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'यहां सवाल PM की प्रतिष्ठा का था?' रुंधे गले से निकली इंदिरा की आवाज, कांग्रेस के मठाधीश और महामहिम का चुनाव

भारत का 70 से ज्यादा सालों का संसदीय इतिहास कई किस्सों और कहानियों को समेटे हुए है. जहां लोकतांत्रिक भारत के बनने की कहानी है. वो भारत जिसकी छाया आज हम रायसीना हिल, संसद भवन में पाते हैं. इंदिरा गांधी का कार्यकाल देश में कई उथल-पुथल लेकर आया था. इन्हीं में से एक है 1969 का राष्ट्रपति चुनाव, जब इंदिरा का पॉलिटिक्ल स्किल और स्टेटक्राफ्ट लोगों को हैरान कर गया.

भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Getty image) भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Getty image)
पन्ना लाल
  • नई दिल्ली,
  • 27 जून 2022,
  • अपडेटेड 11:27 AM IST
  • जब इंदिरा गांधी ने दिखाई अपनी आयरन विल
  • 1969 का राष्ट्रपति चुनाव संसदीय इतिहास का अहम मोड़
  • क्यों PM अपने ही पार्टी के राष्ट्रपति उम्मीदवार को हराने लगा?

देश को पांचवां राष्ट्रपति मिल चुका था. 1969 का वो राष्ट्रपति चुनाव हो चुका था जहां राजनीति की बिसात पर शतरंज के मोहरे ऐसे बिछाए गए थे कि भारत की प्रधानमंत्री ही अपनी पार्टी की प्रेसिडेंशियल कैंडिडेट को हराने में जुटी थीं. सन 47 में आजादी, 50 में संविधान पाने वाले नए-नए भारत के लिए ये चुनाव सांप-सीढ़ी का लुभावना खेल बन गया था. जहां अपने ही लोगों को लंगड़ी लगाई जा रही थी.    

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खैर चुनाव हुआ. भारत में मजदूरों के हक के लिए आवाज उठाने वाले वीवी गिरी देश के पांचवें राष्ट्रपति बने. लेकिन कांग्रेस पार्टी का उबाल था कि शांत हो ही नहीं रहा था. चुनाव नतीजों से खार खाए कांग्रेस के ओल्ड गार्ड यानी सिंडिकेट ने इंदिरा के खिलाफ एक्शन की तैयारी शुरू कर दी. 

दरअसल ये इलेक्शन तो राष्ट्रपति का था, लेकिन दांव-पेच, घात-प्रतिघात गांव वाले प्रधानी चुनाव जैसे थे. बड़े-बड़े नेता को खुसुर-फुसुर करते सुना जा सकता था. खेमेबाजी और गुटबंदी थी. प्रतिद्वंदी गुट की जानकारी जुटाने के लिए, जो हो सकता था तिकड़म भिड़ाए जाते थे. इसी माहौल में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ.

इंदिरा के आंसू और PM पद की प्रतिष्ठा का सवाल

राष्ट्रपति चुनाव के बाद इंदिरा गांधी मजबूत तो हुईं, लेकिन वे इस बात से पूरी तरह वाकिफ थीं कि विरोधी कैंप से पलटवार होगा. पीएम इंदिरा ने भी अपने पक्ष में सांसदों को गोलबंद करना शुरू किया. वे सांसदों के छोटे-छोटे गुट से संवाद कर रही थीं और अपना पक्ष उनके सामने रख रही थीं. लेकिन इंदिरा कभी-कभी भावुक हो जाती थीं. भारत के संसदीय इतिहास को कलमबद्ध करने वाले पत्रकार कुलदीप नैयर अपनी जीवनी Beyond The lines में लिखते हैं, "सांसदों को अपनी बातें समझाते हुए इंदिरा कई बार रो पड़तीं, और कहतीं कि मैंने उन्हें जवाब इसलिए नहीं दिया क्योंकि मैं इनवॉल्व थी बल्कि इसलिए क्योंकि यहां भारत के प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा का सवाल था." इंदिरा कहती थीं कि उन्हें पता है कि अपने जीवन के आखिरी दिनों में नेहरू कितने दुखी रहा करते थे क्योंकि वे कांग्रेस को समाजवाद के रास्ते से भटकने से नहीं रोक पाए थे.  इंदिरा की माने तो वे कांग्रेस को और भटकने देना नहीं चाहती थी. 

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कांग्रेस का ओल्ड गार्ड यानी मठाधीश

यहां इंदिरा गांधी जिनको जवाब देने की बात कर रही थीं वो थे कांग्रेस के ओल्ड गार्ड यानी कि वही सिंडिकेट जिसका जिक्र हमने ऊपर किया है. ठेठ हिंदी में कहें तो कांग्रेस पार्टी के मठाधीश. इनमें थे, के कामराज, एस. निजलिंगप्पा, एस. के. पाटिल, अतुल्य घोष और एन संजीवा रेड्डी. इंदिरा के पास पीएम की कुर्सी थी तो इनके पास थी देश को एक के बाद एक पीएम देने वाली कांग्रेस पार्टी. जो आजादी के बाद लगातार सत्ता में बनी हुई थी और नेहरू की मौत के बाद जिसकी कमान सन 1969 में इन नेताओं के पास थी. 

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राष्ट्रपति वी वी गिरी (फाइल फोटो)

दरअसल महामहिम का ये चुनाव भारत पर भाग्य ने थोप दिया था. आजादी के बाद लोकतंत्र के साथ हिन्दुस्तान का प्रयोग जारी ही था कि 1969 में देश के सामने संवैधानिक भारत के राष्ट्रपति जाकिर हुसैन का 3 मई 1969 को निधन हो गया. देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद खाली हो गया. लेकिन तब तक देश के नए-नए संविधान में इसके बाद की व्यवस्था थी ही नहीं. भारत के उपराष्ट्रपति वी. वी. गिरी देश के कार्यवाहक राष्ट्रपति बने. 

ओडिशा से द्रौपदी मुर्मू और वी वी गिरी का ताल्लुक

वी वी गिरी उसी ओडिशा से आते हैं, जहां से NDA की मौजूदा राष्ट्रपति उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू आती हैं. 1969 में पांचवें राष्ट्रपति का चुनाव हो रहा था, 2022 में 15वें प्रेसिडेंट चुने जा रहे हैं. रायसीना हिल की रेस चल रही है. द्रौपदी मुर्मू अपना नामांकन कर चुकीं है तो सोमवार को UPA की ओर से पूर्व बीजेपी नेता यशवंत सिन्हा अपना पर्चा भरने वाले हैं. 53 साल के इस दौर को देखें तो राष्ट्रपति चुनाव संसदीय लोकतंत्र के लिए सहमति और असहमति की कई कहानियां लेकर आया है. 

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साल 1913, 19 साल का लड़का और इंग्लैंड का सफर 

1969 के इस राष्ट्रपति चुनाव की कहानी हम आपको बताएं इससे पहले उस शख्स की बात जो दिल्ली में हुई इस रस्साकशी के बाद मुल्क का महामहिम बना. साल 1913 में सिलोन यानी कि मौजूदा श्रीलंका से 19 साल का लड़का पानी के जहाज पर सवार होता है. उसकी मंजिल थी इंग्लैंड. यहां से वह आयरलैंड पहुंचा और डबलिन विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई पढ़ने लगा.  

आयरलैंड के क्रांतिकारियों से मुलाकात

तब आयरलैंड में अशांति का दौर था. इस देश के युवा अलग देश के लिए ब्रिटेन से लड़ रहे थे. इन्हीं क्रांतिकारियों से इस युवा की दोस्ती हुई जिसका नाम था वी वी गिरी. दरअसल ये क्रांतिकारी भारत की आजादी की लड़ाई से हमदर्दी रखते थे. तीन सालों की पढ़ाई के दौरान वी वी गिरी की राष्ट्रवाद की भावना और दृढ़ हुई इसके अलावा वे आयरलैंड में मजदूरों के आंदोलन से प्रभावित हुए.

राष्ट्रपति भवन के अंदर की तस्वीर

भारत आकर वी वी गिरी ने ट्रेड यूनियन की राजनीति शुरू कर दी, कांग्रेस में शामिल हुए और आजादी की लड़ाई से जुड़ गए उनके हिस्से भारत में पहली बार रेलवे कर्मचारियों का यूनियन खड़ा करने का श्रेय जाता है. 

महात्मा गांधी के गुस्से का शिकार होते होते बचे वी. वी. गिरी

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गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के तहत प्रांतों को मिली स्वायत्तता के बाद 1937 में ब्रिटिश भारत में चुनाव हुआ.  वी. वी. गिरी मद्रास में मंत्री बन गए. अगले ही साल गिरी एक बड़े विवाद में फंस गए. गिरी लेबर और प्लानिंग के पैरोकार थे. उन्होंने वर्धा में औद्योगीकरण के समर्थन में जोशीला भाषण दिया. लेकिन उनका ये भाषण स्वराज की विचारधारा के पैरोकार रहे गांधी जी को अखर गया. गांधी जी ने सफाई मांग दी.  वी. वी. गिरी के सामने बड़ी मुश्किल थी. गांधी जी के कोप से बचने के लिए उन्होंने साफ-साफ नकार दिया कि उन्होंने ऐसा कोई भाषण दिया ही था. हालांकि अखबारों में उनका भाषण छपा था लेकिन वे गांधी को मनाने में कामयाब रहे. 

देश की आजादी के बाद नेहरू ने उन्हें सिलोन में भारत का पहला हाई कमिश्नर बनाया. 1952 में वे मद्रास से लोकसभा आए. इसके बाद उनकी राजनीतिक यात्रा जारी रही और 1967 में वे भारत के उपराष्ट्रपति बने. 

मैं रबर स्टाम्प नहीं हूं

तो इसी वी. वी, गिरी को इंदिरा राष्ट्रपति बनाना चाहती थीं. आरोप तो लगता है कि वी. वी. गिरी राष्ट्रपति के तौर पर इंदिरा के रबर स्टाम्प थे. लेकिन अपनी सफाई में वे इन आरोपों को सीधे खारिज करते हैं. कुलदीप नैयर लिखते हैं कि जब उन्होंने वी वी गिरी का इन्टरव्यू लिया था तो उन्होंने कहा था कि कि मैं रबर स्टाम्प नहीं हूं. हालांकि उन्होंने इंदिरा के समर्थन के लिए उनकी तारीख की थी, और अपने कार्यकाल में कभी उनकी इंदिरा से मतभिन्नता नहीं रही. 

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मोरार जी देसाई को रोकने के लिए चेकमेट बनीं इंदिरा

एक बार इंदिरा और कांग्रेस की कहानी पर लौटते हैं. 1966 में जब लाल बहादुर शास्त्री के निधन के बाद इंदिरा प्रधानमंत्री बनीं तो वह कांग्रेस के सीनियर नेताओं की सहज पसंद नहीं थीं. यहां तो बूढ़े कांग्रेसियों ने मोरारजी देसाई को शास्त्री का उत्तराधिकारी बनने से रोकने के लिए इंदिरा का इस्तेमाल चेकमेट के रूप में किया था. समाजवादी दिग्गज राम मनोहर लोहिया के शब्दों में इंदिरा गूंगी गुड़िया थीं. और कांग्रेस के पितामहों को इंदिरा का चुपचाप वाला ये अवतार पसंद आ रहा था लेकिन  24 जनवरी 1966 को पीएम बनने के बाद इंदिरा ने जब अपनी राहें पकड़ी तो ने इन बुजुर्गों की धारणा को गलत साबित कर दिया. 

शुरुआती दिनों में बतौर पीएम इंदिरा नर्वस दिखा करती थीं. 1969 में उन्हें बजट पेश करने में दिक्कत हो रही थी. वो अपना बजट भाषण नहीं पढ़ पा रही थीं. विपक्षी और पार्टी में विरोधी गुट लगातार उन्हें निशाना बना रहा था. ये परिस्थितियां इंदिरा गांधी के जीवन में ट्रिगर प्वाइंट साबित हुईं. इंदिरा ने तय किया और जवाब दिया, पूरे ताकत और जोश के साथ. 

नोटबंदी के अलावा एक और ऐलान रात में ही हुआ था

इंदिरा जनता के बीच गईं. गांधी की तरह उन्होंने देश के कोने-कोने की यात्रा की. उन्होंने लगभग 3600 मील दूरी तय की. 1969 में इंदिरा ने भारत की आर्थिक सेहत को प्रभावित करने वाला एक बड़ा फैसला लिया. इस फैसले ने देश और दुनिया को बताया कि इंदिरा की प्रशासनिक काबिलियत क्या थी? 19 जुलाई 1969 को रात 8.30 बजे इंदिरा ने घोषणा की कि देश 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया है. तब इन बैंकों में 50 करोड़ रुपये जमा थे. ये सूचना लोगों के लिए ठीक वैसे ही झटके लेकर आई जैसे झटके लोगों को 8 नवंबर 2016 को लगे थे जब पीएम मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की थी. 

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इंदिरा ने इस फैसले को लागू करने से पहले 16 जुलाई को मोरार जी देसाई को वित्त मंत्री के पद से हटा दिया. ये फैसला कैसे लागू किया गया ये समझना जरूरी है. 20 जुलाई को वीवी गिरी कार्यवाहक राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने वाले थे. उनका मिशन कुछ बड़ा था?

17-18-19 जुलाई को इंदिरा ने क्या किया कि देश की किस्मत बदल गई

वित्त मंत्रालय के बैंकिंग डिवीजन में तत्कालीन डिप्टी सेक्रेटरी डीएन घोष की जीवनी नो रिग्रेट में इसकी चर्चा है. डीएन घोष को 17 जुलाई की आधी रात को पीएन हक्सर (इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव) का फोन आया. उन्हें तुरंत वो टीम ज्वाइन करने कहा गया जो बैंकों के राष्ट्रीयकरण से संबंधित अध्यादेश ड्राफ्ट कर रही थी. लगातार 24 घंटे काम करके 18 जुलाई को इस ड्राफ्ट को तैयार किया गया. 19 जुलाई को इस अध्यादेश पर कार्यवाहक राष्ट्रपति वी वी गिरी ने हस्ताक्षर किया. 20 जुलाई को उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया और निर्दलीय राष्ट्रपति चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी. इधर 21 जुलाई 1969 से संसद का सत्र शुरू होने वाला था. अगर अध्यादेश लाने में जरा सा भी देरी हो जाती तो राष्ट्रीयकरण का मसला अटक सकता था. क्योंकि तब इसे संसद के द्वारा पास कराना पड़ता. यहां यह भी बताना जरूरी है कि राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन भरने की आखिरी तारीख 24 जुलाई थी. 

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इंदिरा की सलाह को सिंडिकेट ने ठुकराया

ये वाकया बताने के लिए काफी है कि इंदिरा ने अब अपनी शक्ति का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था. इसके साथ ही सिंडिकेट से उनका टकराव और भी बढ़ गया था. पहले भी स्थितियां खास अच्छी नहीं थी. 10 जुलाई 1969 को बैंगलोर में राष्ट्रपति का उम्मीदवार चुनने के लिए कांग्रेस संसदीय बोर्ड की अहम बैठक हुई. 1869 में बापू पैदा हुए थे. 1969 बापू का जन्म शताब्दी वर्ष था. इंदिरा ने प्रस्ताव दिया कि इस मौके पर एक दलित को राष्ट्रपति बनाना उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देनी होगी साथ ही इससे समावेशी राजनीति के प्रति कांग्रेस के समर्पण का संदेश भी जाएगा. उन्होंने बाबू जगजीवन राम का नाम राष्ट्रपति पद के लिए पेश किया. लेकिन ये अहम का टकराव था. इंदिरा का प्रस्ताव खारिज कर दिया गया और राष्ट्रपति उम्मीदवार बने पूर्व स्पीकर नीलम संजीव रेड्डी. 

