
जून 1960 में कॉन्गो गणराज्य (Republic of Congo) बेल्जियम के शासन से आजाद हुआ. लेकिन जुलाई के महीने में कॉन्गोलीज सेना में विद्रोह हो गया. यह गोरों और कालों के बीच हिंसक होने लगा. बेल्जियम ने गोरे लोगों को बचाने के लिए फौज भेजी. इसके अलावा दो इलाके विद्रोही फौज के कब्जे में थे. पहला काटंगा (Katanga) और दूसरा साइथ कसाई (South Kasai). बेल्जियम ने इस विद्रोह को दबा दिया था. लेकिन कॉन्गो की सरकार ने संयुक्त राष्ट्र से 14 जुलाई 1960 को मदद मांगी.
संयुक्तर राष्ट्र ने शांति मिशन की सेनाएं भेज दीं. इसमें कई देशों की सेनाएं शामिल थीं. मार्च से लेकर जून 1961 में ब्रिगेडियर केएएस राजा के नेतृत्व में 99वें इन्फैन्ट्री ब्रिगेड के 3000 जवानों के साथ कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया (Captain Gurbachan Singh Salaria) भी कॉन्गो पहुंच गए. संयुक्त राष्ट्र ने कई बार प्रयास किया कि कॉन्गो की सरकार और काटंगा के विद्रोहियों के बीच कई बार बात कराने का प्रयास किया. समझौते का प्रयास किया. लेकिन सब बेकार साबित हुआ. फिर संयुक्त राष्ट्र शांति सेना को बल प्रयोग करने का आदेश दे दिया गया.
विद्रोहियों ने बना रखे थे रोड ब्लॉक्स
काटंगा विद्रोहियों ने पूरे शहर में रोड ब्लॉक्स बना रखे थे. शांति सेना के साथ गए भारतीय फौजी 1 गोरखा राइफल्स के मेजर अजीत सिंह को पकड़ लिया था. बाद में उन्हें मार डाला. इसके बाद यूएन से सख्ती के साथ विद्रोहियों से निपटने के निर्देश दे डाले. 4 दिसंबर 1961 की बात है. एलिसाबेथविले के शहर और उसके नजदीकी एयरपोर्ट के बीच काटंगा विद्रोहियों ने कई सारे रोड ब्लॉक्स खड़े कर दिए थे. इसके बाद संयुक्त राष्ट्र की सेना ने ऑपरेशन उनोकट (Operation Unokat) शुरु किया.
एयरपोर्ट आने-जाने का रास्ता खोलना था
5 दिसंबर 1961 को 1 गोरखा राइफल्स की तीसरी बटालियन को रोड ब्लॉक्स हटाने का काम सौंपा गया. क्योंकि एलिसाबेथविले एयरपोर्ट से आना-जाना नहीं हो पा रहा था. इन रोड ब्लॉक्स के आसपास 150 काटंगा विद्रोहियों ने घात लगा रखी थी. वहां पर दो बख्तरबंद वाहन थे. पहले प्लान था कि चार्ली कंपनी के मेजर गोविंद शर्मा हमला करेंगे. अल्फा कंपनी के एक प्लाटून के साथ कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया थे. वो एयरपोर्ट की सड़क के पास थे. मकसद था विद्रोही हमला करें तो उन्हें खत्म करना और उन्हें भागने भी नहीं देना.
कैप्टन सलारिया बोले- मैं जा रहा हूं उनपर हमला करने
उसके अलावा सारी की सारी अल्फा कंपनी रिजर्व में तैनात थी. दोपहर में रोड ब्लॉक्स को हटाने की जिम्मेदारी दी गई. साथ ही कहा गया कि विद्रोहियों का सफाया करो. कैप्टन सलारिया और उनका साथी जवान मौके पर पहुंच गए. करीब 1400 मीटर दूर एक रोड ब्लॉक के पीछे छिप गए. फिर उन्होंने अपने रॉकेट लॉन्चर से विद्रोहियों के दो बख्तरबंद वाहनों की धज्जियां उड़ा दीं. इस हमले से काटंगा विद्रोही परेशान और हैरान हो गए. उन्हें समझ नहीं आया कि अचानक ये हमला कहां से हुआ. सलारिया ने रेडियो पर कहा कि मैं जा रहा हूं उन पर हमला करना. और जीतेंगे हम ही.
अचानक हमले से डर गए विद्रोही, मैदान छोड़ भागे
कैप्टन सलारिया के प्लाटून में सैनिकों की संख्या विद्रोहियों की तुलना में बहुत कम थी. लेकिन गोरखा कहां मानने वाला. आयो गुरखाली का युद्धघोष करते हुए इन लोगों ने खुकरी से विद्रोहियों पर हमला किया. सलारिया और उनके साथियों ने खुकरी के हमले से ही 40 विद्रोहियों को मार डाला. ये देखकर बाकी विद्रोही भाग निकले. लेकिन इस दौरान विद्रोहियों की फायरिंग से निकली दो गोलियां सलारिया के गर्दन को चीर कर जा चुकी थीं. विजय तो हासिल हो चुकी थी. लेकिन भारत मां का एक लाल शहीद हो चुका था.
पिता से प्रेरित होकर फौज में शामिल हुए थे सलारिया
कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया अविभाजित भारत के पंजाब राज्य (अब पाकिस्तान में है) के शकरगढ़ में 29 नवंबर 1935 में पैदा हुए थे. मुंशी राम और धन देवी की पांच औलादों में से वो दूसरे नंबर पर थे. उनके पिता ब्रिटिश इंडियन आर्मी के हॉडसन हॉर्स रेजिमेंट में डोगरा स्क्वाड्रन में फौजी थे. अपने पिता को देखकर और उनकी कहानियां सुनकर सलारिया ने सेना में शामिल होने का फैसला किया था. विभाजन के समय परिवार भारत के पंजाब राज्य में आ गया. गुरदासपुर जिले के जंगल गांव में रहने लगे. दो बार विफलता के बाद नेशनल डिफेंस एकेडमी में 1956 में एडमिशन मिला. फिर 1957 में इंडियन मिलिट्री एकेडमी चले गए.