
कंज्यूमर फोरम्स में खाली पदों पर भर्तियों को लेकर सरकार की मनमानी से नाराज सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि ये कोई अच्छी स्थिति नहीं है कि खाली पदों पर भर्ती को लेकर भी कोर्ट को ही दखल देना पड़े. अगर सरकार ट्राइब्यूनल्स और उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोग जैसे अहम संस्थानों के नियमानुसार नहीं चलाना चाहती तो उन्हें खत्म ही कर दे. फिर तो सरकार को ट्रिब्यूनल एक्ट ही खत्म कर देना चाहिए. उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोग और समितियों में खाली पड़े पदों की लगातार बढ़ती संख्या पर जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एमएम सुंदरेश की पीठ ने सुनवाई के दौरान कहा कि ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोर्ट को इस बाबत बार- बार कहना पड़ रहा है.
कोर्ट ने कहा कि हमारी ऊर्जा तो अपने न्यायक्षेत्र को इन ट्रिब्यूनल में खाली जगहों का पता लगाने और भर्ती के इंतजाम करने में ही खप जाती है. कोर्ट तक लोग खाली पदों को भरने के आदेश देने की अर्जी लेकर आते हैं. सालों से लंबित अर्जियां यूं ही पड़ी हैं, लेकिन सरकारें निश्चिंत हैं. बता दें कि पीठ ने सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों को आठ हफ्ते में हर एक जिला उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोगों और समितियों में खाली पद भरने का आदेश दो महीने पहले 11 अगस्त को दिया था.
आज शुक्रवार को जब सुनवाई शुरू हुई तो सीनियर एडवोकेट गोपाल शंकर नारायण ने कोर्ट का ध्यान ट्रिब्यूनल्स एक्ट में प्रस्तावित संशोधन पर खींचते हुए सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया. नारायण ने कहा कि मद्रास बार एसोसिएशन मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का खुले आम उल्लंघन करते हुए केंद्र सरकार ये सब कर रही है. वहीं सरकार की ओर से एएसजी अमन लेखी ने कहा कि दरअसल देखा जाए तो संशोधन विधेयक सुप्रीम कोर्ट के मद्रास बार एसोसिएशन वाले मामले में दिए गए फैसले का पूरक हैं. लेकिन कोर्ट की टिप्पणियों से साफ हो गया कि लेखी की दलीलों का कोर्ट पर कोई असर नहीं पड़ा. पीठ ने कहा कि ऐसा लगता है कि हम अपने फैसले में कुछ और कह रहे हैं, सरकार कुछ और ही कर रही है, कहा कुछ और जा रहा है. इस सबके बीच आम जनता परेशान हो रही है.
हाल ही में बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने भी अपने फैसले में उपभोक्ता संरक्षण नियम 2020 के कुछ प्रावधानों को दरकिनार किया था जिनमें राज्य और जिला उपभोक्ता शिकायत निवारण आयोग में अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्तियों के प्रावधान में बदलाव किया गया है.
हाईकोर्ट ने पाया कि नियम 3(2) के मुताबिक राज्य स्तरीय आयोग के अध्यक्ष और सदस्य पद पर नियुक्ति के लिए उम्मीदवार को कम से कम 20 साल का और नियम 4 (2) c के मुताबिक जिला स्तरीय आयोग के अध्यक्ष और सदस्य पद पर कम से कम 15 साल का अनुभव जरूरी है. इसके अलावा नियम 6(9) के मुताबिक उस चयन समिति को भी अक्षम और निष्क्रिय कर दिया गया है जो आयोग के कार्य और प्रक्रियाओं के साथ ही आयोग की जरूरतों के मुताबिक सिफारिश भी करती है.
वैसे सुप्रीम कोर्ट में ट्रिब्यूनल्स के खाली पदों पर चीफ जस्टिस एनवी रमणा की अगुआई वाली पीठ ने कई बार सरकार को उदासीनता के लिए फटकार लगाई है. सुप्रीम कोर्ट ने इसी साल 14 जुलाई को केंद्र सरकार के ट्रिब्यूनल्स नियमों में संशोधन के लिए संसद में पेश वित्त विधेयक 2017 की धारा 184 रद्द कर दी थी. उस विधेयक में ट्रिब्यूनल सुधार के साथ एकरूपता और सेवा शर्तों का नियमन करने का अध्यादेश था. इसमें ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष और सदस्य का कार्यकाल चार साल तय कर दिया था.