राष्ट्रपति भवन

10 जुलाई के बाद इंदिरा कैसे रेस में आईं और राष्ट्रपति चुनाव में क्या क्या हुआ ये ऊपर विवरण से समझा जा सकता है. इधर वी वी गिरी भी राष्ट्रपति पद की रेस में आ चुके थे. कहा जाता है कि उन्हें सिंडिकेट से नाराज इंदिरा की मौन सहमति प्राप्त थी, लेकिन इसका कोई सबूत नहीं मिलता है. तीसरे दमदार कैंडिडेट जो स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ और अन्य विपक्षी दलों के उम्मीदवार थे वे थे सीडी देशमुख.

अंतरात्मा की आवाज वाली इंदिरा की अपील

16 अगस्त 1969 को देश के पांचवें राष्ट्रपति का चुनाव होना था. इससे चार दिन पहले इंदिरा ने कांग्रेसी सांसदों और विधायकों से एक ऐसी अपील की जो पॉलिटिकल साइंस के विद्यार्थियों के लिए एक चैप्टर बन गई. 12 अगस्त 1969 को इंदिरा ने बिना किसी का नाम लिए कहा कि इस चुनाव में कांग्रेस के सांसद और विधायक अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट दें. इंदिरा पार्टी के संविधान और अनुशासन से बंधी थीं लेकिन वो क्या कहना चाहती थीं ये सभी कांग्रेसियों को समझ गया. इंदिरा ने बिना कुछ कहे खुला आह्वान कर दिया था कि वोट किसे देना है. 

चुनाव नतीजे आए. सिंडिकेट खेमे में मायूसी थी. वी वी गिरी राष्ट्रपति बन गए थे. हालांकि उन्हें नतीजे घोषित करने के लिए दूसरी वरीयता के मतों की गिनती की गई. लगातार दूसरी बार इंदिरा ने अपने असल मिजाज का परिचय देश और कांग्रेस को दिया था. 

इस चुनाव में इंदिरा गांधी, जगजीवन राम और फखरुद्दीन अली अहमद ने कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ वोट किया था. सिंडिकेट एक बार फिर बैठी. इंदिरा से जवाब तलब किया गया. अहम, हित और महात्वाकांक्षा का ये टकराव आगे भी जारी रहा. 12 नवंबर को अनुशासनहीनता के आरोप में इंदिरा को पार्टी से निकाल दिया गया. इसके साथ ही कांग्रेस पार्टी दो भागों में बंट गई. 

इन मुट्ठी भर लोगों का घमंड है

इंदिरा कहती थीं कि सवाल प्राइम मिनिस्टरशिप का था. अथॉरिटी का था. उन्होंने एक बयान जारी कर कहा था, " जनता द्वारा लोकतांत्रिक रूप से चुने गए नेता के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने का विचार इन मुट्ठी भर लोगों का घमंड है. क्या हम उनके सामने (पार्टी आकाओं) झुक जाएं या इन अलोकतांत्रिक और फासीवादी व्यक्तियों को संगठन से साफ करें."

इंदिरा गांधी फोटो- Getty Image

कुलदीप नैयर उन दिनों कांग्रेस के ओल्ड गार्ड वर्सेज यंग गार्ड के टकराव को याद करते हुए लिखते हैं कि ये वक्त हम पत्रकारों के लिए चुनौतियों और मजे का समय था. दोनों ही कैंपों द्वारा खबरें देर रात को उस वक्त रिलीज की जाती थी जब अखबार की कॉपी प्रिटिंग प्रेस जाने को तैयार रहती थी. ये ग्रुप सोचते थे कि अगले दिन अखबारों में उन्हीं का वर्जन लोगों को पढ़ने को मिलेगा. नैयर ने लिखा है कि उस वक्त टीवी न्यूज का जमाना नहीं था अन्यथा उनके पास हमेशा ब्रेकिंग खबरें ही होती. 

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