइन बनाई जानी चाहिए, ताकि इसका कानूनी मकसद पूरा हो सके.

पिछले साल जब राजद्रोह कानून पर बहस चली थी तब कानून मंत्री किरेन रिजिजू ने बताया था कि सरकार इस कानून पर फिर से विचार करेगी और इसमें आज की जरूरत के हिसाब से जरूरी बदलाव करेगी.

रिजिजू ने कहा था कि देश की संप्रभुता और अखंडता सबसे ऊपर है और ये सरकार और सभी के लिए सबसे जरूरी है. इसलिए इस कानून पर पुनर्विचार करते समय इसके सभी प्रावधानों का ध्यान रखा जाएगा. इससे साफ होता है कि सरकार कानून को पूरी तरह खत्म करने के इरादे में नहीं है.

 

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement